सुधीर विद्यार्थी
(सुधीर विदयार्थ ने भारत के क्रांतिकारियों के ऊपर बेहद उम्दा काम किया है, तमाम नामी और बेनाम इन्क़लाबियों की उनके पास धरोहर है, उनकी जीवनियां लिखी हैं और उनके विविध पहलुओं से आवाम को परिचित कराया है। विद्यार्थी जी द्वारा प्रस्तुत यह लेख पंडित राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा शहादत से कुछ समय पूर्व अशफ़ाक़उल्ला खां के बारे में लिखा यह संदेश आज के फिरकपरस्त वक़्त में बेहद अहम है। -संपादक)
16 दिसम्बर 1927 यानी अपनी फाँसी की तारीख (19 दिसम्बर) से तीन दिन पहले तक गोरखपुर जेल की काल कोठरी में काकोरी के क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल अपनी आत्मकथा को लिपिबद्ध करते रहे, जिसे उन्होंने चुपके से तीन खेपों में एक जेल वार्डर के जरिए बाहर भिजवाया था।
वे लिखते हैं, ‘आज 16 दिसम्बर, 1927 ई. को निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख कर रहा हूँ, जबकि 19 दिसम्बर, 1927 ई. सोमवार (पौष कृष्ण 11 संवत, 1984 वि.) को साढ़े 6 बजे प्रातःकाल इस शरीर को फाँसी पर लटका देने की तिथि निश्चित की जा चुकी है। अतएव नियत समय पर इहलीला संवरण करनी होगी।’
बिस्मिल की इस कृति को हिन्दी की कुछ श्रेष्ठ आत्मकथाओं में शुमार किया गया। इसे जिन परिस्थितियों में उन्होंने लिखा, वे बहुत असाधारण और दारुण थीं। एक ओर फाँसी का फंदा तो दूसरी तरफ उन पर कड़ी निगरानी का पहरा। इस सबके बीच किसी तरह छिपकर वे अपनी जीवनगाथा को रजिस्टर के आकार के कागजों पर पेंसिल से दर्ज करते रहे। कैसा अद्भुत आत्मसंयम और मृत्यु से बेफिक्री!
प्रिय अशफ़ाक़
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जेल के भीतर बिखरे पन्नों पर लिखी इसी इबारत में अपने साथ ही फाँसी की सजा पाने वाले क्रान्तिकारी अशफ़ाक़उल्ला खां के बारे में बिस्मिल ने जो कहा वह इस आत्मकथा का सर्वोत्तम हिस्सा है, जिसे आज के साम्प्रदायिक माहौल में बार-बार पढ़ा जाना हमारे लिए बेहद जरूरी है।
वे लिखते हैं :
‘मुझे भली-भांति याद है, जब कि मैं बादशाही एलान के बाद शाहजहांपुर आया था, तो तुमसे स्कूल में भेंट हुई थी। तुम्हारी मुझसे मिलने की बड़ी हार्दिक इच्छा थी। तुमने मुझसे मैनपुरी षड्यंत्र के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करनी चाही थी। मैंने यह समझकर कि एक स्कूल का मुसलमान विद्यार्थी मुझसे इस प्रकार की बातचीत क्यों करता है, तुम्हारी बातों का उत्तर उपेक्षा की दृष्टि से दे दिया था। तुम्हें उस समय बड़ा खेद हुआ था। तुम्हारे मुख से हार्दिक भावों का प्रकाश हो रहा था। तुमने अपने इरादे को यों ही नहीं छोड़ दिया, अपने निश्चय पर डटे रहे। जिस प्रकार हो सका कॉंग्रेस में बातचीत की। अपने इष्ट-मित्रों द्वारा इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश की कि तुम बनावटी आदमी नहीं, तुम्हारे दिल में मुल्क की खिदमत करने की ख़्वाहिश थी। अन्त में तुम्हारी विजय हुई। तुम्हारी कोशिशों ने मेरे दिल में जगह पैदा कर ली। तुम्हारे बड़े भाई मेरे उर्दू मिडिल के सहपाठी तथा मित्र