विनोद पांडे
लगभग बिना चर्चा के संसद में पास हुए वन संरक्षण कानून 2023 पर आजकल देश भर में बहुत चर्चा हो रही है। यह मामला पर्यावरण के संरक्षण से जुड़ा है, जिसके दीर्घकालीन प्रभाव होगें। इसलिए इस कानून का मतलब समझने की जरूरत है। दरअसल 70-80 के दशक में जब पर्यावरणवाद को सरकार और अंर्तराष्ट्रीय संस्थाओं का संरक्षण प्राप्त था, उस समय देश विदेश में पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए कई नियम कानून बने। इसी दौर में वन संरक्षण कानून 1980 आया। यह कानून तब भी विवादों से परे नहीं था। महज तीन पैरा के इस कानून का उद्देश्य था कि राज्य सरकारों के द्वारा किसी भी जंगल की जमीन को गैर वानिकी काम के लिए देने के अधिकार पर नियंत्रण लगाना क्योंकि पाया गया था कि राज्य सरकारों ने आजादी के बाद से तब तक करीब 45 लाख हैक्टर वन भूमि को दूसरे उपयोग के लिए दे दिया है। इसलिए वन भूमि के हस्तान्तरण के लिए केन्द्र सरकार की अनुमति को अनिवार्य बना दिया गया। सन् 1996 में न्यायालयों की सक्रियता के दौर में गोंडावर्मन नाम से प्रसिद्ध केस के द्वारा इस कानून में जंगल की परिभाषा की व्याख्या कर दी गयी। इसमें कहा गया कि जंगल का अर्थ शब्दकोष के अनुसार ही होगा और ऐसी सभी जंगल जिन पर भले ही किसी का स्वामित्व हो इस परिभाषा की परिधि में आते हों, तो उस पर वन संरक्षण कानून लागू होगा। इस तरह यह कानून बहुत व्यापक हो चुका था। ऐसा करने के पीछे न्यायालय की मंशा पर्यावरण संरक्षण पर जोर देना था लेकिन वर्ग जिनके इन जमीनों से हित जुड़े थे के लिए यह आदेश आफत बन कर टूटा।
इस कानून का अर्थ कदापि यह नहीं था कि किसी जंगल में गैर वानिकी काम नहीं हो सकता है बल्कि यह था कि इस तरह के कामों के लिए केन्द्र सरकार की इजाजत लेनी पड़ेगी। इससे सभी परियोजनाओं को भले ही वे जनहित की क्यों न हों, कई औपचारिकताओं को पूरा करना पड़ता था। पिछले 3 दशकों में शायद ही कोई परियोजना हो जिस पर सरकार की सहमति हो और उसे स्वीकृति न मिली हो। अलबत्ता ऐसी कई परियोजनाऐं थी जो भले ही सरकार ने पास कर दी हों लेकिन पर्यावरण के लिए खतरनाक होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने उन पर रोक लगा दी या कुछ कड़ी शर्तें लगा दी। इस तरह इस कानून पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण होने के बाद भी कई बार सरकार के हाथ बंधे रह सकते थे, इस नये कानून के प्रावधान इस ओर स्पष्ट रूप से बताते हैं कि यही वजह इस कानून को लाने की रही होगी। इसलिए संक्षेप में इस कानून के बदलावों पर चर्चा करना जरूरी है।
इस कानून का नाम वन (संरक्षण और संवर्धन) कर दिया गया है। तकनीकी रूप से वनों के संदर्भ में संरक्षण और संर्वधन शब्दों में कोई फर्क नहीं है। इसी तरह इस कानून के प्रस्तावना में लिखा गया है कि इस कानून से कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने में सहायता मिलेगी, जिससे जलवायु परिवर्तन से निबटने में सहायता मिलेगी। इसी आधार पर एक पूर्व सचिव एक चर्चा में कह रह थे कि अब निजी भूमि के वृक्षारोपण को इस कानून की परिधि से बाहर कर दिया है। इसलिए लोग अधिक पेड़ लगायेंगे जिससे जलवायु परिवर्तन से निबटने में सहायता मिलेगी। इस तरह का प्रचार भ्रामक है क्योंकि पहले से ही पुराने कानून में निजी भूमि के वृक्षारोपण इस कानून से मुक्त थे। दरअसल प्रस्तावना में इसी तरह की पर्यावरण संरक्षण की बातें कहीं गई हैं।
