प्रमिला जोशी
होली कुमाऊँ क्षेत्र का एक प्रमुख पर्व है यहाँ बैठकी व खड़ी होली मनाने की परंपरा है। इन दोनों प्रकार की होलियों में महिला व पुरुष प्रतिभाग करते हैं। बैठकी होली का प्रारंभ पूष माह के प्रथम रविवार से प्रारंभ होता है। इस दिन से यह पर्व लोक परंपरागत तरीके से मनाया जाता है जिसकी शुरुआत बैठकी होली से आरंभ होती है। इन बैठकों में होली गायन के शौकीन पुरुष व महिलाएं विशेष ताल राग लय व विभिन्न वाद्ययंत्रों के प्रयोग से होलियों की प्रस्तुति देते हैं। रंगों के इस त्योहार में महिला बैठकी होली की महफिल का अपना एक अलग ही आनंद होता है। पूर्व में होलियों में महिलाएं एक दूसरे के घरों में प्रतिदिन रात्रि में बैठकी होली करवाती थी परंतु वर्तमान मैं दिन में ही होली गवाना पसंद किया जाने लगा है। होलियों में ईश्वर को समर्पित पारंपरिक गीत गाए जाते हैं। अक्सर इन गीतों में राधा कृष्ण राम हनुमान नल दमयंती शंकर ब्रह्मा देवी इन्द्र आदि देवी देवताओं को गीतों में पिरोकर गायन किया जाता है जिनमें हर्ष उल्लास चुहलबाजी विरह आदि के भाव समाहित होते हैं। बसंत पंचमी के आते ही गायकों का उत्साह दुगुना हो जाता है। कुमाऊनी समाज में बैठकी व खड़ी होली गीतों के राग लय व रिद्म आधारित होती है। खड़ी होली में पैरों व हाथों का संचालन राग ताल आध्यात्म व वाद्ययंत्रों में समन्वय के अनुसार होता है। कई होलियों को झोड़े की तर्ज पर भी प्रस्तुत किया जाता है।
विशेष रूप से बैठकी होली की संगीत परंपरा का आरंभ 15 वीं शताब्दी में माना जाता है परंतु इस त्योहार की उत्पत्ति चंपावत के चंद राजाओं के महल में और इसके आस पास स्थित काली कुमायूं, सुई और गुमदेश क्षेत्रों में मानी जाती है। लोहाघाट, पाटी, पाटन, भिंगराडा फोर्ती व अन्य कई गाँव इस त्यौहार को बड़े हर्षोल्लास से मानते हैं।
कुमाऊनी होली भारतवर्ष के अन्य शहरों से अलग विशेषताएं लिए हुए हैं होली गायन के दौरान विभिन्न प्रकार के व्यंजन भी गायकों को खिलाए जाते हैं। जिनमे आलू के गुटके चटनी गुजिया. पापड़, चिप्स, सौफ, सुपारी, मिश्री, कसा गोला आदि दिए जाते हैं। गाँव व घरों में महिलाओं की बैठकी होली में कसा गोला भुना हुआ सौंफ व गुड़ दिये जाने का रिवाज है। वर्तमान में नई बहुवों के आगमन से गुजिया नमकीन मठरी भी महिलाओं को दी जाने लगी हैं।
