उत्तराखंड के टिहरी जिले के जौनपुर क्षेत्र के सेंदुल गाँव में बलात्कार पीड़ित बच्ची को लेकर दून अस्पताल और पुलिस के बेहद असंवेदनशील रवैये के बाद, उस असंवेदनशीलता को ढकने के लिए गढ़वाल क्षेत्र के पुलिस महानिरीक्षक (आई.जी.) अजय रौतेला ने एक बेहद हास्यास्पद बयान दिया है. रौतेला साहब फरमाते हैं कि पुलिस की जीप चढ़ाई नहीं चढ़ पाती,इसलिए निजी वाहन लिया और पीड़ित व अपराधी को एक ही वाहन में भेज दिया.
यह गज़ब है कि इस आधुनिक काल में जब अपराध और अपराधी भी हाई टेक हो चले हैं, उत्तराखंड पुलिस के पास एक अदद ऐसा वाहन भी नहीं है,जिसमें अपराधी के पीछे दौड़ने का दम तो छोड़िए,पहाड़ चढ़ने की हिम्मत भी नहीं है ! तो बिना पहाड़ चढ़ने लायक वाहन के, इस पहाड़ी प्रदेश में अपराध और अपराधियों पर नकेल कैसे कसेगी,उत्तराखंड पुलिस ?होने को हम दुनिया में विश्व गुरु होने जा रहे हैं, लेकिन गुजरात में आग में फंसे बच्चों को बचाने के लिए फायर ब्रिगेड के पास तीस मीटर ऊंची सीढ़ी नहीं थी और उत्तराखंड में पुलिस के पास पहाड़ चढ़ सकने लायक गाड़ी नहीं है !
आई.जी. साहब, ईमानदारी से बताइएगा कि आप को किसने बताया कि उत्तराखंड पुलिस अभी भी जीप में चलती है ? पूरे उत्तराखंड में हम तो देखते हैं कि पुलिस के पास या तो टाटा सूमो है या फिर महिंद्रा की बोलैरो. जीप तो पुलिस के पास तब होती थी, जब उत्तराखंड,उत्तर प्रदेश का हिस्सा होता था. उस जमाने की कोई जीप कहीं रखी होगी तो उस का पहाड़ चढ़ पाना तो निश्चित तौर पर संभव नहीं है.
क्या उत्तराखंड पुलिस की हालत इतनी दयनीय है कि वह एक अदद पहाड़ चढ़ने लायक गाड़ी भी नहीं खरीद सकती ? इस बात को समझने के लिए एक नजर पुलिस को उत्तराखंड सरकार से मिलने वाले बजट पर डाल लेते हैं.
वर्ष 2014-15 के बजट में उत्तराखंड सरकार ने पुलिस हेतु 1153. 87 करोड़ रुपये आवंटित किए.
वर्ष 2015-16 के बजट में उत्तराखंड सरकार ने गृह एवं आंतरिक सुरक्षा विभाग(पुलिस इसका मुख्य विभाग है) को 1207.57 करोड़ रुपये आवंटित किए.
वर्ष 2018-19 में गृह एवं आंतरिक सुरक्षा विभाग का बजट आवंटन 1935. 61 करोड़ रुपये था.
(उक्त सभी आंकड़े उत्तराखंड सरकार के बजट दस्तावेजों से लिए गए हैं.)
आई.जी. साहब बताएं कि यदि हर साल मिलने वाले इस हजारों करोड़ रुपये के बजट से एक पहाड़ चढ़ने योग्य वाहन भी नहीं खरीदा जा सकता तो इस बजट का फिर किया क्या जाता है ?
लेकिन सवाल तो पहाड़ चढ़ने लायक वाहन का ही नहीं है. सवाल तो बलात्कार पीड़ित अबोध बच्ची और बलात्कार के आरोपी को एक ही वाहन में बैठा कर ले जाने का भी है. पुलिस बलात्कार पीड़ित बच्ची को जिस आरोपी के खिलाफ, मजिस्ट्रेट के सामने बयान करवाने ले जा रही थी, उस आरोपी को ही पुलिस ने पीड़िता का हमसफर बना दिया ! क्या यह गले उतरने लायक बात है ? क्या जरा भी संवेदनशीलता या विवेक, उत्तराखंड पुलिस के इस कदम में नजर आता है ? उत्तराखंड पुलिस का नारा है “उत्तराखंड पुलिस : मित्र पुलिस.” अपराधी और पीड़ित को एक ही वाहन की सवारी करवा कर “मित्र पुलिस” किसके प्रति मित्रता का निर्वहन कर रही थी ?
पीड़िता और न्याय के प्रति तो कम से कम यह मित्रता नहीं थी !