मृगेश पाण्डे
समुद्र मंथन में अमृत की खोज चल रही हैण् अमर बने रहना है देवों को भी और असुरों को भीण् विष निकलता है तो शिव उसे पी जाते हैं गले में रोक लेते हैं नीलकंठ कहलाते हैंण् विष्णु मोहिनी रूप धारण कर असुरों को रिझाते हैं कहीं इस द्वन्द में वह अमृत पा अमर ना हो जाएंण् अंततः देवता ही अमृत के पात्र बनते हैंण् अमर हो रहे हैं।रहा बचा विष वैश्वीकरण के दौर में सामाजिकए राजनीतिकए आर्थिक और पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन से रिस रहा है ।
एकरसता धूमिल हो रही है का जाप करने वाले कचकचुवे भी ऐसे टाइम का इंतजार करते है जब पर्व त्योहार की मालाएं उतारने का बोरियत भरा काम निबटा लिया जाए । आय और उत्पादन की विषमताएं बढ़ रही हैंए विकास के नाम पर फैलता विनाश पर्यावरण को गंभीर चोट पहुंचा गया है जैसी बकझक से लोग आहत हैं। इसीलिए मेट्रो बनने के लिए पेड़ कटें या बड़े लोगों के कल .कारखानों को बनाने के फेर में पेड़एपरिवारएखेतए मकान सिमटा दिये जाएं । टिहरी जैसे और कितने शहर गावों की जल समाधि हिमालयी परवतों की किस्मत में लिक्खी है उनके बारे में कुछ कहने में विशेषज्ञता का तमगा पाए विविध वेशधरी मौन रह और गम्भीर चिंतन वाला पोज बना लेते हैं । प्रकृति .पराली .पर्यावरण .पारिस्थितिकी पर चिपट गए विष का शमन करने के लिए जिन प्रेरक उपायोंए प्रोत्साहनों और विचारधाराओं पर आश्रित रहा जा रहा है वह विवेकशीलता के प्रति कितनी विशिष्ट हैंए कितनी स्वस्थचित्त हैं इसका निर्धारण उस उग्र प्रचंड और भीषण ऊर्जा के अवलोकन पर निर्भर करता है जिसका प्रर्दशन प्रभाव वर्तमान समय में हमारे सामने है।प्रदूषण हम सबने फैलाया हैण् क्या इस समस्या को सुलझाने की जिम्मेदारी किसी और की हैघ् यह देश की राजधानी और बड़े शहरों का ही विषय नहीं हैण् गांव .देहात तक विष फैला हैण् गरल गटकने वाले शिव विकास और समृद्धि के नामधारी बन गए हैंण् ऐसा क्यों लगता है कि विकास की सारी सोच ही मौकापरस्ती की मथनी मथ रही हैण् एक तरफ चकाचोंध हैण् हर कोई इसका हिस्सा बनना चाहता हैण् प्रगति के मानक ही ऐसे बुने गए हैं कि असमानता बनीं रहेण् असमंजस बने रहेंण् स्वास्थ्य और शिक्षा इसकी गहरी लपेट में हैंण् कोई भी उत्सव कोई भी आयोजन त्यौहार अपने उत्साह के बाद ढेर गन्दगी और सड़ांध छोड़ रहा हैण्
विकास का मनोरथ भी यही हैण् लक्ष्मी आएगी ।मनोरथ सिद्ध करने के लिए रास्तों का विकल्प देगी ।शुभ . लाभ की हसरतें रहेंगी ।नाना आयोजनों से बंदनवार सजेगी । रंगबिरगे प्रकाश आयातित हो सब कुछ चमका देने का दंभ भरते मिट्टी के बने दिए और कुम्हार की चाक को भी ऐसा थोड़ा बहुत मौका देंगें कि वह भी लछमी माता का पूजन कर सके।कह रहे हैं मिट्टी की मूर्ति बनाने वाले बेशुमार कारीगर कि अब मिट्टी भी बड़ी दूर से कितना मोल दे कर मंगानी पड़ती है ।