मृगेश पाण्डे
दो साल पहले अपनी पत्नी मंजुला के हिंदी में शोध साक्षात्कार में प्रोफ़ेसर गंगाप्रसाद विमल के आने की खबर डी एस बी कैंपस में हिंदी विभाग की मुखिया बहिन नीरजा टंडन ने फ़ोन कर बताई तो में उनसे मिलने को बेचैन हो गया.
उत्तरकाशी कॉलेज में हेड मास्टरी कर रहा था मैं. जहाँ तब हिंदी के घुमक्कड़ ज्ञानी और जाड़ भाषा का शब्दकोष तैयार कर रहे प्रो सुरेश ममगई मुझसे उनका अक्सर जिक्र करते और बताते कि विमल जी को न तो उम्र छू पायी है और न ऊँचे पदों पर रहने का घमंड. तब उत्तरकाशी में जन्मे प्रकृति पर निछावर इस यायावर से मिलने और साथ ही किसी बहाने महाविद्यालय बुलाने की भी सब तैयारी हो चुकी थी कि वह अपने जीवन के संघर्ष और उनसे पार पाने का बीज मंत्र हमारे उन विद्यार्थियों के कपाल में रोप दें जिनके पास और सब कुछ तो था पर पहाड़ में रहते अवसरों की कमी बहुत कुछ समेट लेने को विवश कर देती थी. विमल जी आना भी चाहते रहे पर हर बार मौसम और मार्ग बाधा बन गया. पहाड़ अक्सर यूँ ही दूरियां बढ़ा देते हैं.
सुरेश मुझे अक्सर बताता कि वह हिंदी में इंदिरा गोस्वामी और विमल जी का जबरदस्त फैन कारण बस यह है कि ये दोनों ही साहित्य में पनप रही गुटबाजी, ठेकेदारी और रंगबाजी से दूर हैं और खूब रच रहे हैं. जहाँ से उपजे हैं उस जमीन, वहां की मिट्टी के उन्होंने हमेशा गुण गाए हैं. दिमाग से ज्यादा ये दिल पे हमला करते हैं और रोज मर्रा के संकटों की तरह उन्हीं सवालों के जवाब पाने के गुर बताते हैं जिन्हें थोड़ी मेहनत थोड़े बूते और थोड़ी कुव्वत से हासिल कर सकता है हर कोई. बस सही बात को कहने का साहस हो.
विमल जी तो जैसे गंगा की तरह विकट पहाड़ से निकल निश्छल बन अपनी अनूठी संस्कृति को अपनी रचनाओं में समावेशित करते ही रहे. उन्होंने हिमनदों के सिकुड़ने की चिंता की. वनों के काटने के साथ स्थानीय प्रजाति के ख़तम होने और बाहरी पौंधों के रोपण से उभर रहे खतरों के बारे में चेताया.
हिमनद और वन को बचाना जैसे व्यक्तित्व को बचाना हो. उनकी अपनी जमीं से जुड़ी सोच उन्हें अकहानी आंदोलन का नायक बना गयी. ऐसा नायक जो बहुत सरल था अहम् अभिमान जिसे छू भी न पाए. सबसे ऊपर बने रहने की चाहत उसने कभी दिखाई नहीं. बड़ा ही भावुक जो अपनी या अपने परिवार की चिंता में दूसरों को डस्टबिन न बना परंपरा ,संस्कृति और सनातनता पर उभर रहे क्लेशों,जबरन थोपे जा रहे घेरों को तोड़ देने के लिए प्रहार करता है. बार बार कई बार लगातार.
तो विमल जी ने कहानियां लिखीं,उनके संग्रह छपे. चार उपन्यास, पांच किताबें अंग्रेजी से अनुवाद कीं, आठ किताबें सम्पादित कीं, कहानी, कविता, उपन्यास की पंद्रह किताबें अन्य भाषाओँ से हिंदी में अनुवाद कीं, साथ में ढेरों शोध पत्र और चुने हुए शोध छात्र जो उनके रस्ते उनके साथ चले हर बार कुछ नए पन के साथ. प्रगतिशील बन कर ,पूरे साहस के साथ कट्टरपंथी और दक्षिणपंथी विचारधारा के विरोध के साथ.
