रमेश कुमार मुमुक्षु
उत्तराखंड के मैदानी शहरों देहरादून,हरिद्वार कोटद्वार, हल्द्वानी, रामनगर एवं टनकपुर में जो स्वास्थ्य व्यवस्था है, वैसी पर्वतीय भूभाग में लगभग नही है। सबसे पहले स्वास्थ्य सुविधा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र एवं अतिरिक्त स्वास्थ्य केंद्र के रूप में प्रदान की जाती है। लेकिन वर्षो से ये अनुभव रहा है कि उत्तराखंड बनने से पहले ही ये सुविधा का अभाव रहा था।1998 में सुदूर पचार और रीमा की ओर सियांकोट में एक मरीन इंजीनियर श्री नरेंद्र भौर्याल ने एक अनूठा आंदोलन किया। उस आंदोलन में एक मांग भी शामिल थी कि जलमानी में जो स्वास्थ्य केंद्र है , उसमे पहले की तरह डॉक्टर समेत सुविधाएं प्रदान की जाए। कोई नई मांग नही थी। लेकिन सुविधा की बहाली की बात थी। आजतक 2019 तक सुविधा नही मिल सकी। उन्ही दिनों 1998 में उत्तराखंड में यूनानी चिकित्सक तैनात किए गए थे। उन डॉक्टरों को निर्देश थे कि यूनानी मेडिसिन जनता को दी जाए। लेकिन वो मेडिसिन कभी नही आई। जब तक यूनानी दवा नही मिलेगी तो उनको एलोपैथिक दवा ही देनी थी। इस व्यवस्था में जनता के साथ क्या न्याय हुआ होगा ? ये देखने की बात है।यूनानी डॉक्टर जो उन्होंने पढ़ाई की वो उससे इलाज नही कर पा रहे थे और जिस में वो प्रैक्टिस कर रहे थे, उसमे उन्होंने पढ़ाई नही की। ये सब सरकार की जनता के प्रति असंवेदनशीलता ही कही जाएगी। आज तक पूरे उत्तराखंड में डॉक्टर के पद भरे नही गए। 2007 में सोसा ग्राम , नारायण आश्रम , तवाघाट ,धारचूला से कैलाश मानसरोवर के रास्ते में मेडिकल कैम्प के दौरान मालूम चला कि यहां पर डॉक्टर नही था। बल्कि फार्मासिस्ट और वार्ड बॉय ही कितने केंद्र देखते थे। ये स्थिति कदाचित पूरे उत्तराखंड में देखी जा सकती थी, अभी भी बहुत सुधार नही हुआ। आज के दौर में डॉक्टर होंगे तो उनकी संख्या कम होगी। धरमघर में कितने ही जंगल काट कर एक हॉस्पिटल बना है,लेकिन वो दशक से अधिक बीत गया, पूरी तरह आरम्भ ही नही हो सका । बीमार होने पर बेरीनाग या बागेश्वर जाना होता है। अगर ट्रांसपोर्ट का इन्तजाम नही है तो बहुत कठिन होगा। कुछ वर्षों पहले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को सामुदायिक केंद्रों में तब्दील कर दिया गया है। लेकिन अभी भी वो पूरी तरह कारगर नही है। ये स्थिति लगभग सभी दुरस्त जिलों की है।
अभी कुछ दिन पहले किसी ने चमड़ी के डॉक्टर की आवश्यकता थी , लेकिन हल्द्वानी से पहले डॉक्टर उपलब्ध ही नही। इसी तरह दंत, नाक कान गला , आंखों , हड्डी ,बच्चो और स्त्रीरोग के डॉक्टर कितनी बार तो बेस हॉस्पिटल और जिला चिकित्सालय में भी उपलब्ध नही होते। जहां तक ह्रदय रोग और ब्रेन संबधी चिकित्सा सुविधा एक सपना ही है। यहां तक की पैथोलॉजी लैब भी जिला मुख्यालय में ही होती है। जो प्राइवेट पैथोलॉजी लैब है , वो खुले आम दुकान के काउंटर पर सूक्ष्मदर्शी पर स्लाइड रख कर जांच कर लेते है। अब वो कितनी कारगर होगी, इस पर ध्यान देने लगे तो इलाज ही न पाए। कुछ जांच जैसे थाइरोइड तो बाहर ही भेजनी होती है। 90 के दशक में कुछ निजी एक्सरे मशीन लगाई थी, उन्होंने खूब पैसा कमाया। कुछ भी हो ,एक्सरे करवा लेते थे। ये उत्तराखंड की बात नही ,ये यूनिवर्सल फैक्ट है। सभी नही ,लेकिन ऐसे लोग भी मिलते ही है।
