विनीता यशस्वी
गेठीगड़ा में हम वहाँ की ग्रामप्रधान देवकी गुवाड़ी से मिलने गये। हमें काफी इंतजार करना पड़ा, क्योंकि वे घास के लिये जंगल गयी थीं। लौट कर उन्होंने जानवरों को चारा दिया, दूध दुहा और इसी तरह के जरूरी काम निपटाने के बाद वे हमारे पास बैठ पायीं। देवकी गुवाड़ी अपने गांव की समस्याओं को लेकर काफी सजग हैं। हालांकि उनके पति भी उनके काम दखलंदाजी करते हैं। देवकी गुवाड़ी स्वीकार करती हैं कि ग्राम प्रधान बनने के बाद उनका आत्मविश्वास बढ़़ा है। अब अधिकारियों से बातचीत करने में उन्हें घबराहट नहीं होती।
देवकी के अनुसार उनके गांव से पलायन कम हुआ है। लोग बाहर जाना नहीं चाहते। गाँव में सुविधायें पर्याप्त हैं, गाँव सड़क मार्ग से जुड़ा है और झूलाघाट बाजार भी नजदीक ही है। आपात स्थितियों में वहाँ पहुँचना मुश्किल नहीं होता है।
अब तक अंधेरा पूरी तरह घिर गया था। हमारी बातचीत के दौरान ही वे दुकानदार आ गये और उन्होंने अपनी गाड़ी से हमें झूलाघाट छोड़ दिया। 15-20 मिनट में हम झूलाघाट पहुँच गये। यहाँ हमारे रहने की व्यवस्था शंकर खड़ायत जी ने पी.डब्ल्यू.डी. रेस्ट हाउस में की थी। हम वहीं चले गये।
शंकर सिंह खड़ायत ने बताया कि उन्होंने ‘काली की आवाज’ नाम से वैबसाइट शुरू की और देखते ही देखते लोगों का इसमें जुड़ना शुरू हो गया। इस वैबसाइट के माध्यम से उन्होंने पंचेश्वर बांध के बारे में जनमत बनाने की कोशिश की। हालांकि खड़ायत कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि वे इस वैबसाइट को कितने समय तक जारी रख पायेंगे। परन्तु लोगों का जुड़ाव देख कर उत्साह बढ़ता है।
शंकर जी से बात करके हम लोग खाना खाने गये। देर काफी हो चुकी थी और बाजार लगभग बंद होने को था। मगर एक रेस्टोरेंट में ठीक-ठाक खाना मिल गया, हालांकि सब्जी में मिर्च बहुत ज्यादा थी। कमरे में लौट कर हमने अभी तक की यात्रा की छोटी सी समीक्षा की और आगे की यात्रा का खाका तैयार किया।
सुबह हम जल्दी ही झूलाघाट पुल और उससे लगे नेपाल वाले हिस्से को देखने गये। इस समय बाजार में थोड़ी-बहुत ही हलचल है। झूलापुल के पास बने मंदिर में कुछ समय बिताया। नेपाल जाने के लिये हमें सुरक्षा नियमों का पालन करना पड़ा और कैमरा ले जाने की इजाजत हमें नहीं दी गयी। झूलाघाट से लगा बाजार बहुत छोटा है पर यहाँ गहमागहमी बहुत है। लोग खरीद-फरोख्त में व्यस्त रहते हैं। यहीं पप्पू की दुकान है, जो रहते भारत में हैं पर व्यापार नेपाल में करते हैं। उनका कहना था कि बांध बनने से उनका व्यापार बुरी तरह प्रभावित होगा। यहाँ तो जमा हुआ काम है, मगर नई जगह में नये सिरे से व्यापार जमाना बहुत कठिन काम है।
नेपाल से वापस लौटने तक झूलाघाट में भी हलचल बढ़ गयी थी। बाजार खुलने लगा था। जिस रैस्टोरेंट में हमने रात को खाना खाया था, वहीं हमने नाश्ता भी कर लिया।