एक संशोधन यह है कि अंर्तराष्ट्रीय सीमाओं से 100 किमी0 के दायरे में “सामरिक महत्व” व “राष्ट्रीय सुरक्षा” के कार्य इस कानून से बाहर रहेंगे। सरसरी तौर पर यह राष्ट्रहित का मामला नजर आता है। लेकिन “राष्ट्रीय महत्व” और सामरिक महत्व” को परिभाषित किये बिना सरकार द्वारा किसी भी प्रयोजन को इन महत्वों की श्रेणी में लाया जा सकता है। इसके लिए उत्तराखण्ड में बन रहे “ऑल वेदर रोड” का उदाहरण दिया जा सकता है। इस 950 किमी0 से अधिक की रोड को पहले ही 100 किमी0 छोटे हिस्सों में बांट कर से पर्यावरण प्रभाव आंकलन के दायरे से बाहर कर दिया गया था, लेकिन इसके बाबजूद भी पर्यावरण के कई मानकों का उल्लंघन होने की “सिटीजन फॉर दून” ने शिकायत की और अंत में जनहित याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी जांच के लिए पर्यावरणविद रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति गठित कर दी। इस समिति में सरकारी सदस्य अधिक थे। समिति ने कई अनिमियतताऐं पायीं और 2018 के परिपत्र का उदाहरण देते हुए कहा कि पहाड़ों में डबल लेन इंटरमीडियेट मार्ग 5.5 मी0 से अधिक चौड़ा नहीं बन सकता है। सरकार ने अपने ही परिपत्र को काटने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में कहा कि इस मार्ग की 7 मी0 चौड़ाई सामरिक दृष्टि से जरूरी है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सामरिक महत्व पर वे हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं और याचिका खारिज हो गयी। मुख्यतः ये सड़क पर्यटन के लिए बनायी गयी है। कहने का अर्थ है कि सीमांत क्षेत्र में ही क्या देश में किसी भी काम को सामरिक या राष्ट्रीय महत्व का बताया जा सकता है। भले वह खनिज निकालने का हो, बांध बनाने का हो, नदियों में बैराज-सुरंग बना कर बिजली बनाने का हो या सड़क बनाने, चौड़ा करने का हो आदि। उत्तराखण्ड का अधिकांश भूभाग नेपाल व चीन सीमा से 100 किमी0 के दायरे में होने के कारण अधिकांश वन क्षेत्रों में कई परियोजनाओं के लिए अब किसी कानून की बाध्यताऐं लागू नहीं रहेगीं। गहराई से देखा जाय तो हर एक काम को राष्ट्रीय सुरक्षा और महत्व का बताया जा सकता है।
एक बदलाव ये है कि जू, सफारी और ईको पर्यटन के कामों को वानिकी के सहायक काम घोषित कर दिया गया हैं और अब इन कामों के लिए किसी भी जंगल में वन संरक्षण कानून लागू नहीं होगा। ये काम कतई तौर पर वानिकी के सहयोगी नहीं हैं बल्कि ये मुख्यतः मनोरंजन और वाणिज्यिक गतिविधियाँ हैं। जू में भले ही वन्यजीवों को रखा जाता है लेकिन जू में ही पैदा होने और पलने के बाद वन्यजीव अपना वन्य स्वभाव खो दे देते हैं। तर्क दिया जाता है कि इन पर शोध करने से वन्य जीवों पर शोध करना आसान हो जाता है। मात्र इसी आधार पर जू को वन संरक्षण कानून में छूट देना तर्क संगत नहीं है। सफारी तो विशुद्ध रूप से एक मनोरंजन गतिविधि है जिसमें पर्यटक किसी प्राकृतिक क्षेत्र में सुरक्षित वाहन में बैठकर वन्यजीवों का आनंद ले सकता है। ईको पर्यटन की भारत में आज तक कोई परिभाषा व नियमावली नहीं बनायी गयी है। इसलिए किसी भी प्राकृतिक क्षेत्र में की जाने वाली किसी भी पर्यटन गतिविधि को ईको पर्यटन न होने की चुनौती नहीं दी जा सकती है। दूसरे शब्दों में इस कानून के लागू हो जाने के बाद किसी भी जंगल में जंगल सफारी या पर्यटन की अनुमति ईको के बैनर तले ली जा सकती है। इसलिए यह शक करने का आधार है कि इस छूट के सहारे अब प्राकृतिक वन क्षेत्रों में पर्यटन की गतिविधियों पर कोई कानूनी रोकटोक नहीं रहेगी। इससे वन और उस प्राकृतिक क्षेत्र को किस तरह की और कितनी क्षति होगी इसका आंकलन करना जरूरी नहीं होगा क्योंकि कानूनन यह कह दिया गया है कि ईको पर्यटन वानिकी की सहायक गतिविधि है यानी इससे वन संरक्षण में सहयोग मिलता है!