उत्तराखंड बने 19 साल हो गए है। लेकिन ये विडंबना है कि आज भी उत्तराखंड के गांव में बंगाली डॉक्टर प्रचलित है। ये स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली ही कही जा सकती है। जिनके पास कोई सरकारी कार्ड और मेडिक्लेम नही है। उनकी स्थिति कैसी होगी ,इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। आज भी अगर कोई अचानक बीमार हो जाये यो दुरस्त गांव में रहने वालों पर पहाड़ टूटने जैसा ही होता है। कुछ वर्ष पूर्व 108 सेवा से कुछ राहत तो मिलती है, लेकिन वो भी समाधान नही है। खुदा न खस्ता अगर किसी को कैंसर हो जाये तो दिल्ली और बरेली से पहले कोई भी प्रबंध नही है। कैंसर होने पर इलाज करने के लिए बहुत अधिक धन और समय लगता है। दिल्ली में अगर इलाज के लिए ऐम्स जाना पड़ जाए तो बहुत लंबी अवधि के लिए इलाज करवाना पड़ता है। उसके बाद भी कोई गारंटी नही कि सुधार होगा कि नही। मुझे लगता है कि उत्तराखंड के किसी भी गांव और कस्बे में फिजियोथेरेपी क्लिनिक नही है। इसके अतिरिक्त दुनियां भर में सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल खुल गए है। लेकिन उत्तराखंड में इसका नितांत अभाव ही नही बल्कि नगण्य है।मुझे याद है कुछ वर्षों पूर्व किसी की आंख की पुतली में छेद , हो गया तो इसका पक्का इलाज दिल्ली के ऐम्स में उपलब्ध है। शरीर में ऑर्गन रिप्लेसमेंट तो एक सपना ही है।
अभी पिछले दिनों स्वर्गीय शमशेर दा दिल्ली के ऐम्स में भर्ती थे। मैंने उनसे पूछा कि ऐम्स जैसी सुविधाएं पहाड़ में आ सकती है। उस समय बिस्तर पर लेटे शमशेर दा ने ठंडी सांस लेते हुए बोले कि ये तो एक सपना ही है। उनके मित्रों द्वारा उनको ऐम्स में भर्ती करने पर मित्रो को धन्यवाद बोल रहे थे और उन्होंने एक बात और कही कि उनको एक बात का संतोष था कि ‘हल्द्वानी के चंगुल से बच गया’। डायलीसिस जैसी सुविधा उत्तराखंड में नही है। उत्तराखंड का पहाड़ी क्षेत्र इन सभी सुविधायों से वंचित है।श्री बची सिंह रावत सांसद थे, उन्होंने बताया था कि बंगाली डॉक्टरों को पेरा मेडिकल की ट्रेनिंग दे कर उनकी सेवा ली जा सकें, लेकिन इसको अमली जामा नही पहनाया गया। श्रीनगर मेडिकल कॉलेज में देश में सबसे कम पैसे में मेडिकल की डिग्री देने की बात हुई। इस व्यवस्था के आने से उम्मीद जगी की लेकिन उत्तराखंड में डॉक्टर की कमी नही होगी। लेकिन इसके बाद भी कोई अमूल चूल परिवर्तन नही आया। बहुत से डॉक्टर उत्तराखंड के दुरस्त गांव में जाना नही जाना चाहते।