थे, यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। थोड़े दिनों में ही तुम मेरे छोटे भाई के समान हो गए थे, किन्तु छोटे भाई बनकर तुम्हें सन्तोष न हुआ। तुम समानता का अधिकार चाहते थे, तुम मित्र की श्रेणी में अपनी गणना चाहते थे। वही हुआ। तुम सच्चे मित्र बन गए। सबको आश्चर्य था कि एक कट्टर आर्य-समाजी और मुसलमान का मेल कैसा? मैं मुसलमानों की शुद्धि करता था। आर्य-समाज मन्दिर में मेरा निवास था, किन्तु तुम इन बातों की किंचितमात्र चिन्ता न करते थे। मेरे कुछ साथी तुम्हें मुसलमान होने के कारण घृणा की दृष्टि से देखते थे, किन्तु तुम अपने निश्चय में दृढ़ थे। मेरे पास आर्य-समाज मन्दिर में आते-जाते थे। हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा होने पर, तुम्हारे मुहल्ले के सब कोई तुम्हें खुल्लमखुल्ला गालियाँ देते थे, काफ़िर के नाम से पुकारते थे, पर तुम कभी भी उनके विचारों से सहमत न हुए। सदैव हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य के पक्षपाती रहे। तुम एक सच्चे मुसलमान तथा सच्चे स्वदेश-भक्त थे। तुम्हें यदि जीवन में कोई विचार था, तो यही कि मुसलमानों को ख़ुदा अक्ल देता, कि वे हिन्दुओं के साथ मिलकर के हिन्दुस्तान की भलाई करते। जब मैं हिन्दी में कोई लेख या पुस्तक लिखता तो तुम सदैव वही अनुरोध करते कि उर्दू में क्यों नहीं लिखते, जो मुसलमान भी पढ़ सकें? तुमने स्वदेशभक्ति के भावों को भली-भांति समझने के लिए ही हिन्दी का अच्छा अध्ययन किया। अपने घर पर जब माता जी तथा भ्राता जी से बातचीत करते थे, तो तुम्हारे मुँह से हिन्दी शब्द निकल जाते थे, जिससे सबको बड़ा आश्चर्य होता था।’
तुम्हारा हृदय तो किसी प्रकार अशुद्ध न था,
फिर तुम शुद्धि किस वस्तु की कराते?
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इसी क्रम में बिस्मिल आगे कहते हैं, ‘तुम्हारी इस प्रकार की प्रवृत्ति को देखकर बहुतों को सन्देह होता था कि कहीं इस्लाम-धर्म त्याग कर शुद्धि न करे लो। पर तुम्हारा हृदय तो किसी प्रकार अशुद्ध न था, फिर तुम शुद्धि किस वस्तु की कराते ? तुम्हारी इस प्रकार की प्रगति ने मेरे हृदय पर पूर्ण विजय पा ली। बहुधा मित्र मण्डली में बात छिड़ती कि कहीं मुसलमान पर विश्वास करके धोखा न खाना। तुम्हारी जीत हुई, मुझमें तुममें कोई भेद न था। बहुधा मैंने तुमने एक थाली में भोजन किए। मेरे हृदय से यह विचार ही जाता रहा कि हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद है। तुम मुझ पर अटल विश्वास तथा अगाध प्रीति रखते थे। हाँ! तुम मेरा नाम लेकर पुकार नहीं सकते थे। तुम तो सदैव ‘राम’ कहा करते थे। एक समय जब तुम्हारे हृदय-कम्प (Palpitation of heart) का दौरा हुआ, तुम अचेत थे, तुम्हारे मुँह में बारम्बार ‘राम’ ‘हाय राम’ शब्द निकल रहे थे। पास खड़े हुए भाई-बाँधवों को आश्चर्य था कि ‘राम’, ‘राम’ कहता है। कहते कि ‘अल्लाह’ ‘अल्लाह’ कहो, पर तुम्हारी ‘राम-राम’ की रट थी! उसी समय किसी मित्र का आगमन हुआ, जो ‘राम’ के भेद को जानते थे। तुरन्त मैं बुलाया गया। मुझसे मिलने पर तुम्हें शान्ति हुई, तब सब लोग ‘राम राम’ के भेद को समझे!