एक बड़ा बदलाव यह है कि देश भर में अब वन संरक्षण कानून के दायरे में वही जंगल आयेंगे जो भारतीय वन अधिनियम 1927 के अंर्तगत परिभाषित होगें और 25 अक्तूबर 1980 से पहले विविधत वन के रूप में अधिसूचित कर दिये गये हों। यानी ऐसे जंगल जिन्हें इस समय सीमा के बाद वन घोषित किया है और अवर्गीकृत वन जिनको सर्वोच्च न्यायालय ने 1996 में अधिसूचित करने का आदेश दिया था। अर्थहीन हो जायेंगे। इस तरह के इलाके केवल उत्तराखण्ड में ही वन विभाग के दस्तावेजों के अनुसार 1568 वर्ग किमी0 है। इन्हें निजी जंगल भी कहा जाता है। ये जंगल आमतौर पर आरक्षित वनों के बीच में हैं या उन्हें जोड़ने का काम करते हैं, ये एक प्रकार के बफर जोन के रूप में काम करते हैं। इसलिए आरक्षित वनों की पारिस्थिकी के पूरक हैं। अब इनमें कुछ भी कारोबार करने के लिए कोई बाधा नहीं रहेगी। आज के औद्यौगिकीकरण के दौर में इन इलाकों का उपयोग करने के लिए कई उद्यमियों की नजरें ललचाई हुई थी। कई वन्य क्षेत्र जो इनके नजदीक हैं या इनसे जुड़े हैं पारिस्थिकी रूप से प्रभावित हो सकते हैं और उनकी पारिस्थिकी में गिरावट आ सकती है। यह पर्यावरण संरक्षण के लिए हितकर नहीं बल्कि नुकसानदायक होगा। उत्तरपूर्व और हिमाचल में ऐसे निजी वन बहुत बड़ी संख्या में हैं। समझा जा सकता है कि इस छूट का क्या परिणाम होगा।
आपत्ति इस प्रावधान पर भी की जा रही है कि किसी भी वन में गैर वानिकी कार्य की अनुमति से पहले वन अधिकार कानून 2006 के अंर्तगत घोषित वन क्षेत्रों के हकधारियों से अनुमति लेनी होती थी। यदि कई तरह के कार्य गैरवानिकी की सूची से ही बाहर आ जायेंगे तो यह बाधा भी खत्म हो जायेगी और वन अधिकार प्राप्त वर्ग अपने वनाधिकारों से वंचित हो सकते हैं।
आपत्ति का एक बिंदु यह भी है कि हर एक कानून में एक पैरा परिभाषा का होता है। जिसमें यह स्पष्ट किया जाता है कि इस कानून में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है उनका इस कानून के लिए क्या अर्थ होगा। इस कानून में ये पैरा है ही नहीं। पुराने कानून में भी नहीं था, लेकिन उसमें गैर वानिकी कार्यों को स्पष्ट कर दिया गया था। इसमें कई विवादित कार्यो को भी गैर वानिकी की श्रेणी से बाहर दिया गया है। इस तरह की परिभाषा के अभाव में यह अब किन कामों को इस कानून के लिए गैरकानूनी माना जाय या नहीं, सरकार या वन विभाग के “विवेक” पर निर्भर होगा। विवेक हमेशा अविवादित नहीं होता है। दरअसल कानूनों की उत्पत्ति ही विवेकाधीन निर्णय को समाप्त करने के लिए हुआ है। अतः “विवेक” को महत्व मिलना कानून के राज में विरोधाभास है।
इसलिए ऐसी आशंका है कि यह संशोधित वन सरंक्षण कानून पर्यावरण संरक्षण के बजाय “ईज ऑफ डूइंग बिजनेस” को अधिक संरक्षित करेगा। हालांकि ये सुनने में आ रहा है कि कई पर्यावरणवादी इस कानून को न्यायालय में चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। उनका मुख्य आधार यह है कि अंर्तराष्ट्रीय संधियों और संविधान के अनुच्छेद 21 के अंर्तगत पर्यावरण के कानून प्रतिगामी नहीं हो सकते हैं। इस कानून के कई प्रावधान पुराने कानून को कमजोर करते हैं, इसलिए ये प्रतिगामी कदम हैं। प्रमुख विपक्षी दलों ने अभी तक कहीं पर भी प्रभावी रूप से इस कानून का विरोध नहीं किया है। अतः विपक्षी दलों का यह रूख भी चिंतिंत करता है।
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