उत्तराखंड जड़ी बूटी बहुल राज्य है। रामदेव से लेकर डाबर आदि कंपनियां आयुर्वेद औषधियों से माला माल हो गई है। लेकिन उत्तराखंड में जो भी जड़ी बूटी उगती है , उसका उपयोग लगभग लोग भूल चुके है | परंपरागत इलाज़ लोग भूल चुके है और आधुनिक स्वास्थ्य सुविधा की नितांत कमी है | कुल मिला कर स्वास्थ्य सुविधा न होने से लोग छोटे छोटे रोगो के निदान के लिए हल्द्वानी और दिल्ली की ओर रुख करना पड़ता है | मोहान की सरकारी कंपनी आई एम पी सी एल की दवा दिल्ली की आयुर्वेद डिस्पेंसरी में तो उपलब्ध है,लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं है | उत्तराखंड में हॉस्पिटल और डिस्पेंसरी के नाम बिल्डिंग तो बन गई, लेकिन चिकित्सा सुविधा नही मिल रही है। परम्परागत वैद्य आदि तो समय के साथ प्रायः लोप हो गए। स्वर्गीय सरला बहन जिन्होंने लक्ष्मी आश्रम की स्थापना की वो जब तक जीवित रही ,होमियोपैथी से इलाज किया करती थी। जिस समय लोगों ने इसका नाम भी नही सुना होगा, सरला बहन इससे लोगो का इलाज करती थी। आज भी लक्ष्मी आश्रम , कौसनी और हिमदर्शन में उनकी पूरी किट सुरक्षित है। उनका मानना था कि गाँव के लोग गरीब है, इसलिए उनके इलाज के लिए होम्योपैथी एक सस्ता विकल्प हो सकता है। ये उनकी दूरदर्शी सोच का परिणाम था।
कुछ वर्ष पूर्व बी पी एल कार्ड से दिल्ली में मुफ्त इलाज संभव था। हमने स्वयं कुछ ग्रामीणों के इलाज दिल्ली स्थित मैक्स और बी एल कपूर हॉस्पिटल में इसका लाभ उठाया। लेकिन अभी बाहर के कार्ड को प्राइवेट अस्पताल लेने में आना कानी करने लगे है। 2008 में उत्तराखंड सरकार को एक ड्राफ्ट दिया गया था, जिसमे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को एक पोलीक्लिनिक में परिवर्तित करने की बात पर जोर दिया गया था। पालीक्लिनिक में जांच अधिक होनी थी और सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि समयबद्ध व्यवस्था के तहत विशेषज्ञ डॉक्टर सप्ताह में एक दिन तैनात होंगे ,ताकि जिला चिकित्सालय पर मरीज की निर्भारता कम होती जाए।लेकिन ये प्रस्ताव कही किन्ही फाइलों में समा गया होगा। इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया |
लेकिन आज दिल्ली सरकार ने इस व्यवस्था को दिल्ली में करके एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। दिल्ली सरकार के मॉडल में बहुत छोटे स्तर पर मोहल्ला क्लिनिक जिनमे बहुत जी जांच फ्री उपलब्ध है। दवा भी फ्री मिलती है। ये बहुत सफल प्रयोग रहा है। इसके अतिरिक्त पालीक्लिनिक में प्रतिदिन कोई न कोई स्पेसलिस्ट डॉक्टर बड़े हॉस्पिटल से तैनात होते है। स्त्री एवं बाल चिकित्सक तो प्रति दिन ही तैनात होंगे। उससे आम आदमी को बीमार होने पर बड़े अस्पताल जाने और विशेषज्ञ की दिखाने के लिए नही जाना पड़ता। दवा भी मुफ्त मिल जाती है। अभी वर्तमान में आँख, ई एन टी , हड्डी शल्य और चमड़ी के विशेषज्ञ डॉक्टर सप्ताह में एक बार आते है। इसके अतिरिक्त सरकारी हॉस्पिटल में भी सुविधा बड़ी है। जांच भी अधिकांश मुफ्त हो जाती है |समय पर इलाज न होने पर बहुत से प्राइवेट अस्पताल में मुफ्त इलाज का प्रावधान भी, नीतिगत रूप से लिया गया है। उसके अतिरिक्त किसी ही देश के नागरिक का सड़क पर एक्सीडेंट हो जाये और उसकी एमएलसी करवा कर दिल्ली के किसी भी प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करने पर उस व्यक्ति के इलाज का खर्च दिल्ली सरकार उठाएगी। ये कदम भी लोक कल्याण के लिए बड़ा कदम है। ठीक ऐसा मॉडल उत्तराखंड के लिए कारगर सिद्ध हो सकता है |