बाज़ार में मुनाफा तो बड़े दुकानदार उठा जाते हैं ।फिर छोटे कारबार में बने खील खिलौने हों या पेठा बताशाए रंगबिरंगे कागज के झाड़ फानूस मुनाफा कहीं और ही क्यों सिमटता हैघ्मुनाफे की चाह के मायाजाल निराले हैं ।वैसे तो माल कब बना और उसकी अधिकतम कीमत क्या हैघ् यह जता देना जरूरी है साथ में यह भी समझ लिया होगा आपने कि बिजली ए एल ई डी लाइटए झाड़ फानूसएरंगीली लड़ियां भले ही वह मेड इन चाइना हों या फिर मेक इन इंडिया थोक बाजार में एक तिहाई कीमत में मिलती हैं।चालीस परसेंट का मार्जिन होल्डर स्विच एल्युमिनियम वायर पर है ही।अब हेवल और एंकर जसी लब्ध प्रतिष्ठित कंपनियों का माल पूरी डुप्लीकेसी के साथ मौजूद है ।पुरानी दिल्ली के जमे व्यापारी बताते हैं कि बस हम तो ये ताड़ते हैं कि रिटेलर बार बार आने वाला है कि अगली बार के लिए चारा सही पड़े । अब त्योहार है तो मुंह मीठा करने के चक्कर में आपकी गांठ खूब कटेगी। घटतोली के भी शिकार बनेंगे और तमाम मिलावट के माल को रंगीले रसायनों के साथ केवड़ेएकेसर और इलायची की एसेंस के साथ गटकेंगे। त्योहार आते हैं जिन्हें सादगी के साथ मनाने की बात करना अल्प विकास का संकेत है एकंजूसी का तमगा है । बुढोती का ज्ञान है ।बिना छल बलाट बलबलाट के कैसा उत्सव कैसा आयोजन घ्लाख जतन कर लो ए करोड़ों के विज्ञापन कर दो । सी एस आई आर और नीरी से रिसर्च भी करवा लो ए शिवकाशी से थोक माल की बिक्री कितनी ही सिकुड़ क्यों ना जाए एइको फ्रेंडली के नाम पर फुलझड़ीएअनार क्यों घ्आसमान में सलमा सितारे देखे बिना अरमान कैसे मचलेंगे । बमों के कानफोड़ू धमाकों के बिना बुरी आत्माएं कैसे भगेंगी!फिर भाग्य भी तो जगाना है जब वह लक्ष्मी की कृपा से जुड़ा हो।तब तमाम हवाए मिलावटए ठगीएलूट जैसे प्रगतिशील कुंठा मय लफ्फाजी को लपेट कर रख देना ही आदर्श स्थिति है । दरअसल जो इस बहती जमुना में नहाने के काबिल ही नहीं वह अहमकों की तरह की बातें कर उत्सव पर्व आयोजन में हो रही लूटए मिलावट की लफ्फाजी करते फिरते हैं।तिल का ताड़ बनाते हैं।मौका चाहिए बस।और अपना देश इतना बहुरंगी है कि दिमाग को उलझाए रखने के लिए हर तरह के पंच मौजूद हैं भले ही वह चुनाव की महा लोकतांत्रिक परीक्षा हो हो या सर्जिकल स्ट्राइक का उन्माद सब जिह्वा की लोचशीलता और बकेती के रसों से परिपूर्ण है।ऐसे सब पर्व उत्सव त्योहार निराशाओं हताशाओं के द्वन्द से छिटका कर कुछ भी जो हासिल हो रहा के विवेक तथा मिल रहे अमृत या विष के चयन का मौका ही कहां देता है घ्या फिर किसी अन्य विकल्प की तलाश के विचार विमर्श की पेमाईशें बड़ी तेजी से विलुप्त होती जा रही हैं । ऐसे डायनोसोर सिमटते हुए भी अपने प्रागैतिहासिक अंडे टेलीविजन चैनलों के कुकाट में फ्राई करते हुए देखे जा सकते हैं। शहरीकरण जिस एकला चलो संस्कृतिएएकल परिवारएप्रदर्शन प्रभाव और इंस्टेंट नतीजों को हमारी सोच में शामिल कर चुका है उसकी उदासीनता को तोड़ने के लिए तमाम वाहियात बातों का मनन चिंतन जरूरी है ।इसका शुभ लाभ प्रैक्टिकल बनाने का स्वांग रचाने के लिए महान विचारक और जीनियस जैसा प्रोस्थेटिक मेकअप लुक दे देता है ।
