प्रदीप पाण्डे
26 मार्च की रात्रि तीन बज कर इकतालीस मिनट पर जब सुदिति का फोन आया तो वह सिर्फ इतना ही बोल पाई ‘‘अंकल ………पापा’’ और उस घटना के घटित होने का पता चल गया, जिसकी आशंका लगातार बनी हुई थी। प्रो. रघुवीर चंद इस दुनिया को छोड़ कर हमेशा के लिए जा चुके थे।
अभी एक दिन पहले मैं और बसी उनसे मिलने गए थे। वे अपने स्टडी रूम के बगल के कमरे में लेटे थे। हाथ में ड्रिप लगी थी, जिसमें एमिनो एसिड्स और सॉल्ट्स थे। उनके चमकदार चेहरे और सुदर्शन व्यक्तित्व की एक छाया मात्र रह गयी थी। साफ नजर आता था कि कैंसर की बीमारी आखिरकार उन पर भारी पड़ गयी है। लेकिन उनकी बातों में अब भी आशा बनी हुई थी। मैंने उनको बधाई दी कि उनके भूटान प्रवास के संस्मरणों की किताब छप गयी है, तो उन्होंने चमकदार आँखों से मेरी तरफ देख धन्यवाद कहा और सुदिति से बोले, ‘‘बेटा वह किताब दिखलाओ।’’ मेरे हाथों में उनकी किताब ‘अंतिम संग्रीला की धरती पर’ थी। कवर पर एक पहाड़ और देवदार के पेड़ सिलूएट में थे। ये तस्वीर भी उन्हीं की खींची हुई थी।
फिर वे धीमी सी आवाज में बोले, ‘‘पहला खंड तो रजा फाउंडेशन ने प्रकाशित कर दिया। पर अभी इसके दो खंड और हैं। मगर रजा फाउंडेशन ने फंड्स की कमी का हवाला देकर असमर्थता दर्शाई है।’’ इसके अलावा दक्षिणी अमेरिका और रेड इंडियनों के बारे में उनका जो काम है वह भी अभी छपा नहीं है। कैसे होगा ? अब मैं सोचता हूँ जिन्दगी के आखिरी मोर्चे पर खड़े रघुवीर दा अंतिम घंटों तक भी जिस चिंता से घिरे थे, वह अकादमिक थी।
1978 में उनकी नियुक्ति कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हुई। विश्वविद्यालय की पतनशील राजनीति और शिथिल होती शिक्षा व्यवस्था से वे अप्रभावित रहे। उनका शोध प्रबंध तो उत्तराखंड के भोटान्तिक क्षेत्र पर था। परन्तु धीरे-धीरे उनके कार्य का विस्तार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो गया। वे अंतर्राष्ट्रीय भूगोल संघ के सक्रिय सदस्य बने। उन्होंने कई महत्वपूर्ण अध्ययन किये और रूस, अलास्का (अमेरिका), जापान, अर्जेंटीना समेत कई देशों की यात्राएँ कीं और पहले भूटान के सेबत्से कॉलेज (कांगलुंग) और बाद में दुबारा इसी कैंपस में, जो तब रॉयल भूटान यूनिवर्सिटी का हिस्सा बन गया था, में कुछ वर्षों तक अध्यापन के दौर में भूटान के समाज को गहराई से समझा। दर्जनों शोध पत्र लिखे। उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक प्रतिष्ठित स्प्रिंगर संस्थान ने प्रकाशित की। उत्तराखंड की जनांकिकी पर 200 वर्षों के आंकड़ों पर गहन शोध पर आधारित उनकी पुस्तक ‘उत्तराखंड की जनसंख्या का बदलता परिदृश्य’, जो डॉ. बी. आर. पन्त और भूपेन्द्र मेहता के साथ लिखी गई है, शीघ्र प्रकाशित होने वाली है। केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘भौगोलिक शब्दावली‘ का संपादन भी उन्होंने किया। डी. एस. बी. परिसर, नैनीताल के भूगोल विभाग के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने ‘पंडित नैन सिंह स्मारक व्याख्यानमाला’ की शुरूआत की। भारत और अमेरिका के जनजातीय क्षेत्रों में होने वाले पर्यटन के अध्ययन के लिए इंडो अमेरिकन टीम के वे सदस्य रहे।