केंद्र सरकार के माध्यम से पालीक्लिनिक की स्थापना के प्रस्ताव में डॉक्टर की समयबद्ध तैनाती और स्थानांतरण की बात भी उठाई गई थी। लेकिन ये सब कभी लागू नही हुआ।
ग्रामीण स्तर पर रोगी कल्याण समिति की स्थापना भी आज तक ठीक से नही हो सकी। उसमे भी उत्तराखंड सरकार ने उसके लिए निश्चित धनराशि रखी थी। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत आशा वर्कर भी कारगर तरीके से काम नही कर सकीं। बी पी एल के गंभीर रोगों के लिए लिए व्याधि निधि का प्रावधान रखा गया था, लेकिन लोग इसका लाभ ठीक उठा न सकें।
केंद्रीय सरकारों की ओर से समय समय पर राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य कार्यकम लागू किये गए जैसे 2003 में प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना आरम्भ हुई जिसके तहत 14 ऐम्स स्थापित करने की का प्रावधान रखा गया था। 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का आरंभ हुआ। 2008 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना जिसके अंतर्गत 30000 हज़ार का बीमा कवर रखा गया था और इस स्कीम के पंजीकरण के लिए 30 रुपये का प्रावधान रखा गया था। इसी स्कीम में स्त्री प्रसूति को भी शामिल किया गया था। अभी वर्तमान में आयुष्मान भारत योजना या प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना 2018 में आरम्भ हुई। इसके तहत 10.74 परिवारों को 5 लाख रुपये का स्वास्थ्य मुफ्त दिया जाएगा। आयुष्मान भारत के अंतर्गत डेढ़ लाख हेल्थ सेंटर और वेलनेस सेंटर खोले जाएंगे। लेकिन बीपीएल कितना इसका लाभ उठा सकेंगे, ये देखने की बात है |
उत्तराखंड सरकार ने 2015 राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तर्ज पर मुख्यमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना 11 फरवरी 2015 में आरम्भ की। इसके तहत 6.23 लाख ग्रामीण बी पी एल एवं 2.48 लाख शहर के बी पी एल शामिल किए गए थे। इसके तहत 88 सरकारी चिकित्सा यूनिट और 72 निजी चिकित्सा यूनिट कवर किये गए। लेकिन ये सब योजनाएं उत्तराखंड में लोगों को ठोस सुविधा प्रदान नही कर पा रही है।डॉक्टरों कमी और इलाज़ का बेहतर इंतजाम न होने के कारण उत्तराखंड में स्वास्थ्य सुविधाएं नगण्य समझी जा सकती है।
डॉक्टर यूं तो बहुत कम है, जो है भी वो रिमोट क्षेत्र में जाना नही चाहते क्योंकि एक बार दुरस्त इलाके में तैनाती हो गई तो वापस आना बहुत ही कठिन होता है। डॉक्टर को हमेशा ही अपडेट रहना होता है। लंबे समय तक चिकित्सा सुविधा का अभाव और कम और विभिन्न बीमारी के इलाज के चलते डॉक्टर गुणवत्ता और अनुभव पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। मेडिकल की महंगी पढ़ाई के बाद कोई नही चाहेगा कि आगे तरक्की के रास्ते बाधित हो। इसलिए समय समय पर सरकार को सिफारिश दी जाती रही कि निश्चित समय के लिए तैनाती की जाए ताकि डॉक्टर निश्चिन्त हो दुरस्त क्षेत्र में जा कर सेवा प्रदान करने में हिचके नही।ग्रामीण जनता की स्वास्थ्य सुविधा के लिए सरकार को इस पर अविलंब विचार कर लागू करना चाहिए।सरकार को इसके लिए अगर कुछ अतिरिक्त भत्ते भी देने पड़े तो जन स्वास्थ्य के हेतू इंतजाम करना चाहिए।