पश्चिम के आधुनिकीकरण के साथ कदमताल और चीन के अंधाधुंध बाज़ार घेरू अभियान की प्रतिभा को समझ लिया गया है कि वैश्विक विकास के प्रारूप द्वारा ही समृद्धि के आयाम लाया जाना संभव होगा। अब कैसे और क्यों बहुत सारे लोग और समुदाय इससे वंचित रह गएण् क्या इसकी वजह भृष्टाचार हैघ् या वह सरकारें जो जनता के लिए कहीं भी जवाबदेही नहीं रखतींण् और फिर या वह विशाल उपक्रम जो अपनी गहरी पैठ बनाये रखते हैं जिनकी जड़ें हर जगह फैली हैं ण् कहीं सारी सुविधा भोग रहे कुलीन वर्ग की दिशाहीन महत्वाकांक्षा सब कुछ निचोड़ कर समृद्ध समाज के कुलाबे तो नहीं भिड़ा रहीण् सारे माहौल में हर स्तर पर किया जा रहा विभाजन क्यों हैघ् सामाजिक स्तरीकरण की खाई चौड़ी होने के साथ क्यों गहराती जा रही हैघ् वैश्वीकरण में वृद्धि दरों को बढ़ाने की चाहत से ऐसी प्रतिस्पर्धा क्योंकर उपज गयी कि भारत की पारिस्थितिकी डगमगाने लगीण् असंतुलन असमानता निर्धनता निवारण के फौरी उपाय समस्या को स्थाई रूप से सुलझाने वाले ना हो कर अगले चुनाव जीतने कि पटकथाओं से क्यों कर जुड़े रहेण् ऐसे सवाल जब उठे तो उनकी प्रासंगिकता अकादमिक स्तर पर नोबल पुरस्कार पा गयी ।
प्रश्न ऐसे भी उभरते हैं कि आर्थिक सुधारों को किन लोगों की आधारभूत जरूरतों की पूर्ति के लिए लागू करना जरुरी समझा गयाण् गरीबी को दूर करने की चाहत में क्या विस्थापन नहीं हुआण् ग्रामीण इलाकों में ऋण ग्रस्तता क्योंकर बढ़ गयीण् क्या इससे लोगों के काम करने की आदतोंए काम के स्वभावए स्ववृत्ति पर विपरीत प्रभाव तो पैदा नहीं कर दियाघ् आखिर क्यों खेती के इलाके सिमटने लगे घ् यह कैसी वृद्धि थी जिसने रोजगार विहीन दशाओं को पैदा करना शुरू कर दियाण् फिर इस सिलसिले में प्रकृति पर कौन से बोझ बढ़ेण् संसाधनों की उपलब्धता पर इसका क्या प्रभाव रहाण् जिन नीतियों को लागू किया जा रहा था उनसे वास्तव में किनके हित सुरक्षित हुएण् वैश्विक विकास के मॉडल से वृद्धि की जो प्रक्रियाएं शुरू की गयीं उनसे जीवन की समूची पद्धतिए संस्कृति और सोचने के तरीका ना केवल बदला बल्कि विकृत भी होने लगाण् मानवीय व्यवहार में बाजार एक बहुत बड़ी ताकत के रूप में उभरा और आधुनिक मुख्य धारा के अर्थशास्त्रियों ने इसका स्तुतिगान जारी रखाण् आदर्शरूप से अप्रिय और कठिन स्थिति जिससे बाहर निकलना कठिन हो को संभव बनाने के लिए शक्तिशाली प्रौद्योगिकी के बहुल प्रयोग हेतु ऐसी नई खोज की जाती रही जो खनन .खुदानए उत्पादनए वितरणए उपभोग के साथ प्रोपेगेंडा और निगरानी तंत्र को अपनी लपेट में लेती थींण्