उनके शोध बहुत विस्तार और गहनता लिए होते हैं तो वहीं उनके यात्रा वृतांत और संस्मरण पाठक को बाँध लेते हैं, जो उस इलाके के भूगोल, समाज और व्यक्तियों और उनके अंतर्द्व़ंद्वों, तकलीफों और छोटी-छोटी खुशियों को रोचक ढंग से प्रस्तुत करते हैं। भूटान में उनके घर में काम करने वाली महिला सुकुरमुनी के जीवन के बारे में ‘उत्तरा महिला पत्रिका’ में छपा उनका आलेख बहुत चर्चित रहा। भूटान की ही एक पढ़ी-लिखी लड़की को अपने भीषण सिरदर्द से जब किसी तरह निजात नहीं मिलती तो उसे सुझाया जाता है कि यदि वह बौद्ध भिक्षुणी बन जाए तो इस यातना से मुक्त हो जाएगी। और वह भिक्षुणी बन जाती है। रघुवीर दा ने बड़ी कोशिशों के बाद उसका इंटरव्यू लिया। लम्बी बातचीत के बाद जब उन्होंने पूछा कि क्या वह सिरदर्द की तकलीफ से मुक्त हो गयी, तो उस युवती ने अनायास बह निकली अश्रुधार के साथ बताया ‘नो’। चाहे अलास्का की यात्रा हो या भूटान के ब्रोक्पाओं के बीच उनका अध्ययन, उनके भूगोलविद् के भीतर छुपा कवि भी सामने आ जाता है। उन्होंने अद्भुत बिम्बों का प्रयोग करते हुए शानदार कविताएँ लिखी हैं।
उनसे कम बावस्ता कोई शख्स उनके मितभाषी रूप से ही रूबरू होता। मगर जब मित्रों के साथ गपशप करते हुए वे अपने संस्मरणों को साझा करते तो आवाज के उतार चढ़ाव, चेहरे की भाव-भंगिमा और हाथों की मुद्राओं के साथ पूरी शिद्दत से ऐसे प्रस्तुत करते कि वह सारा परिवेश जीवंत हो जाता। यही जीवंतता उन्होंने कैंसर से लड़ने में दिखाई। वर्ष 2016 में जब उनका कैंसर डिटेक्ट हुआ और उनके अभिन्न मित्र प्रो. शेखर पाठक ने कुछ विशेषज्ञों के पास उनकी रिपोर्ट्स भेजीं तो सभी ने यही कहा कि कोई उम्मीद नहीं है। मामला थर्ड स्टेज से आगे का है। एम्स के एक विशेषज्ञ ने तो यहाँ तक कहा कि कोई चमत्कार ही इन्हें बचा सकता है, हालाँकि व्यक्तिगत रूप से मैं ‘मिरेकल्स’ में विश्वास नहीं करता। लेकिन उन्होंने सर गंगाराम हॉस्पिटल के चिकित्सकों के साथ मिलकर इस चुनौती को स्वीकार किया। इस लड़ाई में उनके सहयोगी बने उनकी सहधर्मिणी मीरा भाभी, बेटियां अदिति और सुदिति और मीरा भाभी के बड़े भाई सुरेन्द्र चंद, उनकी पत्नी कविता, कुछ मित्र और शुभचिंतक।
और एक ‘मिरेकल’ घटित हुआ…….एक चमत्कार! पूरे चार साल तक यह लगा कि उन्होंने कैंसर को परास्त कर दिया है। वे फिर से पूरी तरह स्वस्थ और तरोताजा नजर आने लगे। शेर का डांडा की पहाड़ी स्थित अपने घर से सामने अयारपाटा पर स्थित अपने कॉलेज तक वे पैदल जाने लगे और बाजार से सामान का थैला ढोते हुए पैदल वापस लौटने लगे। सर गंगा राम हॉस्पिटल के डॉक्टर अमिताभ यादव कहते, ‘‘आप मेरे लिए एक असाधारण एक्जाम्पल हैं।’’ डॉक्टर-मरीज के फर्क को खत्म करते हुए उन्होंने रघुवीर दा से अपनी ओपीडी फीस लेनी बंद कर दी और उनके परिजनों से कहा कि कभी भी, किसी भी वक्त कोई राय-मशविरा लेना हो तो निःसंकोच फोन करें या मेसेज करें। जब भी उनसे राय मांगी जाती वे जवाब जरुर देते। अपने शोक सन्देश में उन्होंने लिखा है, ‘‘उनके जाने से मुझे बहुत आघात लगा है। वे एक ऐसे मरीज थे जिन्हें मैं कभी नहीं भूल सकता। वे एक अद्भुत व्यक्ति थे और उनका परिवार भी नायाब था।’’
यह सोच कर सिहरन सी होती है कि कैसे उन्होंने कैंसर के दुबारा हमले पर उस सारी यातना को झेला होगा ? क्योंकि तब इस तकलीफ के अलावा देश भर में लॉक डाउन के कारण निस्तब्धता और घोर उदासी थी और वे अपने परिवार के साथ इस जंग को लड़ रहे थे। मीरा भाभी बताती हैं कि पलंग तक सीमित अपने दायरे के बीच उन्होंने कभी कोई हताशा नहीं दर्शाई। जब किसी शोधार्थी का फोन आता तो उसे मार्गदर्शन भी देते। कभी ऐसा भी होता कि वे उनींदे से लेटे हैं, किसी का फोन आया और मीरा भाभी ने कह दिया कि सर अभी सोये हैं तो वे आँखे खोल कहते, ‘‘ला मीरू, फोन दे। मैं सोया नहीं हूँ।’’ वे कहते कि मुझे इन लोगों से बात कर ऊर्जा मिलती है।
आज रघुवीर दा हमारे बीच नहीं हैं। मगर उनका जो अध्ययन हमारे बीच है और जिसे अभी प्रकाशित होना है, वह उन्हें हमेशा जिन्दा रखेगा। व्यक्ति की एक पहचान यह भी होती है कि वह अपने बच्चों को क्या सिखला कर गया है। उनकी दोनों बेटियां ने कैंसर के खिलाफ जंग में अपने पिता की हर संभव तरीके से मदद की। जब उनकी अंत्येष्टि की तैयारी हो रही थी तो बेटियों ने आग्रह किया कि वही उन्हें मुखाग्नि देंगीं। उन्होंने यह तर्क कि परम्परा से यह कर्म पुरुष ही करते हैं, स्वीकार नहीं किया। उनका कहना था कि उनके पापा ने तो कभी उन्हें यह अहसास नहीं होने दिया कि वे बेटों की तरह सक्षम नहीं हो सकतीं। अन्ततः उनकी छोटी बेटी सुदिति ने ही उनके पार्थिव शरीर को मुखाग्नि दी और उसने ही अपने चाचा और चचेरे भाई के साथ ‘कोड़े पर बैठने’ की आखिरी रस्में पूरी की। श्मशान घाट जब रघुवीर दा का दाह संस्कार चल रहा था, तो उसने मुझसे पूछा, ‘‘अंकल, क्या आप चिता की थोड़ी राख सहेज कर मुझे दे देंगे ?’’ मेरे पूछने पर उसने कहा, ‘‘पापा कहा करते थे कि बेटा मैंने विश्व की सभी पर्वतमालाएँ करीब से देख लीं, मगर आल्प्स नहीं जा पाया। बेटा, तू मुझे आल्प्स दिखाएगी ?’’ बहुत भावुक होकर उसने आगे कहा, ‘‘पापा के जीते जी मैं उन्हें आल्प्स नहीं दिखा पायी। अब मैं चाहती हूँ कि उनके अवशेष आल्प्स में विसर्जित करूँ।’’
रघुवीर दा ने अलास्का में ‘टिनाना के तट से’ जो कविता रची, उसका यह अंश रह-रह कर याद आता है :
जब कई कल्पों की
प्रलय लीला से बच निकले हैं
तो हम जियेंगे
हजारों कल्प आगे तक
टुन्ड्रा से भूमध्य भूमि
का जीवन ढोते हुए
हर कल्प में विज्ञान
के नए नए सूरज
बन उगेंगे हम
आमीन…….रघुवीर दा!
