गोविन्द पंत ‘राजू’
आंदोलन के दौरान मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई थी। पहली ही नजर वे मुझे अत्यंत आत्मीय लगे थे। इधर वर्षों से उनसे कोई संपर्क नहीं रहा था। लेकिन जैसे ही सोशल मीडिया पर हरदा के निधन की खबर मिली उनसे जुडी अनेक स्मृतियाँ एकाएक सजीव हो गयीं । हरीश चंद्र जोशी अल्मोड़ा के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे और अल्मोड़ा शहर की रचनात्मकता तथा संवेदनशीलता उनके व्यक्तित्व से बहुत गहराई से जुडी हुई थी। अपने तमाम चाहने वालों के बीच हरदा या हरदा वकील के नाम से पहचाने जाने वाले हरीश चंद्र जोशी जब लखनऊ वकालत पढ़कर अल्मोड़ा वापस आये तो अपने छात्र जीवन के संगी साथियों के साथ मिल कर समाज की विसंगतियों के खिलाफ मुहिम में जुट गए।
इस दौरान अपने पुराने मित्र शमशेर सिंह बिष्ट के साथ उनकी निकटता बढ़ती चली गयी। इस रिश्ते ने जहाँ शमशेर दा को जहाँ एक वैचारिक और बौद्धिक रूप से परिपक्व मददगार सहयोगी मिला वही हरदा को भी अपने सामाजिक दायित्वों को पूरा कर सकने की राह मिल गयी। दोनों के बीच मित्रता और दायित्वशीलता की यह जुगलबंदी शमशेर दा की मृत्यु तक अटूट बनी रही। हरदा उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी से भी जुड़े रहे और बाद में उत्तराखंड जन संघर्ष वाहिनी की स्थापना में भी उनकी भूमिका रही। हालांकि इधर कुछ वर्षों से वे राजनीतिक तौर पर उतने सक्रिय नहीं रह गए थे लेकिन सामाजिक और आध्यत्मिक रूप से निरंतर सक्रिय थे। अल्मोड़ा में साईं मंदिर की स्थापना और वहां पर योग शिविरों का हरदा की इसी सक्रियता का परिणाम था।
नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन के दिनों में जब शमशेर दा, पी सी, प्रदीप टम्टा आदि मुख्य नेतृत्व कर्ता जेल में बंद हो चुके थे तब हम युवा लोगों पर आंदोलन को आगे बढ़ने की जिम्मेदारी आ गयी थी। तब शमशेर दा ने हमको अल्मोड़ा के जिन दो चार लोगों के संपर्क में बने रहने और कोई समस्या होने पर मदद मांगने के लिए कहा था उनमें पहला नाम हरदा का ही था। प्रताप बिष्ट ,दिनेश तिवारी ,खष्टी जोशी ,हरीश कार्की ,शेखर लखचौरा आदि हम लोग उन दिनों नियमित रूप से हरदा से मिलते रहते थे और आंदोलन की रणनीति पर विचार विमर्श करते रहते थे अनेक बार ऐसे मौके भी आये जब किसी रैली या सार्वजनिक सभा में ग्रामीण अंचलों से आने वाले लोगों की संख्या अचानक बढ़ गयी और उनके लिए भोजन का इंतजाम करना मुश्किल हो गया तब ऐसे में हरदा ही हमारे संकट मोचक होते थे। एक बार मैं और हरीश कार्की रात लगभग ग्यारह बजे उनके पास पहुंचे।पूछने पर पता चला कि हरदा शायद सो चुके हैं ,हम निराश होकर वापस लौट ही रहे थे कि हमें वापस बुला लिया गया और थोड़ी ही देर में हरदा नींद से उठकर हमारे पास थे। करीब एक घंटे तक बातचीत के बाद हमारी समस्याओं का तो समाधान हो ही चूका था साथ साथ हमारी उदरपूर्ति भी हो गयी थी। उनसे चर्चा करने में सबसे अच्छी बात यह होती थी कि वे तार्किक रूप से भी समस्या पर विचार करते थे और उसके क़ानूनी पक्ष पर भी। उनकी एक खूबी यह भी थी कि लोगों के साथ मानवीय धरातल पर भी जुड़ जाते थे और एक अभिभावक की तरह पूरी जिम्मेदारी ले लेते थे।
अल्मोड़ा के छात्र आंदोलनों के प्रति उनका रवैय्या एकदम सकारात्मक होता था और आसपास के इलाकों से पढ़ने आये युवाओं के लिए उनके मन में हमेशा सहयोग का भाव रहता था। उनसे आर्थिक, सामाजिक और नैतिक सहयोग पाने वालों की सूची काफी बड़ी होगी मगर यह सहयोग उन्होंने कभी अहसान की तरह नहीं किया। इसे वे अपनी जिम्मेदारी मानते थे। जनता की लड़ाई लड़ने वालों के प्रति उनका समर्पण ऐसा था कि वे निशुल्क उनकी क़ानूनी मदद के लिए सदैव तत्पर रहते थे। अल्मोड़ा में मेघनाथ के पुतलों का निर्माण शुरू करवाने में प्रमुख भागीदारी निभाने वाले हरदा रामलीला मंचन से लेकर होली गायन तक अल्मोड़ा की हर कला परम्परा से जुड़े हुए थे और एक कुशल रंगकर्मी भी थे।
हरदा सम्पन्नता के तमाम दुर्गुणों से मुक्त एक विनम्र और शालीन इंसान थे।वे हमारे समाज के चैतन्य स्वरों के प्रतीक थे और अल्मोड़ा की सांस्कृतिक परम्परा के एक सक्रिय ध्वजवाहक। समाज के लिए लड़ने वालों के लिए अपने इस मार्ग दर्शक का एकाएक चले जाना बेहद तकलीफ देह है. उनका न हों एक बड़ा शून्य पैदा कर गया है।