हिमालयी भौगोलिक परिवेश में स्थानीय संसाधनों के उपयोग व आजीविका को लेकर सरकारें, योजनाकार तथा संवेदनशील नागरिक लगातार चिन्तित रहते हैं। खेती-किसानी से विमुख होकर मैदानी इलाकों में पलायन सबसे बड़ी समस्या बन गया है। इसका समाधान कैसे ढूँढा जाये, इसके लिये जगमोहन रावत जी और उनके बार्सू गांव के अनुभव मार्गदर्शक हो सकते हैं।
उत्तरकाशी जनपद के भटवाड़ी विकास खण्ड का एक गाँव है बार्सू। प्रकृति की नैसर्गिक सुन्दरता के बीच स्थित यह गांव उत्तरकाशी से तकरीबन 44 किमी. दूर है। गंगोत्री राजमार्ग में भटवाड़ी से कुछ ही आगे एक मोटर सड़क बार्सू गाँव को जाती है, जहां से 9 कि.मी. की दूरी तय करके इस गांव में आसानी से पहुंचा जा सकता है। समुद्र सतह से लगभग 4000 मी. की ऊंचाई पर पसरे द्यारा बुग्याल की तलहटी में बसे बार्सू गांव (2300मी) को प्रकृति ने सुन्दरता और संसाधनिक समृद्धता का उपहार दिल खोलकर दिया है। बार्सू गांव को भू-आकृति विज्ञान की नजर से देखें तो प्रथम दृष्टि में प्रतीत होता है कि यहां की भौगोलिक संरचना के निर्माण में स्थानीय छोटी-छोटी हिमानियों और जल धाराओं की भूमिका रही है। दीर्घकाल तक चली सतत् भौगोलिक प्रक्रिया के तहत हिमानियों द्वारा यहां मिट्टी और अन्य ठोस पदार्थाें का जमाव किया जाता रहा। इसी के परिणामस्वरूप बार्सू गांव की वर्तमान संरचना का निर्माण हुआ है। चारों ओर कैल, बांज, बुराँश व देवदार के जंगलों से घिरे 100 परिवारों व 500 के करीब जनसंख्या वाले इस गांव की समृद्धि की चर्चा आज की तारीख में हर किसी की जुबाँ पर है। देखा जाये तो बार्सू गांव पहाड़ के स्थानीय संसाधनों पर आधारित खेती, बागवानी, सब्जी उत्पादन, मत्स्य पालन, पषुपालन से लेकर पर्यटन अर्थव्यवस्था को सही दिशा प्रदान करने वाला एक जीता-जागता उदाहरण बन गया है।
बार्सू गांव को समृद्धि के शिखर पर ले जाने का भगीरथ प्रयास किया है जगमोहन सिंह रावत ने। मात्र सरकारी योजनाओं के भरोसे न रहते हुए अठावन वर्षीय जगमोहन सिंह ने अपने स्तर ईजाद की गयी तरकीबों के बूते और खुद के प्रयासों से यहां की खेती, बागवानी व पर्यटन व्यवसाय को जो नयी पहचान दी है, वह प्रेरणादायी है। बार्सू गांव के प्रधान से लेकर भटवाड़ी विकास खण्ड के ज्येष्ठ प्रमुख व जिला पंचायत उत्तरकाशी के सदस्य रह चुके जगमोहन रावत का साफ तौर पर मानना है कि यदि यहां के आदमी के अन्दर पहाड़ के प्रति जरा भी जुड़ाव हो तो वह सकारात्मक सोच, परिश्रम व लगन के बल पर यहां की मिट्टी में सोना भी उगा सकता है। प्रगतिशील विचारों और उन्नत तकनीक के साथ काश्तकारी पर नित नये प्रयोग करना जगमोहन सिंह जी का जुनून है। ऐसा नहीं कि वे सिर्फ आधुनिक कृषि के ही हिमायती हों, बल्कि परम्परा से चली आ रही खेती को भी वे उतना ही महत्व देते हैं।