डॉ. रघुवीर चन्द ने अपने भूटान प्रवास के दौरान उस क्षेत्र का विस्तृत अध्ययन किया। वहाँ की ब्रोक्पा जनजाति के लोगों के जीवनवृत्त को लेकर लिखी गई उनकी कविता ‘क्षितिजपुत्र’ यहाँ प्रस्तुत है।
जब हम कांगलुंग के ऊपर यमथुला की ओर देखते हैं तो जो क्षितिज रेखा दिखती है, उस पर लाल रंग के जो बिम्ब दिखते हैं, वे ब्रोक्पा हैं। ये अपने गांव के ऊपर शिखरों से होते हुए 2000 मी, की पर्वत भुजा तक जाएंगे और बाद में फिर गर्मियों में वापस लौट जाएंगे। इसी घुमन्तू समाज के ब्रोक्पा लोगों पर है यह कविता । आज हम ‘नैनीताल समाचार परिवार’ की ओर से उनके जन्मदिन पर उन्हीं की कविता के माध्यम से उन्हें याद करते हैं।
क्षितिजपुत्र
हे क्षितिज पुत्र
क्षितिजों के क्षितिज क्षत-विक्षत करते
थके हारे सूरज को जब हिमालय ने थामा
बर्फीले तूफानों की नमी पाकर जब मोतियों की चरागाह में
सूरज गल-गल कर गिर पड़ा
तुम पैदा हुए 1
छोना के महलों तक न पहुंचने की सजा पाकर
जब सूरज ने पहाड़ काटा तिब्बत में
आमजुमो की तलवार लेकर जब दासता मुक्त हुई
सूरज बन कर उस महान क्रान्ति के गर्भ से /तुम पैदा हुए
ल्हासा के हर सालाना जश्न में सदियों से बलि चढ़ाते तुम
निष्कासित/प्रताड़ित/ तिब्बत की सीमा से बाहर
हिमालय की ऊँचाइयों के बीच विलीन होते हुए
तुम पैदा हुए
याकों की पीठ पर
जन्मा/बीता/तुम्हारा बचपन
हिमदर्रों के बीच झूलता/चरागाहों की उम्र पाकर
तुम्हें बांज वनां से हिम शिखरां की कठिन यात्राओं ने पाला
याक से येति तक के तुम हमसफर
हर शिखर की कोख काठी तक फैला तुम्हारा साम्राज्य
तुम्हारी मुट्ठी में कैद शताब्दियां
तुम वक्त का ताज पहने
अविराम/अजेय/अज्ञेय हो
तुम क्षितिज पुत्र हो
हमारी कोरी सभ्याताओं के दंश से मुक्त/निष्फिक्र्र/
वहां हिमनदों के सिरहाने बैठे तुम /उषा की लालिमा ओढ़े
कितना मोहक
कितना सरल तुम्हारा सौन्दर्य/बसन्ती बयार बन
हिम शिखरों का यौवन लूटते तुम
छित-छितवे/ छित-छितवे गाते
छाछा चू से नगचूला के बीच 2
द्विनचांग की मस्ती में डूबे 3
परला खेलते तुम्हारे ग्रीष्म गांव 4
शरद चरागाहों की गुनगुनी धूप में आंख मूंदे खड़ी तुम्हारी याक माताएं
और शीत के झरते दांग में चू की चौड़ी छाती से लिपट जाते तुम 5
तुम प्रकृति पुत्र हो तुम जीवित रखना तुम्हारी दूधिया महक
याक मक्खन की डली सा तुम्हारा यौवन
चरागाहों को विदा होती युवतियों की वे रंगीन पंक्तियां
जोमोफुदरंग जाती/घोड़ों पर सवार युवक टोलिया 6
तुम्हारे याक काफिले/याक नृत्य/
याकों के पुनर्जन्म की कामनाएं/यायावरी तुम्हारा पेशा
यायावरी जीवित रखना
तुम यायावर हो
हम यहां सारछोप गांव में सभी तुम्हारे निपो बनने की रस्म अदा करते हैं 7
तभी तो द्रूकोर से लौटते तुम्हारे घोड़े
अनाज से लदे होंगे सेर्फां के स्वर्ण कलश
सक्तिंग चू की चांदी लकीरें चमकती रहेंगी 8
