जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
उत्तराखंड राज्य का इतिहास बताता है कि विस्तृत हिमालय का यह पहाड़ हमेशा से सहिष्णु, भाईचारे, साम्प्रदायिक सौहार्द, सभी धर्मों, जातियों व समाजों का सम्मान करने वाला रहा है. लेकिन पिछले एक दसक से एक ख़ास राजनीतिक दल व विचारधारा के लोग पहाड़ों के चूल्हों तक पहुँच कर आग सुलगाने का काम कर रहे है, इसके सबसे बड़े शिकार युवा वर्ग है. जिनकी मति भ्रम कर दी गयी है, वे पढ़ने लिखने व अपना उज्वल भविष्य बनाने के बजाय धर्म, पार्टियों व संगठनों के झंडाबरदार हो गए है. बात-बात पर मरने मारने के लिए उतारू हो चुके है. इन युवाओं को यह शह तथाकथित सत्ता से मिलती नजर आ रही है. सिलसिलेवार प्रकरण देखिएगा. पिछले दो चुनावों में सत्ता भारतीय जनता पार्टी के हाथ में है. भरारीसैण विधानसभा सत्र के दौरान दिवालीखाल में पार्टी की अंदरूनी लड़ाई का जिन्न आन्दोलन कर रहे लोगों व महिलाओं पर लाठी चार्ज के रूप में सामने आया, इस प्रकरण के बाद चार साल तक ठीक – ठाक सत्ता संभाल रहे मुख्यमंत्री को अपने पद से हाथ धोना पड़ा.
फिर नए मुख्यमंत्री आये नौकरियों की बड़ी बड़ी घोषणायें हुई, अपने ही मुख्यमंत्री की बनायी नीतियों को वापस ले लिया गया, यानी पांच साल तक घर बनाओ व फिर उजाड़ दो वाली नीति. जनता को बरगलाने में मास्टर हो चुकी पार्टी का यह सिलसिला जारी है. मुख्यमंत्री जब अपने लिए जिताऊ सीट नहीं ढूंड पाये तो क़ानूनी पेंच फंसाकर इस्तीफा ले लिया गया और एक नये वफादार (केंद्र के वफादार) को मुख्यमंत्री की कुर्सी थमा दी गयी. ये नये उर्जावान मुख्यमंत्री तो पुरानों से चार कदम आगे निकले. इनसे पूर्व वाले मुख्य साहब ने 20 हजार नौकरिओं की बात की तो नए नवेले मुख्य सेवक ने 4 हजार और जोड़कर 24 हजार नौकरियों का झूटा (सवा साल बाद भी कुछ सों नौकरियां लगी होंगी) वादा कर दिया. अति आत्म विश्वास के साथ चुनाव अभियान चलाया, मोदी लहर फिर काम आई और कांग्रेश की धिन्गामुस्ती ने इसको और भी आसान बना दिया, लिहाजा भाजपा फिर सत्ता में लौटी जरुर पर मुख्य सेवक अपने ही घर में अभिमन्यु बन बैठे. आखिरकार नैतिकता पर अनैतिकता हावी रही व हारे हुए मुख्य सेवक का पुनः राज तिलक किया गया. 6 महिने मुख्य सेवक, पार्टी व सरकार इसी काम में जुटी रही कि सुरक्षित सीट कौन हो सकती हैं.