बार्सू गांव में सेब की छिटपुट खेती पहले से होती आ रही थी। बागवानी का यह परम्परागत तरीका काश्तकारों के लिए आर्थिक रूप से अधिक फायदेमन्द नहीं था, क्योंकि सेब की पौंध को पूरी तरह फलदार पेड़ बनने में बहुत अधिक (तकरीबन 15 साल का) समय लगता था। अधिक उम्र के कारण सेब के पुराने पेड़ जब खत्म होने लगे तो देर से फल देने के कारण काश्तकारों ने यहां के बागानों में नये पेड़ों के रोपण में खास दिलचस्पी नहीं दिखायी। लिहाजा यहां के पुराने बगीचे धीरे-धीरे खत्म होने लगे, जिससे बागवानी चैपट होने की कगार पर पहंुच गयी। इस प्रवृत्ति से जगमोहन रावत चिन्तित थे। उद्यान विभाग के अनेक चक्कर काटने के बाद भी उन्हें खास सफलता नहीं मिल पायी। दस-बारह साल पहले जब वे एक बार हिमाचल प्रदेश गये तो वहां के बागानों से उन्हें इस समस्या का हल मिल गया। वहाँ उन्होंने देखा कि स्पर प्रजाति का सेब केवल पांच साल के अन्तराल में ही फल देना प्रारम्भ कर देता है, जिसके लिए आदर्श ऊंचाई, ढाल और मिट्टी तथा जलवायुगत विशेषतायें उनके इलाके में पर्याप्तता के साथ विद्यमान हंै। इन स्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने गांव लौटकर इस दिशा में प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया। अन्ततः उनकी मेहनत रंग लायी और वे स्पर प्रजाति सहित अन्य विश्व स्तरीय प्रजातियों यथा सुपरचीफ, रेड चीफ, आर्गन स्पर, स्पर टू, रेडब्लाॅक्स, जेरोमाइन, गेलगाला और क्रिम्सनगाला को यहां सफलतापूर्वक उगाने में सफल रहे। उनके इसी जुनून के चलते उनकी 150 नाली जमीन में आज करीब 2,000 से अधिक सेब के पेड़ लहलहा रहे हैं, जिनमें से अधिकांश पेड़ फल भी दे रहे हंै। जगमोहन रावत जी ने अपने स्तर पर सेब की इन प्रजातियों की एक नर्सरी भी बनायी है, जिसमें इस समय 3,000 पौधे हैं। इस नर्सरी के माध्यम से वे स्थानीय काश्तकारों को आसानी से सेब की उन्नत पौध मुहैया करा रहे हैं। जगमोहन रावत जी के मुताबिक उनका बगीचा साल में तकरीबन पन्द्रह लाख रुपये तक की आय देता है। इनके अभिनव प्रयोग से प्रेरित होकर बार्सू सहित आसपास के कई काश्तकार बंजर पड़े सेब के बगीचों को पुनः आबाद करने में जुट रहे हंै।
बागवानी के साथ ही जगमोहन रावत जी ने शाक सब्जी उत्पादन की दिशा में भी आशातीत सफलता पायी है। तकरीबन 3,000 वर्ग मीटर जमीन में आपने पाॅली हाउस, जिसके लिये उन्हें नेशनल हाॅर्टीकल्चर टेक्नाॅलाजी मिशन से सहायता मिली है, का निर्माण किया है। इसके जरिये वे बेमौसमी शाक-सब्जी यथा, टमाटर, शिमला मिर्च, बैंगन, मिर्च, प्याज, लहुसन, ब्राॅकली, करेला तथा खीरा-ककड़ी आदि की खेती कर रहे है। उनके पास टमाटर की हिमसोना, अविनाश, अभिनव नाम की हाइब्रिड प्रजातियां हैं, जो जुलाई से लेकर दिसम्बर तक फसल देती हैं। अमूमन टमाटर का एक पौंधा 25 किग्रा की पैदावार देता है। केवल टमाटर के जरिये ही उनकी एक साल में दस-बारह लाख रुपये तक आमदनी हो जाती है। इतनी ऊंचाई पर राई, फ्रेंचबीन व मटर जैसी सब्जियों को भी वे पाॅली हाउस में उगाने में सफल रहे हंै। वे बताते हैं कि पाॅली हाउसों के जरिये सामान्य खेती से आठ गुना अधिक पैदावार ली जा सकती है। खेती की जुताई के लिए उनके पास पाॅवर टिलर है। उनसे प्रेरित होकर बार्सू और आसपास के कई उत्साही काश्तकार पाॅली हाउसों में शाक सब्जी के उत्पादन के जरिये जाविकोपार्जन करने लगे हंै। फलों व अन्य फसलों को जंगली जानवरों से बचाने के लिये रावत जी ने निहायत सस्ती तकनीक से सुरक्षा बाड़ बनायी है, जो काफी सफल रही है।