विकास की इस लहर ने समाजए अर्थतंत्रए राजनयए संस्कृति के साथ पारिस्थितिकी पर जो प्रभाव डाला वह पर्यावरण की गंभीर समस्याओं के साथ सामाजिक स्वास्थ्य के निरंतर कुपोषित होने के संकेत नहीं दे रहा था क्याघ् 1990 के दशक के आरम्भ से आर्थिक सुधार तेज और कठोर तरीके से अप्रत्याशित व विचित्र तरीके से लादे गएण् इसका देश पर नाटकीय प्रभाव पड़ाण् आर्थिक वृद्धि की दरें पर्याप्त उछाल दिखाती रहींए वह देश के मेट्रोपोलिटन इलाकों को वैश्विक अर्थव्यवस्था से सन्निहित करने के संरचनात्मक परिवर्तनों की रेलमपेल से शासित होता रहा जिसकी शर्तें वैश्विक तथा भारतीय संभ्रांत के अनुकूल थीए शेष भारत हाशिये पर कही छिटका रहाण् मेट्रोपोलिटन भारत के पास इतनी ताकत आ गई की वह बचे हुए बेपनाह लोगों की तक़दीर लिखने की हैसियत पा गएण् जबकि इनके कामकाज के तरीकेए काम का माहौल बिलकुल अलग थाण् हर स्तर पर असमानताएं उभरने लगी । तुरत फुरत कमा लेने एधन संपत्ति वित्त मुद्रा प्राप्ति के आसान तरीके पैदा हो उठे ।पर यह सब उन गिने चुने विशिष्ट सुविधा प्राप्त वर्ग के लिए था जिनकी कुछ खासियत थी ।विकास की दरों को ऊंचा रखने एविदेशी संस्थाओं की हर शर्त मानने के अलावा अपना कोई दृष्टिकोण साफ ना कर पाने पर कठपुतली सी नाचती सरकार ना तो आंतरिक स्थायित्व बनाए रखने में सफल दिख रही थीं और ना ही वाह्य संतुलन बना पा रही थीं । हां वह बढ़ती कीमतों और रोजगार के मामलों को टालने की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही थीं ।विकास प्रेरित सोच दबावों में घिर ऐसे कुचक्र रच गई थी जिसमें फंस करआम आदमी के जीवन के संभावित अवसर भी धूमिल हो गए थे। देश की आर्थिक नीतियों का तालमेल विदेशी और देसी ऐसी संस्थाओं के हाथों में सौंप दिया गया एजो संसाधनों को निचोड़ लेने की जकड़ में महारत हासिल कर गईं थींए जो श्रमिकों के शोषण का हर हथकंडा जानती थीं ।नियमित कर्मचारियों की भर्ती के बदले अंशकालिक संविदा जैसे उपायों ने बहुत कम मजदूरी व वेतन पर कुशल व अकुशल श्रमशक्ति के साथ दो टप्पे का खेल खेलने में महारत हासिल कर ली
१९९० के दशक से शुरू हुई इस पटकथा में जनता का ध्यान बटाने के लिए शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने एकौशल विकास के प्रशिक्षणएप्रोद्योगिकी और नवोन्मेष के कई फार्मूले ठूंसे गए ।पहले यह धारणा कि विदेशी फार्मूलों और प्रारूपों के अंधानुकरण से ही देश की भाग्य रेखा एयश रेखा और मेघा दमक सकती है पर असमानताएंएअसमंजस बरकरार रहे तो स्वदेशी के राग को बहुत भोंतरे तरीके से थोपा गया।तमाम मिथकों के यशोगान और स्वर्णिम भारत के इतिहास के पन्ने चुन चुन का आपस में पिरोए गए ।आस्था और योग के नाम पर आए जागरण को लोगों ने इमोशनल हो कर देखा और समझा भी कि उसकी पेंदी में कितना रिसाव हैण् यह तब समझ में आया जब पोल पर्त दर परत खुली ।