झूलाघाट के ग्राम प्रधान सुरेन्द्र आर्या हमसे मिलने आ गये। उन्होंने बताया कि इस इलाके में चाइल्ड ट्रेफिकिंग बहुत ज्यादा है। ज्यादातर इसकी शिकार लड़कियाँ होती हैं। सुरेन्द्र ने बताया कि वे इसे रोकने के पूरे प्रयास करते हैं। अभी तक उन्होंने कई बच्चों को इस दलदल से निकाल के उनके घरों तक पहुंचाया है। सुरेन्द्र के अनुसार झूलाघाट के लगभग 70 प्रतिशत लोग बांध बनने के पक्ष में हैं। इसका कारण वे बताते हैं कि यहाँ के ज्यादातर व्यापारी बाहर से आकर यहाँ कारोबार कर रहे हैं, इसलिये बांध बनने या न बनने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वे बताते हैं कि झूलाघाट पुल का उन लोगों के जीवन में बहुत महत्व है, क्योंकि अगर पुल बंद हुआ तो उन लोगों का जीवन भी रुक जाता है। ‘‘हमें भारत बंद से फर्क नहीं पड़ता, पर पुल के बंद होने से फर्क पड़ता है,’’ वे कहते हैं।
कानड़ी गांव तक जाने के लिये हमें एक टैक्सी मिल गयी।
कानड़ी में हम ग्राम प्रधान लक्ष्मण सिंह के घर चले गये। उनके साथ उनकी 90 वर्षीय दादी तुलसी देवी भी रहती हैं। वे काफी उम्रदराज हैं। वे ज्यादा बातचीत नहीं करतीं, बस चुपचाप कुर्सी में बैठी रहती हैं। यहाँ ग्रामीणों की मांग है कि बंदोबस्त के बारे में एक बार फिर से सोचा जाना चाहिये। इस गांव में बंदोबस्त वाली जमीन बहुत ज्यादा है और ऐसे लोग भी बहुत हैं जो दूसरों की जमीन पर खेती करके अपना जीवनयापन कर रहे हैं। जब मुआवजा मिलेगा तो दूसरों की जमीन पर खेती करने वाले इन लोगों का क्या होगा ? लक्ष्मण जी चाहते हैं कि सरकार को ऐसे उन लोगों के बारे में भी सोचना चाहिये।
इसी गाँव के मोहन राम अरुणाचल पुलिस से रिटायर हुए हैं। वे भी कहते हैं कि हमारे गाँव में गरीब लोग भी अपनी गुजर-बसर आसानी से कर सकते हैं। पर उन लोगों का क्या जो भूमिहीन हैं ? जो अब तक दूसरों की जमीन पर खेती करते आ रहे हैं ? हमारे पुरखे लगभग 200 सालों पहले यहाँ आ गये थे। तब से हम दूसरों की जमीनों पर खेती करते आ रहे हैं। हर भूमिहीन परिवार के पास भी लगभग 20 नाली जमीन है, जिस पर खेती कर वह अपने लायक अनाज तो पैदा कर ही लेता है। थोड़ा दूध और सब्जी झूलाघाट बाजार में बेच लेता है। जब हमारे पास कुछ बचेगा ही नहीं तो हम कहाँ जायेंगे ? मोहन राम जी भी बंदोबस्त की जरूरत बतलाते हैं।
कानड़ी गाँव में एक प्राइमरी स्कूल है और आंगनबाड़ी है। इंटर कॉलेज झूलाघाट में ही है। यहाँ के लोगों की नेपाल में रिश्तेदारी है। ये लोग भी पूजा करने नेपाल जाते हैं और नेपाल वाले यहाँ आते हैं।
हमारी अगली मंजिल बलतड़ी है।
आज हमें चलना बहुत पड़ा, परन्तु रास्ते में ज्यादा गाँव नहीं मिले। काली हमारे साथ लगातार बनी हुई है। उस पार नेपाल के छोटे-छोटे गाँव दिखायी दे रहे हैं। आज का रास्ता थोड़ा उजाड़ सा भी है। जिस रास्ते हम जा रहे हैं, वह सड़क ही है पर अभी इस पर डामर नहीं हुआ है। बलतड़ी गांव पहुँचने में अभी काफी देर है। हम लोग गर्मी से बेहाल भी होने लगे हैं।
लगभग 3 घंटे लग गये बलतड़ी गाँव पहुँचने में। सुस्ताने के लिये हम एक घर के आंगन में बैठने लगे। कुछ पुरुष हैं, जो इन दिनों नवरात्रि की पूजा की तैयारी कर रहे हैं। एक पुरुष ने हमारे ऊपर पानी छिड़का और बोले- तुम औरतें अशुद्ध थीं, अब जल छिड़कने के बाद शुद्ध हो गयी हो। उसके बाद ही उन्होंने हमें आंगन में बैठने दिया।
