विजया सती
जीवन गतिमान भी है और परिवर्तन शील भी. क्षण क्षण नवता को प्राप्त करना ही रमणीय होना है – इस सत्य से इनकार किसे है? लीक पर वे चलें जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं … पुराणमित्येव न साधु सर्वम .. असहमति इससे कतई नहीं होगी !
किन्तु नवता का अर्थ कुछ ऐसा अपनाना तो नहीं है जिसके विषय में आपको सिरे से जानकारी नहीं है. एक भेड़ चाल में सब .. मनाने लगे – वेलेंटाइन डे ! कभी दोस्ती का दिन, मां, पिता, बहन, भाई, पुत्री सभी को एक-एक दिन दे डाला है ..सम्बन्ध क्या एक दिनी होते हैं ?
नवता का विपरीत अर्थ यह भी नहीं है कि हम आंख मूंद, जाने-समझे बिना वह करते चले जाएं जो चला आ रहा है.
समझ की भूमिका को केंद्र में रखने का प्रयास तो कर सकते हैं ?
हमारे महत्वपूर्ण त्योहार गति और परिवर्तन की जकड़ में तो आ चुके. अब हम इन्हें थामकर कितना बचा पाते हैं – यह केवल सोचने की नहीं, कर दिखाने की बात होगी.
दशहरे को केवल लंका-दहन, रावण-मेघनाथ-कुम्भकरण के पुतलों के दहन की भीड़ भरी प्रदर्शनी ही क्यों बनाया जाए? खेल- तमाशे-आतिशबाजी -दुकानदारी का जमघट ही क्यों रहने दिया जाए ?
बहुत साल पहले धर्मयुग पत्रिका में कैफ़ी आज़मी ने अपना बचपन लिखा था..हर दिल में है ईद की खुशी!
पिछली पीढ़ी में सभी के दिल में बचपन की दशहरा-दिवाली की खुशी यूं ही बिराजती होगी !
चांदनी चौक में खादी भण्डार के साथ सटी विख्यात दुकान की सीढ़ियों पर बैठकर रामलीला की झांकियां देखने की स्मृति आज तक मन में हैं – ऋषि-मुनियों के जटा-जूट और चंवर मन में विस्मय जगाते, हनुमान की गदा की हलचल गुदगुदाती और राम- सीता- लक्ष्मण की रमणीय छवि देखते ही रह जाते ! उस समय की कोई याद ऐसी नहीं जो जनसमूह के बुरे बर्ताव से जुड़ी हो. कभी मन में यह विचार आया ही नहीं कि हम लडकियां इतने लोगों के बीच बैठी हैं.
दिल्ली में हमारे बचपन की दिवाली फतेहपुरी, चांदनी चौक से आरम्भ होती. हम झोले संभाल कर तैयार हो जाते, बाबूजी का हाथ पकड़ चल देते. बताशे वाली गली थी वहां. बताशे, खिलौने, खील और पेठे की मिठाई ही हमारी खरीदारी होती !
दिवाली के दिन ..घर में मां के हाथ से सिली, खादी की सुंदर फूलों वाली फ्रॉक पहनना, शाम को सरसों के तेल के दियों की झिलमिल और कुछ मोमबत्तियों की रंगीनी में बहुत-बहुत कम फुलझड़ियों को गोल घुमाकर खुश हो लेने तक ही थी हमारी पहुँच !
ये बिजली की मालाओं का बबाल कहां था तब !
महीने भर तक दूध में मिला कर खीलें खाने का सुख था.
बचपन की दिवाली में खुशियों का कोई सिरा कहां था …
इतनी सादा दिवाली के बाद मिली – कालाढूंगी कस्बे में – साल भर के त्योहार के रूप में दिवाली.
कालाढूंगी में सब कुछ ठेठ पहाड़ी अंदाज़ में होता – ओखल की सफाई, घर-द्वार-देहरी पर गेरू का लेप, बिस्वार का कटोरा संभाले एक सिरे से ऐंपण, बाहर से भीतर मंदिर तक लक्ष्मी जी के पांव, बेल-बूटे-चौकी और कागज़ के पीले, लाल, हरे बंदनवार!