पहाड़ के गांव में जन्म और उत्तरकाशी के विश्वनाथ की कृपा विमलजी के भीतर हर परिस्थिति का सामना करने और हर आपदा विपदा को झेलने का हिमालयी संकल्प दे गयी. 1939 में उत्तरकाशी में जन्म के बाद प्रारंभिक शिक्षा पूरी कर 22 वर्ष की आयु में वह पंजाब विश्वविद्यालय के रिसर्च फेलो बने. 1963 में समर स्कूल ऑफ़ लिंगुइस्टिक्स हैदराबाद रहे. 1965 में शोध उपाधि मिली और विवाह हुआ. 1964 से ही जाकिर हुसैन कॉलेज ,नई दिल्ली में आये तो 1989 तक अध्यापन के साथ खूब शोध कार्य किया और करवाया भी. 1989 से 1997 तक केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली में निर्देशक बने तो 1999 से 2004 तक जे एन यू, भारतीय भाषा केंद्र में प्रवक्ता व फिर विभागाध्यक्ष बने. 1979 से ही सम्मान और पुरस्कार से उनका काम यश पाने लगा.
रोम की आर्ट यूनिवर्सिटी ने उन्हें पोएट्री पीपुल्स प्राइज 1978 दिया तो 1979 में सोफिया में गोल्ड मैडल. 1987 में दिनकर पुरस्कार, 1988 में इंटरनेशनल ओपन स्कॉटिश पोएट्री प्राइज, 1992 में भारतीय भाषा परिषद् का भारतीय भाषा पुरस्कार व 2016 में उत्तर प्रदेश सरकार ने महात्मा गाँधी सम्मान दिया. आल इंडिया रेडियो पर उनकी कवितायेँ गूंजती रहीं. बी बी सी से कहानियां सुनायीं गयीं. वह इतने सरल और सहज रहे कि हर कोई उन्हें अपना समझता, बस अपना ही मानता.
नैनीताल शोध साक्षात्कार के बाद मुझे उनकी किताब मानुसखोर आशीष में मिली. उनसे कुछ बात कर पाने को इतना बेताब था कि अपना कैमरा बेटी हरियाली को थमा दिया. देश और अर्थव्यवस्था में उपज रहे असमंजस की चोट से एक कवि व रचनाधर्मी किस कदर आहत होता है यह उनकी बातों से साफ़ झलका. अन्याय का प्रतिकार इसे अस्वीकार कर ही हो सकता है चाटुकारी की दुंदुभि बजा कर नहीं. सो ऐसा रचो ऐसा कहो कि वह आम जन तक जा सके कहीं कोई बीज उगा सके. साथ ही वह सब पढ़ो, जानो जरूर, जो लिखा जा रहा, सुना जा रहा, छप रहा, मिट रहा. इन सब से ही अपनी बात उठानी होगी, लोगों तक ले जानी होगी और फिर वो हमेशा की तरह मुस्कुराने लगे.
अब यह तस्वीरें देख कर लगता नहीं कि श्री लंका में हो गयी दुर्घटना के बाद भी, निरन्तर कुछ कर गुजरने को बेताब सांसें शरीर से परे अखिल ब्रह्माण्ड में जा विलीन हो गयीं हैं. अब उनकी ही कविता उन्हें समर्पित कि :
कुछ भी लिखूंगा
बनेगी
तुम्हारी स्तुति
ओ प्यारी धरती.
पहाड़ ही नहीं जन्मे तुमने
न घाटियां क्षितिज तक पहुँचने वाली
फैलाव में
रचा है तुमने आश्चर्य
आश्चर्य की इस खेती में
उगते हैं
निरन्तर नए अचरज
मैं नहीं
अंतरिक्ष भी अवाक् है
देख कर तुम्हारा तिलिस्म.
हिन्दी वैब पत्रिका 'काफल ट्री' से साभार