पाठकों आप समय काल को देख रहे है. सरकार का आधा साल मुख्य सेवक को विधायक बनाने में चल बसा. मुख्य सेवक का भी भला सरकार चलने में मन कैसे लगता, वह तो भला हो प्रधान सेवक जी का जो, हर हफ्ते देश को मन की बात सुनाकर जनता व भक्तों को बातों का प्रसाद बांटते रहे है. मुख्य सेवक जी का भी मन लगा रहा. उत्तराखंड की जनता रोजगार – रोजगार चिल्लाती रही कुछ नहीं हुआ. इस बीच एक कथित यादव नाम का आई. ए. एस. भ्रस्टाचार में पकड़ा गया, जो पिछले पांच साल तक इसी सत्ताधारी पार्टी का एक प्रमुख सरकारी कारिन्दा था. ये महाशय जेल से ही सेवानिवृत हुए है. आखिरकार जब मुख्य सेवक विधायक बन गए तो उनको कुछ याद आया. युवक सड़कों पर रोजगार – रोजगार चिल्लाने लगे. आनन – फानन में कुछ भर्तियाँ निकाली गयी. जब तक इनके फार्म भरे जाते तब तक भर्ती परीक्षा घोटाला का जिन्न बाहर निकल चुका था. जिन पदों की परीक्षायें हो चुकी थी उनको भी निरस्त कर दिया गया. युवकों का गुस्सा सड़कों पर निकला तो सत्ता ने लाठी चार्ज व गिरफ्तारियां कर युवकों से बदला लिया. उत्तराखंड भर्ती घोटालों ने देश विदेश में राज्य की बदनामी करवाई. इस घोटाले में शामिल एक सेवानिवृत अधिकारी ऐसा भी था जो इसी पार्टी के मुख्य मंत्री का सलाहकार था.
हकीकत यह है कि अंदरखाने खोकले हो चुके उत्तराखंड सरकार के पास बर्तमान सेवारत कर्मचारियों की तनखा देने के भी लाले पड़े है, ऐसी स्थिति में सरकार नौकरियों का पिटारा खोले तो खोले कैसे? लगभग एक लाख करोड़ के घाटे पर चल रही सरकार के मुख्य सेवक को जनता को बरगलाने के अलावा कुछ और रास्ता नजर नहीं आ रहा. इसीलिए उत्तराखंड में भर्तियाँ खुलती है, इसके कुछ दिनों बाद एक नया भर्ती घोटाला बाहर आ जाता है. अब सरकार ने इस प्रक्रिया को भर्ती टालने का हथियार बना दिया है. पिछले सवा साल से यही हो रहा है. मुख्य सेवक भी अब इसके आदी हो चुके है और उनकी सत्ताधारी पार्टी भी. इसीलिए अब मुख्य सेवक भी अपने पड़ोसी राज्य व प्रधान सेवक की राह पर अग्रसर हो चुके हैं. समान नागरिकता कानून इसी की कड़ी है. मुख्य सेवक के लंपट मंत्री सरे राह जन सेवकों की पिटाई करते दिख रहे है.
पहाड़ की बिटिया अंकिता का प्रकरण, जिसमे सत्ताधारी पार्टी के लोगों की कथित संलिप्तता बताई जा रही हैं, उस केस को गड्डे में दफ़नाने का काम किया जा रहा है. जनवरी से लेकर मई तक चार धाम का अच्छा झुनझुना था, जनता का ध्यान बंटाने का यह भी हर सरकार का स्थायी नुस्खा बन चूका है. भला मुख्य सेवक कहाँ पीछे रहते. हेलिकॉप्टर से यात्रियों पर पुष्प वर्षा कर जनता के खून पसीने का पैसा लुटाने का यह शगल इस राज्य को कहाँ ले जा रहा है, सोचने का वक़्त है. चार धाम के बाद अब नया झुनझुना पहले से ही तैयार था. धार्मिक ध्रुवीकरण में मास्टर सत्ताधारी सरकार आजकल मजारों (ज्यादा मजारों, मंदिरों की संख्या कम) पर बुलडोजर चला रही है.
