उत्तराखंड का तामता (टम्टा) समुदाय
उत्तराखंड का प्राचीन ऐतिहासिक नगर अल्मोड़ा कला व संस्कृति के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान रखता है. इस नगर की पहचान बुद्धिजीवियों के नगर के रूप में की जाती है. बुद्धिजीवियों के अतिरिक्त यहाँ की पहचान बाल-मिठाई व ताम्र शिल्प से भी की जाती है, जिन्हें अल्मोड़े की सौगात बोलकर भी अक्सर नवाज़ा जाता है. अल्मोड़ा की स्थापना के पश्चात सोलहवीं शताब्दी में चंद राजाओं ने यहाँ अपना मुख्यालय चम्पावत से परिवर्तित कर स्थानांतरित किया. इस प्रकार अल्मोड़ा में चन्दों का शासन आरम्भ हुआ.
अल्मोड़ा नगर में ताम्रशिल्प बनाने का लघु उद्योग चंद राजाओं के समय से चला आ रहा है. चंद राजा अपने कोषागार की व्यवस्था के लिए ताम्रशिल्पियों को चम्पावत से अल्मोड़ा लेकर आये जो कि तब चम्पावत के पास गोश्नी व भौर्याल (पाटी ब्लॉक) गावों में बसे हुए. तब कुछ परिवार खरही, बागेश्वर, बेरीनाग, पिथौरागढ़, गंगोलीहाट आदि स्थानों में भी बस गये. तत्कालीन राजाओं के जारी शासनादेश पर ताँबें से बनी एक विशेष मोहर से टम्टा छाप लगते थे जो कि इन आदेशों के कागज़ पर एक उभार (बम्प) सा रहता था और इस तरह बने टम्टा मुहर युक्त शासनादेश ही प्रभावी माना जाता था अन्यथा नहीं. बगैर ठप्पे वाला आदेश पत्र अमान्य हुआ करता था और यही कारण था कि चंद शासकों द्वारा तामता समूह को राज़ दीवान के समकक्ष माना गया.
इस तरह आज से तक़रीबन 500 वर्ष पूर्व टम्टा समुदाय के सदस्य कुमाऊं के चन्द राज-वंश के टकसालों में शाही ख़ज़ाने के लिए सिक्के गड़ने का काम करते थे. सन् 1744 में चन्द राज-वंश के ढलान और फिर 1814 में राज-वंश के लुप्त होने के बाद कुमाऊं के इन ठठेरों ने अपना ध्यान ताम्बे के घर-गृहस्थी व पूजा के बर्तनों तथा सजावटी वस्तुओं के शिल्प की ओर मोड़ा. एक ज़माने में टम्टा कारीगरों द्वारा बनाए गए परंपरागत तौला, गागर, परात, पूजा के बर्तन के अलावा वाद्य यंत्र रणसिंघा, तुतरी आदि बहुत प्रसिद्ध थे.
ये ताम्रशिल्पी ताम्रधातु की खोज में इतने दक्ष थे कि ज़मीन के गर्भ में ताँबा कहाँ पर उपलब्ध होगा, उसकी खोज स्वयं कर लेते थे जबकि उस समय इनके पास न ही कोई वैज्ञानिक ज्ञान था और न ही सर्वेक्षण व खोज के यंत्र, उपकरण आदि. उन दिनों टम्टा लोग भूगर्भ से धातु का पत्थर निकाल कर उसे परिष्कृत व शोधित कर ताँबे का ठोस गोला बना लेते थे. इस कार्य में वे मैग्नेसाइट के चूर्ण को लाल मिट्टी में मिलाकर ताम्र धातु के पत्थर को पिघलाने का पात्र बना लेते थे. तत्पश्चात भट्टी में ईंधन के रूप में लकड़ियों को दहन कर उसमें ज़मीन से निकला हुवा ताम्र धातु के पत्थर को पिघलाकर शुद्ध ताँबे का ठोस गोला बनाया करते थे. इस प्रक्रिया में उनके जो सहयोगी होते थे उन्हें आगरी कहाँ जाता था. आगरी कुमाऊँ के शिल्पकारों के ही अंतर्गत एक अन्य जाति होती है. इस प्रकार ताम्र पत्थर पिघलाने से प्राप्त शुद्ध ताँबे के इन ठोस गोलों से चंद राजाओं के कोषागार के प्रबंधक टम्टा तांबे के सिक्के ढाल कर बनाते थे.
टम्टाओं का एक समूह गढ़वाल क्षेत्र में चंद राजाओं के समय ही स्थानांतरित हो गया था जो की वहाँ पर पौड़ी व श्रीनगर में स्थापित हो गये. गढ़वाल क्षेत्र के टम्टाओं द्वारा बनाये गये गागर कुमाऊँ क्षेत्र से भिन्न हैं, उसमे गागर कुछ हल्का सा शंक्वाकार (कोनिकल) रूप लिए, पेंदा उठा हुवा व गला बड़ा होता है.
ताम्र शिल्पकृति, तामता (टम्टा) समुदाय का एक परम्परागत हस्तकौशल है और ये इस समुदाय की एक बेजोड़ शिल्पकला है. पहले टम्टा लोग मुख्य रूप से गागर व परात बनाते थे पर अब समय के डिमांड से इन्होने अन्य शिल्प भी तांबे से बनाना प्रारम्भ कर दिया और ताम्बे के बर्तनो की निर्माण प्रक्रिया समय के साथ-साथ विकसित होती चली गयी.
