देवेश जोशी
कुछ ही महीने पहले की बात है। अननोन नम्बर से मोबाइल पर काॅल आती है। उठाया तो कोई महिला कड़क आवाज़ में पूरे आत्मविश्वास के साथ पूछ रही थी – आप कौन हो? मैंने घबराते हुए कहा, मैडम आप बताइए आप कौन हो। और ये तो आपको मालूम होना चाहिए कि आप किससे बात करना चाह रही हैं। इस पर उधर से आवाज़ आयी, मुुझे याद नहीं रहता। चार-पाँच नम्बर नोट किए थे बात करने के लिए। मैं वीणापाणि जोशी बोल रही हूँ। वीणापाणि नाम ही काफी था, मैंने तत्काल कहा, दीदी प्रणाम, मैं देवेश जोशी बोल रहा हूँ, आपने तो डरा ही दिया था। आपका नम्बर भी मेरे फोन में सेव था पर आप किसी और नम्बर से बात कर रही हैं। दीदी ने फिर से डराते हए कहा, तुम वही देवेश जोशी हो जो धाद में लिखता है। मुझे पक्का यकीन हो गया था कि दीदी को कोई बात पसंद नहीं आयी होगी और आज मेरी क्लास ली जाएगी। मैंने डरते हुए कहा, जी दीदी……मैं ही लिखता हूँ। दीदी ने उसी स्वर में कहा, बहुत अच्छा लिखते हो, कभी घर पर मिलने आओ।
साफ लग रहा था कि दीदी को अब कुछ विस्मृति होने लगी है। मैंने उनके घर पर ही हुई मुलाकात का जिक्ऱ किया। यह भी बताया कि आपके पिताजी (सुप्रसिद्ध गढ़वाली कवि चक्रधर बहुगुणा) की 1938 में प्रकाशित कविता-पोथी मोछंग की काॅपी आपने ही मुझे दी थी, ये कहते हुए कि बस ये ही एक प्रति बची है। अपना भी काव्य संग्रह (दूर्वा से अक्षय वट तक) भी आपने अपने करांकित स्नेह के साथ मुझे दिया था।
उŸाराखण्ड संस्कृति, साहित्य एवं कला परिषद की पूर्व सदस्य, सुप्रसिद्ध साहित्यकार वीणापाणि जोशी का 83 वर्ष की अवस्था में इसी 6 मार्च को अपने देहरादून स्थित आवास पर निधन हो गया है। उनका जन्म 10 फरवरी 1937 को देहरादून जनपद में हुआ था जबकि पैतृक गाँव पोखरी, पौड़ी में है। उच्च शिक्षित और कुशल कवि के घर में जन्म लेने से काव्य-साहित्य के संस्कार बचपन से ही थे। दीदी ने खुद बताया था कि वन-सेवा के अधिकारी से विवाह होने से युवावस्था पति के साथ देश के वन विभाग के बंगलों में ही व्यतीत हुई। इससे प्र्रकृति का गहन-आत्मीय अवलोकन करने का उन्हें पर्याप्त अवसर मिला। ये अवलोकन उनकी रचनाओं में भी खूब प्रतिबिम्बित हुआ है। दीदी की खासियत ये रही कि अफसर जीवनसाथी के साथ रहते हुुए भी न कभी उन्होंने अपने शौक से समझौता नहीं किया और न अपने व्यक्तित्व को ही पति की परछायी-मात्र बनने दिया। पारिवारिक जिम्मेदारियां कभी-कभी रास्ते में जरूर आती थी पर वो इन सबके बीच सामंजस्यपूर्वक राह बनाने में सफल भी होती रही। उन्हीं की एक कविता में ये झलक देखी जा सकती है –
कभी झाड़ू करती पहल
कभी लेखनी बिफरती, नहीं मैं!