मक्खन के दिये जलाती रहेंगी मिरख की उमजी आमा 9
याकों की घंटियों के स्वर बजते रहेंगे
बजते रहेंगे
डॉ. रघुवीर चन्द
1तिब्बत में छोनाजौंग एक स्थान है, उस स्थान के सामने एक बहुत बड़ा पहाड़ था, जिसके कारण सूर्य की प्रातःकालीन किरणें छोनाजौंग तक नहीं पहुंच पाती थीं। तब छोनाजौंग के राजा ने ब्रोक्पा लोगों को यह जिम्मेदारी दी कि वो इस पहाड़ को काट दें। उन्होंने पहाड़ काटना प्रारम्भ तो किया पर यह बहुत कठिन कार्य था। तब सभी ब्रोक्पा जिसके पुत्र माने जाते हैं, उस आमजूमो ने सोचा कि हम जीवन भर इस पहाड़ को तो काट नहीं सकते इसलिये इस राजा के सिर को ही काट देते हैं। राजा को दावत का निमंत्रण दिया गया और दावत के उपरान्त राजा का सिर काट दिया गया। इसे एक विद्रोह माना गया और राजा के सैनिक ब्रोक्पा लोगों को पकड़ने लगे तब सभी ब्रोक्पा, अरुणांचल के रास्ते भूटान के दर्रों से, जहां रास्ता मिला वहां से ये लोग अपनी याक और भेड़ो के साथ नीचे उतर आये।
2ल्हासा में एक जश्न होता है उस जश्न में वो एक क़ैदी को, मैले-कुचैले कपड़ों में देश निकाला दे दे देते हैं और माना जाता है कि पूरे तिब्बत देश पर आने वाली आफतें और बलाएं इस कैदी के साथ ही देश से बाहर निकल जाएंगी। इन निकाले गये कैदियों में कई सारे ब्रोक्पा भी रहे।
छित-छित वे याकों को हांकने की आवाज है और छाछा चू सकतिंग के पास एक नदी है। सकतिंग से ऊपर मिरख जाते हुए नगचूला एक बहुत बड़ा एक दर्रा है।
3हर शाम चरागाहों से लौटने के बाद ब्रोक्पा लोग एक उत्सव मनाते हैं जिसे द्विनचांग कहते हैं। इस उत्सव में ये लोग आरा पीते हैं और नाचते गाते हैं।
4परला चौसर की ही तरह एक खेल है। ये हड्डियों और सीपियों से बना होता है और जिस दिन ब्रोक्पा लोग चरागाहों से लौट कर अपने गांव में विश्राम करते हैं उस दिन इसे खेलते हैं।
5दांग मे चू वो नदी है जो शीत ऋतु में नीचे उतर आने की उनकी अन्तिम सीमा है और वहाँ वो द्रूकोर करते हैं जो वस्तु विनिमय एक प्रणाली है।
6 जोमोफुदरंग-आमजूमो का महल है जो उनका तीर्थ स्थान है।
7 सारछोप, पूर्वी भूटान के वो मित्र गांव हैं, जहां वो वस्तु विनिमय करते हैं। इस प्रथा को ब्रोक्पा लोग द्रूकोर कहते ेहैं और उनके याक मक्खन के बदले जो धान इकट्ठा करते हैं उन्हें निपो कहते हैं यानी परिवार का मित्र। जब तक हम निपो बने रहेंगे तुम्हारा वस्तु विनिमय चलता रहेगा, तुम्हारी अर्थ व्यवस्था जीवित रहेगी।
8 सेर्फों को सोने का पहाड़ माना जाता है, क्योंकि जब इस पर सूरज की किरणें पड़ती हैं तो ये सोने की तरह दमकने लगता है।
9 उमजी आमा-मठों को चलाने वाली स्त्रियोें को कहा जाता है। बाकी मठों को पुरुष चलाते हैं परन्तु मिरख मठ स्त्रियों द्वारा संचालित है।
3 Comments
Geeta gairola