बैठकी होली के पश्चात् होली का स्वरूप खड़ी होली में बदल जाता है। खड़ी होली में ढोल व मजीरे की थाप पर होल्यार (होली गाने वाले महिला व पुरुष ) विशिष्ट पद संचालन करते हुए एक गोल घेरे में घूम घूमकर होली गाते हैं। इस गायन में एक ही पद को बार बार विभिन्न तरीके से गाया जाता है। महिला व पुरुष एक साथ या अलग अलग पंक्तिबद्ध होकर होली गाते हैं और एक विशेष तरीके से पद संचालन करते हुये गोले घेरे मैं घूमते हैं। खड़ी होली का प्रारम्भ होली की एकादशी को रंग पड़ने व चीर बंधन से किया जाता है। चंपावत के कई गावों में चीर बंधन की प्रथा नहीं है। अधिकांशतः पुरुषों द्वारा ही चीर बंधन किया जाता है परंतु कहीं कहीं महिलाएं भी इस कार्य करती हैं। इसमें प्रथमतः भगवान व घर के सभी लोगों के होली खेलने वाले कपड़ों पर रंग डाला जाता है। तत्पश्चात् आंवले, पयां या दाडिम़ की लकड़ी पर रंग बिरंगे वस्त्रों के टुकड़ों को बांधा जाता है। इस दिन प्रत्येक गांव की टोली अपने चीर बंधन को पूर्ण करती है और खड़े होकर होली गाती है। रंग पड़ने से होलिका दहन के आठ दिन के समय को होलाष्टक कहा जाता है। होलाष्टक के समय कोई भी शुभ कार्य करना उचित नहीं समझा जाता। चीर बंधन के पश्चात् प्रत्येक गांव की टोली अपने चीर को स्थानीय मन्दिर तक ले कर आती है और भगवान को अर्पित कर मंगल कामना व आशीर्वाद लेती है। रंग खेलने के पहले दिन होलिका दहन की परंपरा निभाई जाती है। इस दिन प्रत्येक गांव के लोग अपने गाँव के स्थान विशेष जिसे बाखली कहते हैं पर होलिका दहन करते हैं। जिसमे वो लकड़ियों को एकत्रित करते हैं और चीर बंधन वाली लकड़ी को भी उन्ही लकड़ियों में सम्मिलित कर उसका दहन करती है। लकड़ी में बांधी चीर को महिलाएं अपने अपने घरों को ले जाती हैं। ऐसी मान्यता है कि इन कपड़े के टुकड़ों को घर के पूजा स्थल में रखने से छल छिद्र से बचाव होता है। होलिका दहन के अगले दिन सुबह से रंग खेलने की शुरुआत होती है। लोग अबीर गुलाल व अन्य रंगों से होली खेलते हैं और अपने पास पड़ोसियों व नाते रिश्तेदारों के घर जाते हैं। इस दिन गांव के मुखिया के घर जाने का भी रिवाज है। अबीर गुलाल व रंगों से सारा वातावरण रंगीन हो जाता है। महिलाओं बच्चों युवाओं को रंग खेलने व एक दूसरे को भिगोने में आनंद आता है। होली खेलने के पश्चात् गांव के युवा वर्ग के युवकों की टोली सभी लोगों के घर में जाती है और घरों के मुखिया का नाम लेके उन्हें आशीर्वचन देती है और कामना करती हैं कि अगली होली जल्दी आए और तब तक घर के सभी लोग स्वस्थय व प्रसन्न रहें। इस कार्य में महिलाएं प्रतिभाग नहीं करती हैं। ये आशीर्वचन इस प्रकार गाया जाता है।
हो हो होलक रे। आज का बसन्त कैका घरा –
हो हो होलक रे- आज का बसन्त (जिसके घर होली की टोली पहुँची हो उसका नाम लिया जाता है) का घरा। ( गृहस्वामी का नाम लेते हुए ) जीवें लाख बरीस
उनरा घरवाला जीवें ; लाख बरीस हो हो होलक रे……………….