राज्य के एक ख़ास वर्ग को खतरा बताने वाली पार्टी लोगों को केरला स्टोरी दिखा रही है, मुख्य सेवक भी फुरसत निकालकर फिल्म देखने पहुंचे थे. हद तो तब हो गयी जब सत्ताधारी सरकार से जुड़े पूर्व विधायक व पौड़ी नगरपालिका के अध्यक्ष यशपाल बेनाम को उनकी बिटिया की शादी को लेकर, उनकी ही पार्टी के सांप्रदायिक किश्म के नेताओं, कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया पर इतना ट्रोल किया, धमकी दी गयी, प्रताड़ित किया गया कि उनको शादी समारोह समाप्त करना पड़ा. हमारा पहाड़ तो ऐसा नहीं था. धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टी ने पहाड़ की जनता को भयमुक्त करने के बजाय भययुक्त कर दिया है. जो बोले उसकी जुबान बंद करने के लिए सत्ता प्रतिष्ठान के पास हजार बहाने है. अब जब उत्तराखंड की अधिकांश भूमि खुर्द – बुर्द हो चुकी है. तब भूमि बचाने के नाम पर एक नया झुनझुना फिर शुरू हो चुका है. तराई की बोक्सा जनजाति की भूमि पर कौन बैठे है. यह खटीमा के पूर्व विधायक महोदय से ज्यादा कौन जान सकता है? देहरादून से लेकर टनकपुर की तराई के अधिकांश इलाकों की बस्तियां कुछ पूर्व की सरकारों ने तो कुछ आज की सत्ताधारी सरकार ने मान्यता देकर स्थायी मालिक बना दिए.
इस सरकारी भूमि कब्जे के अभियान के झुनझुने से मूल उत्तराखंडियों को उनकी सदियों से पाली – पोशी जमीनों से हाथ धोना पड़ सकता है. पहाड़ का कोई गांव ऐसा नहीं है, जहाँ लोग सरकारी भूमि पर न बसे हो या उस जमीन पर काश्तकारी न कर रहे हों. कई गांव व बसावटें वन पंचायतों, सिविल सोयम, आरक्षित वनों, केशर हिन्द भूमि पर बसे हैं. ऐसे में होना यह चाहिए की जिन जमीनों पर उत्तराखंड राज्य बनने से पूर्व, उत्तराखंड के मूल लोगों का कब्ज़ा है, उस भूमि का स्वामित्व उन्हें दे दिया जाना चाहिए, यह उत्तराखंड राज्य आन्दोलन का मुख्य विषय भी था. लेकिन इस राज्य के जनप्रतिनिधियों ने इस पर तवज्जो न देकर बड़ा महा पाप किया है जिसका परिणाम यहाँ की जनता को सदियों तक भुगतना पड़ेगा. सत्ताधारी पार्टी व मुख्य सेवक अगर उत्तराखंड मूल की, जनता की सदियों से कब्जाई जमीन छीनने का काम करेगी, तो जनता कभी भी पार्टी व मुख्य सेवक की सत्ता भी छीन सकती है. सरकार इसको चेतावनी समझे. कृपया उत्तराखंड को मणिपुर न बनाये.
अंततः
काम के बजाय नाम का ठप्पा लगाने वाली सत्ताधारी पार्टी ने बिना कुछ तैयारी के आनन –फानन में 2021 – 22 उत्तराखंड बोर्ड के 186 स्कूलों का नाम बदलकर अटल उत्क्रिस्ठ स्कूल बनाये थे. ये वो स्कूल थे जहाँ पहले से ही ठीक-ठाक सुविधाएं थी व सीबीएसई के मानकों को पूरा कर रही थी. स्क्रीनिंग के माध्यम से शिक्षकों व प्रधानाचार्यों की नियुक्तियां की गयी, जो अंग्रेजी में पढ़ाने की योग्यता रखते थे. लेकिन छात्रों जो हिंदी माध्यम से पढ़ रहे थे की अंग्रेजी में पढ़ने की योग्यताओं का आंकलन न कर जबरदस्ती बच्चों पर सीबीएसई पैटर्न थोप दिया गया. इसका यह परिणाम रहा की आधे से ज्यादा बच्चे फ़ैल हो गये, इसी तरह जहाँ उत्तराखंड की शिक्षा ब्यस्था ध्वस्त हुई वहीँ अटल जी का नाम भी उन्हीं की बनायी पार्टी ने बदनाम कर दिया. इसी को कहते है न माया मिली न राम. जय श्री राम.
उत्तराखंड का नक्शा : इंटरनेट से साभार