रघुवीर दा के बारे में।पढ़ कर आंखें भर आई।हम दोनो ने लगभग एक साथ कैंसर का सामना किया था।उन्हे तकलीफ से छुटकारा मिल गया पर एक खाली जगह छोड़ गए।
मृगेश पांडे
बहुत सरल सुलझा साहसी सहृदय खोज की छटपटाहट में डूबा रघुवीर ,जिस काम के पीछे लगता उसे पूरे मनोयोग से पूरा करता। नैनीताल आने पर उसे जरूर ढूंढता और वह अपने चल रहे कामों के बारे में खूब बताता। आंचलिक अर्थव्यवस्था की उसमें गहरी समझ थी। मेरी बहुत शंकाओं को समाधान करने वालों में दो ही पडोसी थे ,डॉ गिरीश चंन्द्र पांडे और रघुवीर जो बिना लाग लपेट और पांडित्य झाड़े जैसे बात की जड़ पकड़ लेते। सरकारी मास्टरी के मायाजाल में अपने इलाके में हो सकने वाले बहुत काम मैं पूरे कर ही न पाया उसे बताता जरूर था कि ये सोचा है कुछ किया भी है प र कभी ट्रांसफर कभी प्रिंसिपल की कुर्सी और इनमें ख प गयी अपनी सीमित क्ष म ता। सो टिक कर काम सिलसिले से पूरा करना मुझे कभी आया ही नहीं। कभी कैमरे पैर जोर होता तो कभी नाटक पर। रघुवीर इसकी भी तारीफ करता और कहता कि आंचलिक अर्थ पर जो उथल पुथल है आपके दिमाग में उस पर वीडियो की ये जबरदस्त थीम है। बाहर विश्वविद्यालयों में ये ही हो रहा। उसने हर बार एक साफ़ रास्ता दिया। पिथौड़ागढ़ वाला होने से उससे मेरा जुड़ाव कुछ ज्यादा ही था। कई ट्रेकिंग में साथ भी मिला। अपनी भावनाओं को सपने में बदलना और फिर उसे पूरा करने में जान लगा देना ; रघुवीर ये कर गया; वो मंद मंद मुस्काता रघुवीर।
सुरेन्द्र चंद राजा
आज आपकी लेखनी पड़ कर डॉ रघुवीर चंद जी बहुत याद आ रहे हैं, उनसे मेरा रिश्ता केवल एक बहनोई (जमाई) वाला ही नही था अपितु उनके साथ आत्मिक जुडाव था, पिछले 40-42 वर्षों मे वह मेरे जिवन का एक हिस्सा बन चुके थे, आज उनके जाने के बाद यह जीवन खाली खाली लगता है, आज आपका लेख पढ कर अश्रुओं को रोक नहीं पाया, वह लगातार बहते रहे, दिल बहुत उदास हुआ, उन्हे मै जितना समझता था और जो कुछ उनके समबन्ध मे जानता था हूबहु वह सब आपकी लेखनी ने इंगित कर दिया, आप जैसे मित्रों व साथियों के धनी हमारे जमाई जी महाराज आज दुनिया में भले ही नही रहे पर वह जहाँ भी होंगे आप जैसे मित्रों व संगी साथियों का उन्हे जीवन पर्यन्त दिया प्यार व सम्मान वह अवश्य मिस कर रहे होंगे, यह सोलह आने सच है कि उनकी उर्जा के स्रोत उनके स्टूडेंट, आप जैसे उनके पठन-पाठन के साथी, उनकी किताबें, उनकी डायरियां व उनकी शोध पत्रिकाएं ही रहीं थीं । मेरा मानना है कि यही कुछ प्रमुख कारण रहे हैं जिसके फलस्वरूप हम पाँच वर्ष और अधिक उनका प्यार व आशीर्वाद पा सके ।
उम्मीद है डाॅ रघुवीर चंद जी हम सभी के हृदय मे इसी तरह हमेशा हमेशा बने रहेंगे,
प्रदीप पाण्डे जी व दूसरे डाॅकटर चंद जी के सभी स्टूडेंटस, मित्रों व संगी साथियों का बहुत-बहुत धन्यवाद