तब उत्तराखंड में शुद्ध पानी के लिए हर घर में तांबे की गागर रखी जाती थी. पर्वतीय क्षेत्र के हर विवाह में तांबे का गागर कन्या को अवश्य दिया जाता है क्योंकि तांबा शुद्ध माना जाता है और विवाह और मांगलिक कार्यक्रमों में कलश स्थापना में गागर रखा जाता है. धीरे-धीरे तांबे के बर्तनो की माँग बढ़ती चली गयी और विवाह में तांबे के बड़े पतीले (तौले) व परात भी दिए जाने की प्रथा विकसित हुई.
अठ्ठारहवी शताब्दी में उत्तराखंड में ब्रिटिश शासनकाल स्थापित हुआ. अँगरेज़ लोग व्यापारी थे वे अपने देश का सामान भारत लाकर उसे व्यापारिक दृष्टिकोण से फैलाकर अपना व्यापार बढ़ाना चाहते थे ताकि उनके देश के उद्योग- धंधे विकसित हो सकें. उन्होंने धीरे-धीरे उत्तराखंड में ताम्बा निकालने पर रोक लगा दी और इंग्लैंड से तांबे की चादरें आयात होने लगी और इस प्रकार तांबे के बर्तन आयातित तांबे की शीट्स से बनने लगे. कुमाऊँ के ताम्रशिल्प व ताम्र खनिज पदार्थ को ख़त्म करने के उद्देश्य से ब्रितानवी शासनकाल में अँगरेज़ शासकों द्वारा खरही पट्टी (बागेश्वर) में खनिज ताम्र निष्कासन के काम को प्रतिबंधित कर दिया गया ताकि वो यहां पर इंग्लैंड के कच्चे तांबे के माल को खपा सकें. इस तरह भारत के स्वदेशीय ताम्बे के निष्कासन व उस पर आधारित लघु उद्योग धंधो को ब्रितानवी शासनकाल में एक ज़बरदस्त झटका लग गया.
आज़ादी के बाद अल्मोड़ा में ताम्र शिल्पकला उद्योग ने फिर से उभरकर अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली और लगभग सौ से अधिक परिवार इस उद्योग से परम्परागत बर्तन बनाने का कार्य करते है. हालांकि वर्तमान में सिर्फ कुछ चुनिंदा परिवार ही इस लघु कुटीर उद्योग को जीवित रखे हुए है. आज भी मल्ली बाजार अल्मोड़ा के टम्ट्यूरा मोहल्ले में इनके हथौङौं की ध्वनि गुंजायमान होती है पर अब ये हथौङौं की ध्वनि दिन-प्रतिदिन निस्तेज होती ही जा रही है.
यहाँ के ताम्रशिल्पी टम्टा जाति से जाने जाते है जो की हिंदी शब्द तामता (ताम्रकार) का ही अंग्रेजी में अपभ्रंष है क्योंकि अंग्रेजी में हिंदी के ‘त’ शब्द के लिए केवल ‘टी’ शब्द ही आता है अतः इन्हें टम्टा जाति से उच्चारित किया जाने लगा. टम्टा समुदाय सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से संपन्न और कुलीन होते हैं. आज भी टम्टा समुदाय शिल्पकारों में कुलीन समझे जाते हैं और वो अपने मैट्रिमोनियल या तो सिर्फ टम्टाओं (स्वगोत्री न होने पर) या फिर आर्यों में ही करते हैं, बाकी शिल्पकारों की अन्य जातियों जैसे राम, लाल अदि से इनका वैवाहिक सम्बन्ध आदि नहीं होता है. आज कुमाऊँ में टम्टा समुदाय की जनसंख्या अनुमानतः एक प्रतिशत के आसपास है. इस समुदाय की साक्षरता दर बहुत अच्छी है और तकरीबन अस्सी प्रतिशत के आसपास आँकी गयी है.
मूलरूप से कुमाऊँ का टम्टा समुदाय राजस्थान के खेत्री व अलवर आदि स्थानों से कुमाऊँ में स्थापित हुवे हालाकि इनकी कुछ शाखाएं नेपाल से भी यहां स्थानांतरित हुई हैं. मुझे पुराने बुज़ुर्ग टम्टा लोगों से बातचीत के आधार पर ब्यौरा मिला कि राजस्थान से आये टम्टा लोग अपने नाम के पश्चात सिंह प्रयुक्त करते हैं क्योंकि उनका मानना था कि वो लोग राजस्थान के ठाकुर समुदाय से ताल्लुख रखते हैं हालाकि संदर्भ के लिए इसकी कोई लिखित पाण्डुलिपि कहीं भी उपलब्ध नहीं है. इन सिंह टम्टाओं की ताम्रकृतियाँ चौकी घानी संग्रहालय, जोकि जयपुर से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर है, में रखी गयी हैं.
मूल रुप से अल्मोड़ा के रहने वाले डा. नागेश कुमार शाह वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं. डा. नागेश कुमार शाह आई.सी.ए.आर में प्रधान वैज्ञानिक के पद से सेवानिवृत्त हुये हैं. अब तक बीस से अधिक कहानियां लिख चुके डा. नागेश कुमार शाह के एक सौ पचास से अधिक वैज्ञानिक शोध पत्र व लेख राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं.
हिन्दी वैब पोर्टल ‘काफल ट्री’ से साभार