यहां तो और भी सुमधुर एलोवेरा का शरबत था तो पीने वाले की छोटी बचत पर छेद कर रहा था। आयुष के नाम पर हर चूर्ण चटनी रस आसव में अश्वगंधा होने और तेज गति से भारत के विकास के घोड़े दौड़ाने के नाद. हुए।स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर बीमा कंपनियों और कई कई सलमा सितारा अस्पतालों वा सुपर स्पेशलिटी विशेषज्ञों को कुबेर का खजाना प्राप्त होने की नवोन्मेषी सिद्धि मिली।रोग .बीमारी ए आसन्न मृत्यु तो आनी ही है ।आम जन के भाग्य चक्र में अवस्थित है यह नियति भले ही विकट भूख से हो एकुपोषण से या चिकित्सालयों की त्वरित अनदेखी से । पर भूख से कोई मरा हो यह सरकार भी स्वीकार नहीं करती ।इसलिए कुपोषण पर ध्यान अटकाया जाता है ।बेरोजगारीएवर्गए जातएऔर लैंगिक उत्पीडन के पक्ष भी हैं जिनको लेकर साझा चूल्हा समय समय पर सुलगता है ।खेती की जमीन पसोपेश में है उसका रकबा घटता है तो नए आधुनिक प्रतिष्ठान खड़े होते हैं ।शहर महानगर और मेट्रो सिटी में बदलते हैं ।हर विशाल अपार्टमेंट से सटी रौनक के पास झुग्गी और चाल का सह अस्तित्व बनाए रखना मजबूरी बन जाती है ।वरना वो कहां से आएंगे जो गेट पे खड़े रह चौकीदारी करेंगे । माल ढोएंगे। पोछा लगाएंगे ।देवी लक्ष्मी पे चढ़ाने के लिए फूल माला पिरोएंगे ।अट्टालिकाओं के इनारे किनारे पसरी कितनी सारी हसरतों में जी रही ताकत की रगों में हर उत्सव एहर पर्व को भरपूर जी लेने की कशिश जो है ।गांव से शहरएशहर की ठेलंपेल और रेलमपेल से बढ़ महानगर की चुंधियाती रोशनियों के साथ इनकी तारबाड़ को बचाए रखने की ज़िम्मेदारी धीरे धीरे मशीन बनते जिन कंधों में है वह अपने गांव के रस्म रिवाजों को ढोते धीरे धीरे शहर के सयाने पन में ढल रहे हैं।गांवघर की जमीन छोड़ रोजीरोटी की तलाश में बेगाने बन नए सामाजिक परिवेश और उसमें कसमसाती राजनीति के धागे अनजाने ही कई दुविधाओं को जन्म देते हैं।सही गलत के बीच का फर्क भी धुंधला जाता है ।अपने को बनाए रखने के लिए रास्तों का चुनाव भी अपने हाथ में नहीं रहता।नैतिक शिक्षा बस बोलचाल में अच्छी लगती हैं । उलझे मन और डगमगाए कदम आसानी से वह सब कुछ पा लेने को आतुर कर देते हैं जिनके लिए कल की सोच बेकार हो जाती है ।गरीबीएअशिक्षाए बीमारीए कुपोषण और तेजी से प्रदूषित होती हो रही धरती में वह विष अब जरुरत से ज्यादा हो गया है जिसे गटकने के लिए आबादी का एक बड़ा हिस्सा मजबूर हैण् ऐसी नीतियों की प्रतीक्षा में जो आर्थिक आधार पर इतनी मजबूत व लोचशील हों कि रोटी कपड़ा और मकान जैसी बुनियादों पर टिकी होंण् ऐसे अमृत की कुछ बूंदों की आस में आज भी देश का अधिकांश जनमानस हैण् ;जारी द्ध
हर हफ्ते ताजे आर्थिक घटना क्रम पर आधारित होगी यह लेखमालाण् पहला भाग विकास के दोनों पक्षों का सामान्यीकरण हैण् आंकड़े सिर्फ इतने कि ट्रेंड बताया जा सकेण् टोन थोड़ी व्यंगात्मक रहेगीण्