कुटली क्यों चुप रहती
तुम दोनों बाद में पहले मैं
इन सबका द्वंद्व झेलती
संयुक्त परिवारों की बहुओं-सा पीड़ित होती मैं।
झाड़ू जीती तो दोनों मुुँह फुलाती
यदि लेखनी पकड़ी तो कलम की हड़ताल
और कुटली का धरना झेलना ही पड़ता
समझौता कराती उलझती-सुलझती मैं
दो विजयी तो तीसरी अनमनी
तीसरी सक्रिय तो दोनों घूरती……।
दीदी को बागवानी का भी बहुत शौक था। इशारा करते हुए उन्होंने दुखी मन से कहा बाहर आज जहाँ आम-लीची के सूखे पत्ते बिखरे हुए देखे होंगे तुमने वहीं कभी मैं मन लगाकर बागवानी किया करती थी। उनका शौक उन्हीं के शब्दों में –
कलम या कुटली ?
दोनों समान प्रिय मुुझे
फूलों ने गुहार लगायी, आलि आओ!
कुटली न छोड़!
धरती से नाता न तोड़!
कलम ने डाँट लगायी-
सँभाल मुझे, ठीक से सँभाल!
कलम-कुटली साथ-साथ
कभी आगे, कभी पीछे
दौड़ रही हैं, मेरे हाथ।
साथ चलेगी मेरी कुटली
संग-संग लेखनी लिखेगी।
पहाड,़ कभी दीदी के मन से दूर नहीं हुआ। तमाम आधुनिक सुख-सुविधाओं के बीच पाॅश एरिया में निवास करते हुए भी वो पहाड़ों में व्यतीत अपने बचपन को बहुत मिस करती थी। उन्हीं दिनों की याद को उन्होंने एक सुन्दर कविता में पिरोया है जो किसी भी पहाड़ी महिला की आँखों को नम कर देने में पूर्ण समर्थ है –
अरे ये रहा बड़ा किन्गोड़
अहा मीठा पट से तोड़
बीचोंबीच माथे पर दबा एक सखि
दूसरों से कहती, कितनी सुन्दर बिन्दी!
भाग्यशाली है तू!
तेरी सास बहुत प्यार करेगी तुझे।
चलो हिंसर खाएँ
झिसैले पŸो चटक नारंगी
कोई कत्थई, कोमलतम फल
कितने मधुर जी-भर खाए
दोना भर घर लाए।
दैनिक जीवन के हर क्रियाकलाप में महिलाओं की उपस्थिति और सर्वव्यापकता को भी एक कविता में खूबसूरती से उकेरा गया है –
मुझे तुुम कहाँ-कहाँ
कब तक नकारोगे ?
खेत की हरियाली में
झोपड़ी की गोबर पुती दीवार
हाथ के पंजों के निशान में मैं।
गौशाला बँधी गैय्या की गुहार में
दुहे जाते ताज़े दूध की धार में मैं।
पकी फसल सँवारती पूरबी बयार में
खेत-खलिहान में, घर-भण्डार में मैं।
भोर की बेला में भजन गुनगुनाती धुन में
रात के अँधेरे में मुुन्ने को थपकी देकर
सुलाती लोरी गाती निंदिया बुलाती मैं।
नक्कारते रहो, धिक्कारते रहो
मेरा वजूद पिण्ड नहीं छोड़ेगा तुम्हारा।
महिला-विमर्श उनकी कविताओं का प्रमुख और झकझोरने वाला स्वर है। फाइव स्टार होटल में आधुनिक महिला का प्र्राॅन पिकल आॅडर करने को वो उनकी पसंद को केकड़ों का अचार खाने वाली के रूप में व्यंग्य भी करती हैं तो ऐलिफेंटा केव के रास्ते में असह्य दुर्गंध के बीच कीचड़ से केकड़े बीनती और फिर मेन रोड पर किसी दलाल के हाथों बहुत कम क़ीमत में बेच कर गुजारा करती गरीब महिला की मजबूरी को भी विषय बनाती हैं। दुनिया में लीक से हटकर अपनी पहचान बनाने वाली महिलाएँ भी उनकी कविताओं का पसंदीदा विषय है। इन सबसे उन्होंने प्रेरणा भी ली है और प्रेरक कविताएँ भी लिखी