जगमोहन रावत ने मत्स्य पालन के क्षेत्र में भी खासी उपलब्धियां हासिल की हैं। ठण्डी जलवायु और 3,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित द्यारा बुग्याल से बह कर आने वाले प्रचुर जल की उपलब्धता को देख कर उन्होनंे गांव में शीत जल में रहने वाली ट्राउट मछली पालनी शुरू की। शुरूआत में प्रयोग के तौर पर उन्होंने एक तालाब बनाया है और इस दिशा में सफलता मिलने की उम्मीद से इसे आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। अभी मत्स्य विभाग के सहयोग से वे चार तालाबों में 16,000 से अधिक मत्स्य बीज पाल रहे हैं। बड़े-बड़े होटलों और रेस्टोरेन्ट में इस मछली की मांग अत्यधिक रहती है। इसकी कीमत 1,500 से 2,000 रुपये प्रति किग्रा तक होती है। जगमोहन रावत जी के अनुसार उत्तराखण्ड के कई गांवो में भी ट्राउट मछली पालन की सम्भावनाएं मौजूद हैं। आर्थिकी के लिहाज से इसे एक महत्वपूर्ण साधन बनाया जा सकता है।
पर्यटन को ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार बनाने की दिशा में भी रावत जी ने अथक प्रयास किये हैं। विश्वप्रसिद्ध द्यारा बुग्याल से मात्र 7 किमी की दूरी पर होने के कारण बार्सू गांव उसका बेस कैम्प है। द्यारा बुग्याल जाने वाले पर्यटक बार्सू से पथारोहण अथवा घोड़े-खच्चरों के द्वारा वहां पहुंचते हैं। जगमोहन रावत जी ने बार्सू गांव में कैम्पिंग की सुविधा उपलब्ध कराने के साथ ही पर्यटकों हेतु आवास गृह बनाने की महत्वाकांक्षी योजना को मूर्त रूप देने प्रयास किया है। आज बार्सू में आधुनिक सुख-सुविधाओं से सज्जित उनका एक रिजाॅर्ट है, जिसमें तकरीबन 60-70 लोगों के ठहरने की व्यवस्था है। इस पर्यटक आवास गृह के निर्माण और साज-सज्जा में गढ़वाली वास्तु शिल्प के भी दर्शन होते हैं। ‘द्यारा रिजाॅर्ट’ में पर्यटकों को उनकी माँग पर पहाड़ में निर्मित वस्तुयें, पहाड़ी व्यंजन और पहाड़ से सम्बन्धित साहित्य भी उपलब्ध कराया जाता है। जगमोहन रावत बताते हैं कि आज की तारीख में यह गांव पर्यटन मानचित्र पर छा चुका है। पर्यटन की बदौलत गांव के तकरीबन 90 प्रतिशत परिवार अपनी आजीविका चला रहे हैं। उनके रिजाॅर्ट में 5-6 लोगों को स्थायी तौर पर रोजगार मिला हुआ है। सीजन के दौरान कुछ और लोगों को रोजगार मिल जाता है। स्थानीय लोगों को कैम्पिंग, होटल, रिजाॅर्ट, चायपानी की दुकान, कुक, पोर्टर, सवारी अथवा माल ढोने वाले घोड़े खच्चर तथा गाईड के रूप में आर्थिक लाभ मिल रहा है। बार्सू से द्यारा बुग्याल होते हुए निकटवर्ती सारा बुग्याल, गिडारा बुग्याल तथा पथारोहण के लिए बकरा टाॅप, सुरिया टाॅप आसानी से पहंुचा जा सकता है।
हिमालयी भौगोलिक परिवेश में स्थानीय संसाधनों के उपयोग व आजीविका को लेकर सरकारें, योजनाकार तथा संवेदनशील नागरिक लगातार चिन्तित रहते हैं। खेती-किसानी से विमुख होकर मैदानी इलाकों में पलायन सबसे बड़ी समस्या बन गया है। इसका समाधान कैसे ढूँढा जाये, इसके लिये जगमोहन रावत जी और उनके बार्सू गांव के अनुभव मार्गदर्शक हो सकते हैं।