मध्यान् के पश्चात् सभी लोग अपने घरों को वापस लौट जाते हैं और नहा धोकर भगवान की पूजा अर्चना करते हैं और भण्डारे में बना प्रसाद ग्राम देवता को अर्पित कर सारे लोगों में वितरित किया जाता है।
महिलाओं द्वारा गायी जाने वाली होलियाँ हास परिहास चुहुलबाजी व आनंद लिए होती हैं परन्तु ठेठ व प्राचीन होलियां जो कि स्थानीय भाषा में होती हैं उनकी उपलब्धता आज बहुत कम है। वर्तमान समय में ये होलियां बहुत सुदूरवर्ती इलाकों में प्रचलित हैं। बसन्त पंचमी से आरम्भ हुई होलियों को स्तुतिपरक होलियां कह सकतें हैं। इनमें भजन कीर्तन की प्रधानता रहती है। रंग पड़ने पर गीतों का स्वरूप रंगमय हो जाता है परन्तु रंग खेलने वाले दिन गीतों में श्रृंगार व अश्लीलता दिखाई देती है। वस्तुतः होली गीतों को विषय वस्तु की दृष्टि से भक्ति भावना श्रृंगार भावना और प्रसंग प्रधान भागों में बांटा गया है। भक्ति भावना वाली होलियों में ईश्वर भक्ति से सम्बन्धित भावनाये विद्यामान रहती हैं। इनमें देवी देवताओं की स्तुति, सृष्टि निमार्ण धन-धान्य की सम्पन्नता जैसे विषय रहते हैं। श्रृंगार प्रधान होलियों में हास परिहास हर्ष-उल्लास चुहुलबाजी और अश्लीलता भी दिखाई देती है। रंग खेलने के दिन होली का स्वरूप कभी कभी अमर्यादित भी हो जाता है परन्तु इस दिन हर्ष व उल्लास अपने चरम पर होता है। इन गीतों में किसी सुन्दरी से उसके घर का पता पूछना अपने पुराने प्रेमी से रंगरलियां मनाने को कहना युवकों का युवतियों के मोहजाल में फंसना आदि प्रसंग दिखलाई देते हैं। इन होलियों के माध्यम से अयोध्या में राम लक्ष्मण व सीता भी होली खेलते हुये दिखते हैं तो कहीं राधा कृष्ण के प्रेम का निश्छल स्वरूप दिखाई देता है। अक्सर इन होली गीतों में किसी प्रसंग की प्रधानता होती है। किसी गीत में गणेष तो किसी में हनुमान होली खेलते दिखाई देते हैं। कहीं कहीं विरक्त शिव को भी अपने डमरू पार्वती नंदी व भूत प्रेतों के साथ होली खेलने का प्रसंग है कृष्ण की होलियां बहुतायत से गयी जाती हैं । कुछ होलियाँ इस प्रकार हैं जो महिला व पुरुषो द्वारा गाई जाती हैं।
मत ढूँढो नन्द को लाल प्यारे मोहनियाँ ——–
किथ वन ढूँढू जाय राधे तेरो कनहया —-
नित यमुना के तीर
खेलें कानहया कानहया
कसं मारून कंससुर मारू
त्वे संग खेलऊ धुमार, प्यारे मोहनियाँ
ठाड़ी रौ ठड़ी रौ गूजरी गोपाला रे, दहिया तुमरो खट्टों लागत है,
मीठों तुमरो बोल प्यारे मोहनियाँ, दधि —-
सखी रास रचो वृंदावन में ——-
मथुरा से होली आई —-
वस्तुतः इन गीतों में सार्वजनिक अह्लाद् की भावना दिखाई देती है। कुछ पुरानी होलियो में स्वदेशी चीजों के प्रसार व विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का प्रसंग भी दिखाई देता है। शायद इस तरह की होलियां स्वदेशी आन्दोलन के समय बनाई गई होंगी। इन गीतों में से एक गीत में तकली से प्रत्येक घर में होली खेलते हुये नाचने को कहा गया है जिसका आशय पारस्परिक प्रेम व सदबुद्धि का संदेश देना है। यथा
होलि खेलि रे कतुआ घर घर में.
नाचि जा रे कतुआ घर घर में.
बाल गोपाल युवक बुड़ खुड़ का और नारिन का कर कर में.
होलि……..