हैं। भौतिकता का गुल झाड़ने में सहायक विदुषी वाचकन्वी गार्गी हो या जगद्गुरू आदि शंकराचार्य को अपूर्णता का अहसास कराने वाली मंडन मिश्र की अद्र्धांगिनी (जिसे आपने सर्वांगिनी नाम दिया है) भारती। म्यांमार की राजनेत्री, लेखिका और नोबेल शांति पुरस्कार विजेेता अंाग सान सू की हों या कारागार सुधारों के लिए चर्चित प्रथम महिला आईपीएस किरण बेदी, सभी उनकी कविता के विषय हैं। प्रसिद्ध अमेरिकन फेमिनिस्ट लेखिका, एक गरीब टैक्सी ड्राइवर की बेटी फ्लोरेंस हाउ के संघर्ष और योगदान को भी आपने आत्मीयता से याद किया है, दीदी संबोधित कर। लियोनार्द-दा-विंची की मोनालीसा ने भी उनका ध्यान आकृष्ट किया पर पेरिस के म्यूज़ियम वाली नहीं। दीदी वीणापाणि की मोनालीसा तो अलकनंदा किनारे की किसी पहाड़ी की खड़ी ढलान पर घास काटती घसेरी थी।
वीणापाणि जोशी के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हैं। श्याम भँवर कुछ बोल गया और दुर्वा से अक्षय वट तक हिन्दी में और पिठैं पैरालो बुराँस गढ़वाली में। उŸाराखण्ड की महिलाएँ: संघर्ष और सफलता की कहानियां एक और किताब है जो अपने दम पर संघर्ष कर सफलता प्राप्त करने वाली उŸाराखण्ड की महिलाओं पर केन्द्रित है। इनके अतिरिक्त उन्होंने कई शोधपरक आलेख भी लिखे हैं। डाॅ गोविन्द चातक ने वीणापाणि जोशी की कविताओं के बारे में लिखा है कि उनमें परिवेश और पर्यावरण विनाश की पीर बस रही है। चाहे पेड़-पौधे हों या पशु-पक्षी, इन कविताओं में उनकी जान बसती है।
ये संयोग ही है कि दीदी वीणापाणि का नश्वर शरीर शनिवार को ही पंचतत्वों में विलीन हुआ। शनिवार को प्रदेश की राजधानी और नामी वैज्ञानिक संस्थानों के लिए ख्यात देहरादून शहर में नींबू-मिर्ची के सवा लाख के कारोबार पर लिखी गयी कविता भी द्रष्टव्य है –
चार हरी मिर्च, नींबू ऊपर तीन हरी मिर्च
प्यारा-सा गोलमटोल पीला नींबू।
ये लघु व्यापारी करते निर्धारित
अपने-अपने विक्रय क्षेत्र
प्रिय अतिथि-सा जोहते
शनिवार की बाट
सवा लाख के नींबू-मिर्ची
द्रोण की नज़र उतारने में सफल
घर-वाहन, दुकान
टाँगते नींबू-मिर्ची, चोखा धन्धा
नगद आमदनी
इन्हें विश्वास है कि
आतंकियों की नज़र काणी होगी
यदि दून पर डाली तो।
हिन्दी, संस्कृत, पंजाबी, अंग्रेजी, गढ़वाली, कुमांउनी, ब्रज और अवधी भाषाओं पर मजबूत पकड़ रखने वाली वीणापाणि जोशी ने उŸाराखण्ड राज्य आंदोलन सहित विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। गढ़वाल सभा देहरादून की वो उपाध्यक्ष भी रहीं थी। उनके निधन से उत्तराखण्ड ने जमीन से जुड़ी एक प्रकृतिप्रेमी संवेदनशील कवयित्री को खो दिया है। एक ऐसी साहित्यसेवी जिसने दृढ़ इच्छाशक्ति के दम पर अपने व्यक्तित्व को भी ऊंचाइया प्रदान की और अपनी प्रगतिशील रचनाओं से अन्य महिलाओं को भी राह दिखायी। कलम-कुटली वाली पहाड़ी कवयित्री के रूप में वे हमेशा याद रहेंगी।