भूपेन सिंह
जन्म के आधार पर
किसी को मिली विशिष्टता पर
सवाल उठाया ही जा सकता है
पाकिस्तान में पैदा हुए कि हिंदुस्तान में
ब्राह्मण में हुए कि शूद्र में
साहब के घर हुए कि नौकर के
एक असमान दुनिया में
ये सब याद रखा जाता है
लेकिन इतना बोध बचा रहे कि
हम विनम्रता से स्वीकार कर पाएं
कौन, कहां पैदा होगा ये किसी के वश में नहीं
वैसे तो हर किसी को मिलती है
कोई न कोई विशिष्टता
ये हमारे ईमान का मसला है
कि हम दी गई पहचान को तोड़कर
रिश्तों का एक लोकतंत्र बनाने की कोशिश करें
वो जहां पैदा हुआ
उससे जुड़ी कहानियां करती रहेंगी पीछा
इस महादेश में विशिष्ट और साधारण के बीच का फ़ासला
स्मृतियों, मिथकों और संस्कृति की पतनशील गाथाओं से जुड़ता है
लेकिन जब मौत बांटने वालों से युद्ध लड़ना ज़रूरी हो जाए
और ज़िंदगी-मौत का फ़ासला मिटने लगे तो
हर विशिष्टता ख़ुद-ब-ख़ुद मिट्टी में मिल जाती है
युद्ध की शुरुआत में
“चाय बेचने को” बेचने वालों ने
उसकी विशिष्टता पर निशाना साधते हुए
कभी उसे युवराज पुकारा
तो कभी ज़बरदस्ती नाम बदलकर पप्पू बना दिया
वो अरबों रुपये के दुष्प्रचार के बीच कहता रहा कि
मैं नागरिक हूं इस देश का-लोग हंसते रहे
दरअसल उसको दिये गये संबोधन रचनात्मक व्यंग्य नहीं थे
इसके पीछे था सत्ता पर कब्ज़े का गणित
क्योंकि कोई माने न माने
अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद वो बना हुआ था
नफ़रत के कारोबारियों के जी का सबसे बड़ा जंजाल
ये इस भूभाग में लोकतंत्र की नाकामी है कि
राजनीति पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवारों के आसपास घूमती है
लेकिन ये भी तो कोई तर्क नहीं कि किसी परिवार में पैदा होने से
किसी के काम चुनने की आज़ादी छीन ली जाए
उसकी पार्टी का इतिहास हमारी आज़ादी से जुड़ता है
लेकिन वहां भी रहे हैं कई बहुरूपये
अभी बहुत वक़्त नहीं बीता
जब अहंकार में चूर पुलिस के एक मंत्री ने
नये भारत का सपना देखने वाले
मेरे एक दोस्त को फर्जी मुठभेड़ में मरवा दिया था
अच्छा हुआ कि जेल की हवा खाकर अब उसकी हेकड़ी निकल गई
और वो मुनाफ़ाख़ोर अख़बारों में लोकतंत्र बचाने के लेख लिखता है
ऐसे में मुझे याद आता है कि अगर उसने
ज़हरखुरानों पर तब ही शिकंजा कस दिया होता
तो आज उनकी हिम्मत इतनी नहीं बढ़ी होती
मैं उसकी पार्टी के ख़िलाफ़ सोचता था
तब अच्छे दिन का वादा करने वाले ठग का राज नहीं आया था
लेकिन मुझ जैसों को भी अब लगने लगा है
कि वे दिन इनसे हज़ार गुना अच्छे थे
जब सच बोलने से पूरा देश डर रहा हो
वो दो-चार बातें बिल्कुल पते की बोल रहा है
और उसका खामियाज़ा भुगत रहा है
क्या वो भविष्य में याद रखेगा कि
बोलने की आज़ादी छीनने से लोकतंत्र मर जाता है
बेलगाम सेठ जनता की गाढ़ी कमाई लूट लेते हैं
ताक़त शासक का दिमाग़ ख़राब कर सकती है