केशव भटृ
21 सितंबर 2014 को रविवार का वो दिन मेरे सांथ ही नागरिक मंच के सांथियों के लिए काफी चहल—पहल भरा था. साल में सितंबर के बाद महिने में किसी रविवार को मंच, अपने—अपने क्षेत्र में समाज के लिए निस्वार्थ भाव से काम करने वालों को सम्मानित करता है.
इस बार प्रखर सामाजिक कार्यकर्त्ता, चिन्तक और साहित्यकार त्रेपन सिंह चौहान के सांथ ही यूपी कैडर के आईपीएस और संवेदनशील साहित्यकार विकास नारायण राय के अलावा प्रसिद्व आंदोलनकारी और पत्रकार शमशेर बिष्टजी को बागेश्वर में नागरिक मंच ने बुलावा भेजा था, और वो अपने सांथ किताबों की चलती—फिरती गाड़ी को सांथ लेकर खुशी—खुशी बागेश्वर पहुंच भी गए. प्रकटेश्वर मंदिर के सभागार में कुछेक टेबलों में त्रेपन भाई और विकासजी के साहित्यिक किताबों का जखीरा लगा तो लोग उन पर टूट से पड़े. त्रेपनदा इस बात पर बहुत खुश थे कि यहां के लोगों में पढ़ने की ललक बहुत है. घंटेभर में ही आधा स्टाल खाली हो चुका था.
मंच ने अपने क्रियाकलापों के बारे में बताया तो सभी मेहमान इस बात पर बहुत खुश हुए कि अन्याय के खिलाफ मशालें हर जगहों पर जल रही हैं. त्रेपनदा ने उत्तराखंड के हालातों के बहाने अपने आग उगलते उपन्यास, ‘यमुना’ और ‘हे ब्वारी’ पर विस्तार से उत्तराखण्ड की दशा-दिशा और साहित्य पर चर्चा करनी शुरू की तो हॉल में गहरी खामोशी सी छा गई थी. सामाजिक—राजनैतिक सत्ता के अन्याय के विरुद्ध आन्दोलित रहने वाले त्रेपनदा को हर कोई चुपचाप उनके मनोभावों को आत्मसात कर जान—समझ रहा था कि इस शख्स के दिल में अन्याय और भ्रष्टाचार के खिलाफ कितनी ज्वाला भरी पड़ी है.
कार्यक्रम के बाद में जब उनसे मिलना हुवा तो वो सीधे गले ही मिल गए. उनसे गले मिलने का एहसास आज तक भी छपछपी का सा एहसास कराते रहता है.उत्तराखंड राज्य के लिए हुए आंदोलन और उनके हस्र पर उन्होंने अपनी टीस, ‘यमुना’ और ‘हे! ‘ब्वारी’ में व्यक्त कर दी थी. लेकिन वो रूके नहीं और चार साल पहले से बीमारी से जूझने के बाद भी अभी वो आगे भी लिखने में जुटे पड़े थे. ‘मोटर न्यूराॅन’ बीमारी से त्रेपन चौहान उभर ही रहे थे कि 25 मार्च, 2018 को चमियाला में अपने घर पर गिरने से सिर की चोट ने उन्हें फिर से बीमार कर दिया. हाथों से टाइप करना मुश्किल हुवा तो वो बोल के टाइप करने लगे. बाद में जब आवाज ने भी साथ देना छोड़ दिया तो वो आंखों की पलकों के इशारे से अपने लैपटॉप पर टाइप करने में जुटे रहे.
माना कि संसार से जाना नियति है और त्रेपनदा भी चले ही गए, लेकिन त्रेपनदा का इतनी जल्दी इस तरह से चले जाना अंदर तक एक गहरी खरोंच सी दे गई है जिसकी भरपाई में वक्त तो लगेगा ही..