कमलेश उप्रेती
कोरोना काल में उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में हुए रिवर्स पलायन को जहां आशा की नज़र से देखा जा रहा है वहीं इसके एक और पहलू पर भी गौर करने की जरूरत है.
आजकल गांवों में बड़ी तादात में युवा जो मैदानों में छोटे मोटे काम करते थे वापस अपने पहाड़ी मूल गांवों में आ गए हैं. उम्मीद के अनुसार कइयों ने खेती बाड़ी के कामों के हाथ बटाना शुरू कर दिया है जो कि एक अच्छी बात है. मगर इस तरह की बातें भी लगभग अधिकांश गांवों में रहने वाले मित्रों और परिचितों से पता चल रही है कि गांवों में युवा अब रोज बकरे, मुर्गे कच्ची शराब की पार्टियां लगातार कर रहे हैं. और तो और जंगली घूरड़ काकड़ बनमुर्गी जो मिल जाए सफाचट कर रहे हैं, नदियों में मछलियां ख़तम कर दी हैं. गांव गांव जहां पक्की नहीं कच्ची शराब बननी शुरू हो गई है. यह बेहद चिंताजनक स्थिति है. प्रकृति के इस नृशंस दोहन के परिणमस्वरूप तो दुनिया में ऐसी तबाही मची है और हम अपने ही पहाड़ के वन्य जीवों को नष्ट करने पर तुले हुए हैं. युवा साथियों आप पहाड़ से बाहर अच्छी जिंदगी के सपने लेकर गए थे आप किस कदर सफल हो सके इसका मूल्यांकन कीजिए कि जो नौकरी आपको चालीस दिन के लॉकडाउन में नहीं पाल सकी उसे करने के लिए आप मर खप रहे हो. विपत्ति के समय आपको पहाड़ और गांव ही याद आए वही आपकी रक्षा कर रहे हैं, ये जंगल जल जमीन हवा वन्यजीव सभी आपको महफूज रखने के लिए है न कि आपकी हवस मिटाने के लिए.
आप संकट से बचने को लौटे हैं यहां के वन्य जीवन को संकट में मत डालिए इससे आपको दीर्घकालीन नुकसान ही होगा फिर आप भविष्य के संकट में लौट कर किधर जाएंगे. क्योंकि तब पहाड़ तो होगा तुम्हारी मौज के लिए ये निरीह जानवर न होंगे.
क्या तुम समझोगे मेरे युवा मित्र. तुम लौट आए हो खुशी है मगर इन पार्टियों, शराब शिकार की दावतों के लिए नहीं पहाड़ को फिर से पहाड़ बनाने को लौटे हो तो ही तुम पहाड़ के बेटे हो वरना तुम भी नालायक ही हो जिन्हें बस पेट भरने से मतलब है.