दोपहर तीन बजे से गन्ने की लक्ष्मी बनाने का जिम्मा बाबू-इजा संभाल लेते. खील-बताशे-खिलौने से भरे बड़े-बड़े झोले मंदिर में विराजते, बच्चों के लिए कोहड़ी में खीलें भर कर ऊपर से खिलौने सजाए जाते. बड़े, पुए, पूरी, साग सभी की तैयारियां अलग. लक्ष्मी पूजा का शुभ मुहूर्त बार-बार बखाना जाता – पूरा परिवार मिलकर आरती गाता, प्रसाद पात़ा.. उधर गैस पर पकवानों के लिए कढ़ाई चढ़ जाती.
कालाढूंगी में कई दिन पहले से जुआ चलता. घर के ठीक सामने बाज़ार की सड़कों पर इक्का-दुक्का टुन्न शराबी दिख जाते. तब भी बम-पटाखों का शोर कम ही था.
कितना बदल गया इंसान की तर्ज़ पर – कितना तो बदल गया है त्योहार ! यह हमने हल्द्वानी शहर की गृहस्थी में मिली अति-अति व्यस्त बल्कि अस्त-व्यस्त बना जाने वाली दिवाली में पाया.
सारे शहर में बिजली की मालाओं की मारा-मारी ने हमारे दीयों पर रौब जमा लिया.
ऐंपण के स्थान पर चिपक कर फर्श को गंदा-काला कर देने वाले कागज़ी ऐंपणों की बहार आ गई – नए डिज़ायन, बेल बूटे, बसंत धारा भी टपकी-टपकाई.
दिवाली बेहिसाब आवाजाही का एक रेला हो गई – इसे-उसे-किसे जाने क्या-क्या भेंट-उपहार देने हैं. सड़कों पर यातायात की अव्यवस्था – बर्तन बाज़ार में तिल धरने को जगह नहीं – गन्ने और गेंदे की मालाओं के दाम आसमान पर – और रात को सड़क पर बमों की अंतहीन लड़ी बिछकर – कानफोडू ध्वनि प्रदूषण – रही-सही कसर पूरी करने को आतिशबाजी-अनार-चकरी का वायु प्रदूषण !
मुझे याद है हंगरी में हिन्दी विभाग होली-दिवाली पर आयोजन करते थे. क्यों मनाई जाती है दिवाली से लेकर कैसे मनाई जाती है तक – विद्यार्थियों को बताया जाता. लक्ष्मी के स्वागत की बात करते हुए हम उन्हें हाथ से पदचिन्ह बनाने की रीति बताते. अपने साथ ले जाए गए कागज़ी- प्लास्टिकी ऐंपण वाले लक्ष्मी जी के पाँव एक बार हमने सबको भेंट किए. प्रत्येक विद्यार्थी उन्हें आदर सहित अपने घर ले जाना चाहता था यह मानकर कि सचमुच लक्ष्मी इनपर चलते हुए उनके घर आएगी !
क्या अब भी बचा है यह सरल विश्वास ?
वर्ष भर के त्योहारों में मैंने हमेशा से दिवाली को बेतहाशा चाहा. इसके आने की प्रतीक्षा की, इसे खुशियों, मिठाइयों और सब कुछ सुन्दर के साथ जोड़ कर देखा.
बचपन में दिल्ली की दिवाली का मिजाज अलग था – कालाढूंगी-हल्द्वानी की गृहस्थी में रीति- रिवाजों के ताम-झाम और रूढ़ विश्वासों का पहरा था.
और आज का समय तो जैसे इस गीत की याद दिलाता है – कोई कैसे उन्हें ये समझाए …
एक आपाधापी जिसने जीवन से चैन को निगल लिया है. एक बाहरी बेतरतीब धुन जिसने भीतर के संगीत को बेसुरा कर डाला है !
आज के बाज़ार की टीम-टाम कितना दूर ले आई है हमें नैसर्गिक सौन्दर्य से, त्योहार में अपनों के संग-साथ से !
सब कुछ एक तेजी में है, एक हड़बड़ी, एक बैचैनी जिसने त्योहार का रूप बिगाड़ दिया है. कनेर-गेंदे की बन्दनवार के स्थान पर, रंगीन रोशनियों की क्रीड़ा है. बाज़ार पटा पड़ा है .. यहाँ हर चीज़ मिलती है .. तुम क्या-क्या खरीदोगे ?
मन की समग्र व्याकुलता के साथ..इतनी खामियों, बेतरतीबी, अस्त- व्यस्तता के बावजूद आखिरकार ..दिवाई साल भरि त्योहर छू …तो
हर दिल में हर पल रहे खुशी, इसी कामना के साथ : शुभ दीपावली !