इन लोगों की भी वही शिकायतें थीं कि सरकार यहां विकास नहीं कर रही है। सड़क, स्कूल और अस्पताल की हमें सख्त जरूरत है। बांध के बारे में इनकी स्पष्ट राय है कि हमें अच्छा मुआवजा मिलना चाहिये और विस्थापन के बाद हमारे रहने के अच्छे इंतजाम होने चाहिये। अगर हमें ठीक मुआवजा नहीं मिला तो हम यहां से नहीं हटेंगे। ग्राम प्रधान गोपी राम जी का घर का करीब ही था। हम उनसे मिलने चले गये। उन्होंने बतलाया कि मैंने अभी एन.ओ.सी. पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। गाँव वालों ने एकमत से निर्णय किया है कि जब तक हमारी मांगें पूरी नहीं हो जातीं, हम हस्ताक्षर नहीं करेंगे।
प्रधान जी ने सूचना दी कि उनके यहाँ मनरेगा का कोई काम नहीं हो रहा है। सरकार हमें अनदेखा कर रही है। उनके अनुसार गाँव से पलायन बहुत हुआ है। लगभग 500 परिवारों में से अब मात्र 80-90 परिवार ज्यादातर लोग खटीमा और पिथौरागढ़ की ओर चले गये हैं। परिवारों में भी रहने वालों की संख्या कम ही है क्योंकि यहाँ से ज्यादातर लोग फौज की नौकरी में हैं और बाहर ही रहते हैं। गाँव तो कभी-कभार पूजा के लिये ही आते हैं। इन लोगों के भी देवता नेपाल में हैं और ये लोग पूजा देने नेपाल जाते हैं। नागार्जुन इनके देवता हैं, जिनके मंदिर में शादीशुदा महिलायें नहीं जा सकतीं।
इसके बाद हमें पीपलतड़ा गाँव जाना था। यहाँ भी पैदल चलना बहुत था, मगर रास्ता पेड़ों से घिरा होने के कारण सफर उबाऊ नहीं हुआ। रास्ते भरे ढेरों कच्चे आम बिखरे पड़े थे और बेहिसाब रीठा भी। जिन चीजों को हम बाजार से इतनी कीमत देकर खरीदते हैं, वे यहाँ यूँ ही बर्बाद हो रही हैं। लोग कहते हैं कि इन्हें बाजार तक पहुँचाना और बेचना हमें और भी ज्यादा महंगा पड़ता है।
पीपलतड़ा गाँव में एक सज्जन टहलते हुए दिखायी दे गये। उनसे खड़े-खड़े ही बात की। उन्होंने बताया कि इस गाँव से भी बहुत अधिक पलायन हुआ है। गांव में अब मात्र 7 परिवार ही रह गये हैं। 15 परिवार बाहर जा चुके हैं। उनकी राय में बांध बनने से उनका विकास नहीं होगा। उनका विकास तो तभी होगा जब यहाँ सड़क बन जायेगी। इस गांव के लोग नेपाली मूल के ब्राह्मण हैं, जो कई पीढ़ियों पहले यहाँ आकर बस गये। पूजा के लिये इन लोगों का नेपाल आना-जाना बना रहता है।
थोड़ा आगे बढ़े तो सर पर लकड़ियों का गट्ठर लाती एक बुजुर्ग महिला मिलीं। वे अपने घर में अकेली हैं। बच्चे उनको यहाँ अकेला छोड़ कर बाहर चले गये हैं। उन्हें चूल्हा जलाने के लिये लकड़ी लानी पड़ती है और खेत में जो थोड़ा-बहुत उगा पाती हैं, उसी से काम चलाना पड़ता है। हमसे बातें करते हुए वे रो पड़ीं।
हमें अब तड़े गाँव की ओर निकलना है। तड़े बहुत दूर नहीं है। पर अब शाम हो गयी है और वहाँ हमारे रहने का भी कोई इंतजाम नहीं हुआ है। इसलिये हमें गाँव पहुँचने की जल्दी है। एक संकरी सी पगडंडी से होते हुए हम आगे बढ़े। गाँव में हमें जो पहला घर मिला, वहीं पर हमने अपना सामान रख दिया और सुस्ताने लगे। हमें देख कर जिज्ञासावश कुछ लोग जुटे और फिर देखते ही देखते इस आंगन में लोगों का मजमा जम गया। जब हमने लोगों को बतलाया कि हम इन गाँवों को देखने और यहाँ के लोगों की परेशानियों को समझने आये हैं फिर क्या था ? सभी अपनी आपबीती सुनाने को आतुर हो गये।