उत्तराखंड के लिए दिल्ली सरकार का मॉडल ही कारगर सिद्ध हो सकता है। सबसे छोटी इकाई को सबसे अधिक साधन संपन्न बनाकर और डॉक्टर समेत सारे स्टाफ की तैनाती लोगो को बेहतर और उम्दा स्वास्थ्य सुविधा वरदान करेगी। बीमा और मेडिक्लेम वहीं लाभदायक है, जहां पर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध है। वरना ये सब केवल लोकलुभावन ही होगा।
चिकित्सा व्यवसाय में सम्मान भी मिलता है ओर कुछ गलती होने पर सब कुछ स्वाहा भी हो जाता है। कुछेक लोग जो इस व्यवसाय को धंधा बना देते है और पैसा बनाने की मशीन बन जाते है। उनसे चिकित्सा व्यवसाय के सम्मान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किसी डॉक्टर या स्टाफ द्वारा घोर लापरवाही से किसी को शारीरिक नुकसान अथवा जान से हाथ धोना पड़ जाए | ऐसी स्थिति में जिसने गलती की है ,उसके साथ सभी बुरा को बोलना बहुत बार जिम्मेदार और समर्पित डॉक्टर व स्टाफ के मनोबल को तोड़ता है। एक ही लाठी से सबको हांकने की प्रवर्ति से भी सबको बचना पड़ेगा। वैसे ये बात सबके लिए लागू होती है। लेकिन आम आदमी ऐसा इसलिए करता है क्योंकि उसके लिए इलाज़ करवाना बहुत बार संभव नही होता।इसलिए अगर सरकार स्वास्थ्य सुविधा को आम आदमी तक सुलभ करवा दी तो उपरोक्त परिस्तिथि पैदा ही न हो। विडंबना है कि दिल्ली जैसे महानगर में घर बैठे ही ब्रांडेड दवा डिस्काउंट पर मिल जाती है,जबकि दुरस्त रहने वाले ग्रामीण को वो दवा की पूरी कीमत देनी होती है। जनऔषधि की बात अधिक हुई है, लेकिन जन सामान्य तक ये उपलब्ध नही हो पाई।
अन्य बीमारियों के अतिरिक्त एड्स के उपचार में प्रगति हुई है | अभी डिस्ट्रिक्ट स्तर पर एआरटी के तहत दवा आसानी से मिल जा रही है | लेकिन अभी भी कुछ लोग बिना उपचार मर रहे है | उसका मूल कारण इलाज़ समय पर न करवाना ,ऐसे में उनके अनाथ बच्चो को देखना और उनके जीवन यापन के कोई ठोस नीति नहीं है | अभी कुछ एड्स से पीड़ित अनाथ बच्चे सरकार द्वारा दिये जाने वाली राशि जो 18 वर्ष तक मिलने का प्रावधान है के आधार पर जीवन यापन कर रहे है | इस छोटी सी धनराशि से उनके परिजन उनकी देख भाल करते है| भविष्य में क्या होगा ? ये साफ नहीं है | एड्स के मरीज बीच बीच में बीमार होते रहते है , उनके तुरंत इलाज़ की व्यवस्था आसान नहीं | उनकी बीमारी की सुन कर अभी भी लोग पीछे हट जाते है | ,दिल्ली जैसे महानगर में भी एड्स के मरीज़ो के इलाज़ में डॉक्टर तक कतराते है| मेरे 18 साल से एड्स के क्षेत्र में काम करने के अनुभव के आधार ये सब देखने में आया है |
वर्षों पूर्व किसी गांव में पान सिंह नामक व्यक्ति के पास संजीवनी, बूटी है, प्रचार हुआ | ये सुनते ही बहुत बड़ी तादाद में लोग उसके पास इलाज़ के लिए जाने लगे। लोगो को लगा की ये सभी बीमारी का इलाज़ कर सकता है | आज भी लोग ऐसे ही लोगो पर विश्वास करते है | इसका सीधा अर्थ है कि स्वास्थ्य व्यवस्था का अभाव। अफसोस की बात आज भी उत्तराखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था जन सामान्य तक नही पहुंच सकी। ये गंभीर सोच का विषय है |