‘अन्त में इस प्रेम, प्रीति तथा मित्रता का परिणाम क्या हुआ? मेरे विचारों के रंग में तुम भी रंग गए। तुम भी कट्टर क्रांतिकारी बन गए। अब तो तुम्हारा दिन-रात प्रयत्न यही था कि किस प्रकार हो मुसलमान नवयुवकों में भी क्रांतिकारी भावों का प्रवेश हो। वे भी क्रांतिकारी आंदोलन में योग दें। जितने तुम्हारे बन्धु तथा मित्र थे सब पर तुमने अपने विचारों का प्रभाव डालने का प्रयत्न किया। बहुधा क्रांतिकारी सदस्यों को भी बड़ा आश्चर्य होता कि मैंने कैसे एक मुसलमान को क्रांतिकारी दल का प्रतिष्ठित सदस्य बना लिया। मेरे साथ तुमने जो कार्य किये, व सराहनीय हैं। तुमने कभी भी मेरी आज्ञा की अवहेलना न की। एक आज्ञाकारी भक्त के समान मेरी आज्ञा पालन में तत्पर रहते थे। तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल था। तुम्हारे भाव बड़े उच्च थे।
‘मुझे यदि शान्ति है तो यही कि तुमने संसार में मेरा मुख उज्ज्वल कर दिया। भारत के इतिहास में यह घटना उल्लेखनीय हो गई कि अशफ़ाक़उल्ला ने क्रान्तिकारी आंदोलन में योग दिया। अपने भाई-बन्धु तथा सम्बन्धियों के समझाने पर कुछ भी ध्यान न दिया। गिरफ्तार हो जाने पर भी अपने विचारों में दृढ़ रहे! जैसे तुम शारीरिक बलशाली थे, वैसे ही मानसिक वीर तथा आत्मा से उच्च सिद्ध हुए। इन सबके परिणामस्वरूप अदालत में तुमको मेरा सहकारी (लेफ्टिनेंट) ठहराया गया, और जज ने मुकदमे का फ़ैसला लिखते समय तुम्हारे गले में जयमाला (फाँसी की रस्सी) पहना दी। प्यारे भाई, तुम्हें यह समझ कर सन्तोष होगा कि जिसने अपने माता-पिता की धन-सम्पत्ति को देश-सेवा में अर्पण कर उन्हें भिखारी बना दिया, जिसने अपने सहोदर के भावी भाग्य को भी देश-सेवा की भेंट कर दिया, जिसने अपना तन-मन-धन सर्वस्व मातृ-सेवा में अर्पण करके अपना अन्तिम बलिदान भी दे दिया, उसने अपने प्रिय सखा अशफ़ाक़ को भी उसी मातृ-भूमि की भेंट चढ़ा दिया।
‘असग़र’ हरीम-ए-इश्क़ में हस्ती ही ज़ुर्म है,
रखना कभी न पाँव यहॉं सर लिए हुए।’
काकोरी केस में रामप्रसाद बिस्मिल को 19 दिसम्बर, 1927 के दिन गोरखपुर, अशफ़ाक़उल्ला फैज़ाबाद तथा रोशनसिंह को मलाका (इलाहाबाद) जेल में फाँसी पर लटकाया गया, जबकि राजेन्द्र लाहिड़ी दो दिन पहले ही 17 दिसम्बर को गोंडा जेल में फाँसी पर झुला दिए गए। शेष क्रांतिकारियों को लम्बी-लम्बी कैद की सजाएं मिलीं। मन्मथनाथ गुप्त को 14 वर्ष की सजा मिली जिसे सरकार की अपील पर भी यह कहकर फाँसी में तब्दील नहीं किया गया कि उनकी उम्र कम है। वे तब 19 साल के थे।