जिनके आंगन में हम बैठे थे, उन्होंने हमें रात को रुकने के लिये भी इजाजत दे दी और हमें खाना खिलाने को भी खुशी-खुशी तैयार हो गये। यह घर सरस्वती देवी और सुरेश चंद का है। इनका पुत्र रोशन बहुत समझदार है। उसने अपने गाँव की सभी दिक्कतों को बड़ी समझदारी के साथ हमारे सामने रखा। रोशन और अन्य युवक पढ़ाई के लिये पिथौरागढ़ जाते हैं। ज्यादातर फौज में जाना चाहते हैं और उसी की तैयारी में जुटे हैं।
यहाँ के ग्रामीण बांध बनने की बात से चिन्तित हैं। उन्हें डर है कि अगर बांध बना तो सरकार उन्हें सुविधायें नहीं देगी और उन्हें उनकी जमीन से हटा कर फुटपाथ पर डाल देगी। वे अपने जानवरों को अपने साथ कैसे रख पायेंगे ? दूसरा ठिकाना यहाँ जितना अच्छा तो नहीं ही होगा। रोजगार के यहाँ कोई साधन मौजूद नहीं हैं। लोग काली नदी से मछली पकड़ कर उन्हें झूलाघाट, वड्डा या पिथौरागढ़ की बाजार में बेचा करते हैं। रोशन कहता है कि जिनकी अपनी जमीनें हैं, उन्हें तो मुआवजा मिल जायेगा। परन्तु दूसरों की जमीन पर खेती करने वालों का क्या होगा ?
यहाँ से भी लगभग 70-75 परिवार टनकपुर को पलायन कर गये हैं। पलायन के बहुत से कारण है। विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ है। बिजली है पर बहुत कम आती है और अगर कभी खराब हो गयी तो महीनों तक बिजली के बगैर रहना पड़ता है। सड़क नहीं है, अस्पताल नहीं है और स्कूल भी नहीं हैं। अब खेती भी लाभकारी नहीं रही। जंगली जानवर फसल को बेहद नुकसान पहुंचाते हैं। उन्हें मारना भी नहीं हुआ, इसलिये अब खेती कम हो गयी है। सिंचाई की भी समस्या है। ज्यादातर पानी की लाइन टूटी ही रहती है। काली नदी से भी पानी नहीं ले सकते। अपने खाने के लिये भी इन्हें थोड़ा-बहुत अनाज बाजार से खरीदना पड़ता है।
बेहद उदासी के साथ रोशन कहता है, मैं 20 साल का हो गया हूँ और पैदा होने से ही सुनता आ रहा हूँ कि सड़क बनेगी और विकास होगा। पर अभी तक तो न सड़क बनी और न ही विकास हुआ है। अगर कभी कोई बीमार पड़ा है तो उसे कंधे में रख कर ले जाना पड़ता है। वह कहता है कि नेताओं पर उसे कोई भरोसा नहीं रहा। आने वाले चुनावों में वह नोटा का इस्तेमाल करेगा। नेपाल की ओर इशारा करते हुए वह कहता है कि हमारे जैसा ही नेपाल का इलाका भी है, पर नेपाल ने अपने हर इलाके में सड़क पहुँचा दी है।
हमारी बातचीत चल ही रही थी कि सरस्वती देवी ने हमारे लिये बेहद स्वादिष्ट पल्यो-चावल बना दिया। परोसते समय उस पर घर का बना घी भी डाल दिया। भूखे होने के कारण हम पल्यो चावल पर टूट पडे़। लकड़ी की आँच में बना होने के कारण इसके स्वाद में भी इजाफा हो गया था। सभी ने थालियां चाट-चाट कर खाया। सोने जाने से पहले हमने अपने दवाइयों के किट में से कुछ दवाइयाँ रोशन को दे दीं, ताकि वक्त जरूरत वह गाँव वालों के काम आ सके।
हमारे रहने का इंतजाम दूसरे घर में था। दूसरी मंजिल में मिट्टी की फर्श वाले कमरे (चाख) में लाईन से हमारे बिस्तर लगो दिये गये थे। थकान के मारे हम लोग जल्दी ही सो गये।
(जारी है)
घुमक्कड़ी और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी नैनीताल समाचार की वैब पत्रिका ‘www.nainitalsamachar.org’ की वैब सम्पादक हैं।