कोरोना महामारी के समय में कुछ महिलाओं ने कोरोना के प्रति लोगों को जागरूक करने व सावधानियां बरतने के प्रसंग पर भी होलियो का निर्माण किया इनमें महामारी के समय मास्क का उपयोग सेनिटाइजर का प्रयोग एवं हाथों को बार बार धोने के लाभों से भी जनमानस को अवगत करवाया गया है। आज ठेठ कुमाऊॅंनी होलियां कम ही मिलती है जो हैं भी वो सूदूरवर्ती गांवों में उपलब्ध हैं जिनमें स्थानीय प्रसंग आते हैं परन्तु यहां पर बहुतायत से ब्रजभाषा की होलियों ही गाई व सुनाई जाती हैं।
चंपावत के अधिकांश क्षेत्रों में होली के रंगारंग कार्यक्रम भी होते हैं जिनमे महिलाएं अपनी टोली के साथ अपनी प्रस्तुति देती हैं। इस अवसर पर होली गायन के दौरान विभिन्न स्वांग भी किए जाते हैं जो सभी को आनंदित करते हैं । परंतु यह भी देखने में आया है कि कुमाऊं के कुछ गावों में होली नहीं मनाई जाती । कई गांवों में होली मनाने का रिवाज नहीं है। इसके पीछे कुछ कहानियाँ व मान्यताएँ प्रचलित हैं जिसमें एक मान्यता तो यह है कि जब होली मनाने के लिए मथुरा से चीर लाई जा रही थी तो वह रास्ते में चोरी हो गई. दूसरी मान्यता यह है कि जिन गांव में सातों आठों का पर्व मनाया जाता है उन गांव में होली नहीं मनाई जाती (यह पिथौरागढ़ के डिडिहाट क्षेत्र से संबन्धित है)। कभी कभी किसी परिवार में होली के दिन यदि किसी की असामयिक मृत्यु हो जाती है उस घर के लोग भी होली नहीं मनाते।
शिक्षा व सांस्कृतिक की वाहकः होली का यह परम्परागत पर्व शैक्षिक व सांस्कृतिक रूप से बहुत धनी है। यह पर्व अपनी संस्कृति व पारम्परिक विरासत को आने वाली पीड़़ी को हस्तांतरित करने का सशक्त माध्यम है इस पर्व के माध्यम से मानव में उन सभी गुणो का संचार किया जा सकता है जो एक शिक्षित समाज हेतु आवश्यक होते हैं। संस्कृति का संरक्षण व उसका हस्तान्तरण भाईचारा सद्भाव स्नेह प्रेम सहयोग नेतृत्व समायोजन प्रकृति संरक्षण मौसम की जानकारी आदि कुछ ऐसे शैक्षिक आचार हैं जो व्यक्ति के शैक्षिक व मानसिक विकास हेतु आवश्यक होते हैं। वास्तव में सांस्कृतिक पर्वों के शैक्षिक महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता। शारीरिक व मानसिक विकास का पोषण करने में ये सास्कृतिक पर्व सक्षम हैं। इनमें इस प्रकार की शिक्षा है जो मानव में स्वमेव विकसित हो जाती है उसके लिये किसी विद्यालय की आवश्यकता नहीं होती। लोकजीवन के परिचायक ये पर्व मानव के हृदय के निकटतम होते हैं। इनका निर्माण किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं होता। ये सामूहिक क्रियाकलाप होते हैं जिनके अपने नियम व सिद्धान्त होते हैं। वास्तव में ये पर्व लोक परम्परा के वाहक हैं। यह भी देखने में आया है कि सांस्कृतिक दृष्टि से स्थान विशेष की कुछ विशिष्टायें भी इन पर्वोमें समाहित हो जाती हैं। वस्तुतः ये पर्व साधारण जन के पर्व होते हैं जिनमें समाज का संयुक्त योगदान समाहित होता है।
रंगों का यह त्यौहार हर्ष व उल्लास का त्योहार है। इसमें आनंद व हर्षोल्लास अपनी चरमसीमा पर होता है। परन्तु कुछ लोगों ने भांग चरस गांजा शराब से इस त्यौहार को विकृत कर दिया है जो इसका नकारात्मक पहलू है। परंतु फिर भी यदि इसके अच्छे पहलू को देखा जाए तो यह त्यौहार आनन्द उल्लास आपसी एकता
शैक्षिक,सांस्कृतिक सद्भाव व सहयोग से भरपूर है जिसमें हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा दृष्टिगोचर होती है। आइए चलें हम मंगलकामना करें कि यह त्यौहार हमारे जीवन में भरपूर खुशी व हर्षोल्लास लाने वाला बने।
One Comment
sirkcpandey@gmail.com
nice