दया कृष्ण काण्डपाल
पंचायत चुनावों के बाद दशहरा भी बीत गया। हजारों की भीड़ पुतलों के साथ नाच रही है। नाचने वालो में 90% नशेड़ी। इन पुतलों से क्या सीख मिली हमें ? नहीं मालूम। हर कोई निशाचर रूपी राक्षसों को इस प्रकार विदा कर रहा है मानो उनका कोई सगा सम्बन्धी उनसे अन्तिम विदाई ले रहा हो। ये असाधारण भीड़ भी एक वोट बैंक है। जिस पार्टी की सरकार होती है वही दशहरा महोत्सव समिति का संयोजक होता है। इसमें कांग्रेस व बी जे पी के नेता बारी—बारी से भाषण देते हैं।
किसी भी राज्य आन्दोलनकारी की कोई हैसियत नही है कि वह कुछ कह सके। धार्मिक विद्वान तो ऐसे आयोजनों से दूर ही रहते हैं। उनका काम शंख फूंकना व कुछ मन्त्र बुदबुदाना है। इन मंन्त्रो का क्या मतलब है यह किसी को नही जानना है। यह एक परम्परा है।
२०११ में हमने नन्दा देवी महोत्सव में भैंस काटने की परम्परा का विरोध किया। भैंसा मारने के बाद उसे खुला छोड दिया जाता था और लोग उसके रक्त से तिलक करते थे। हमने कहा या तो इसका मतलब समझाओ या फिर इसे बन्द करो। हमने उनके खिलाफ और उन्होंने हमारे खिलाफ जुलूस निकाले। अल्मोड़ा छावनी में तब्दील हो गया। पुलिस हमारे साथ थी और परंम्परावादी उनके साथ। अन्तत: संघर्ष के बाद यह रिवाज बन्द हो गया। बागेश्वर मे कोट भ्रामरी मन्दिर में तो लोगों ने मेले का ही बहिस्कार कर दिया। नैनीताल में भी विरोध हुआ।
इसका इतना लाभ अवश्य हुआ कि सार्वजनिक रूप से नशा व हिंसा की प्रतिष्ठा कम हुई पर यह नये दरवाजे से सामने आ रहा है। आजादी के दौर में इन मेलों व उत्सवों का उपयोग जन चेतना फैलाने के लिये होता था। आज के समय में सरकारी कार्यक्रम का प्रचार नशा, राजनैतिक वोट बैंक व नेतागिरी चमकाने के लिये होता है। एक दौर था जब अल्मोडा में सांस्कृतिक क्रान्ति मंच काम करता था। मोहन उप्रेती, नईमा खान का ग्रुप यहाँ जनवादी चेतना फैलाता था फिर गिर्दा ने मोर्चा संभाला। होली, दीपावली सहित आन्दोलनों मे जनवादी गीतों की परम्परा को आगे बढ़ाया। अब यहाँ भी रिक्तता आ रही है। हमारे पास काम करने के कई तरीके हैं उसमें लेखन, गायन, आयोजन, संवाद, वाद—विवाद आदि माध्यम हैं। कुतर्क से दूरी बनाते हुए यदि आमने—सामने बैठ कर संवाद करेंगे तो जरूर हल निकलेगा।
गीतों ने भी समाज की चेतना को आगे बढ़ाया है । सांस्कृतिक क्रान्ति मंच की अन्तिम कड़ी में अलखनाथ उप्रेती का नाम प्रमुख है। जब कड़ियो के साथ कड़िया जुड़ती हैं तो परम्परा आगे बढ़ती है। चूँकि सांस्कृतिक क्रान्ति मंच की अन्तिम कड़ी ने नये लोगों को नहीं जोड़ा तो एक परम्परा टूट जायेगी। यदि हम आपसी संवाद में मनमुटाव पालते हैं तो पूर्वाग्रह से ग्रसित रहते हैं। समय के बदलाव को महसूस नहीं करते हैं।
व्यक्तिगत रूप से मैं दशहरा महोत्सव का विरोधी नहीं हूँ। पर सवाल यह है कि क्या रावण जैसी पूँजीवादी नगरीय सभ्यता गाँवों के अस्तित्व को स्वीकार कर पायेगी? वन्य जीवन व नगरीय जीवन में संन्तुलन बना पायेगी ? ग्रामीण व अरण्यक जीवन के बिना नगरीय जीवन कितना सुरक्षित है ? क्या हम ये राम रावण के इस युद्ध से सीख पा रहे हैं। शायद ऐसा नहीं हो रहा हम नशे के आगोस में जी रहे हैं। यह नशा जातिवाद, साम्प्रदायिकता या शराब, अफीम, गाँजा किसी भी तरह का हो सकता है।
ये मेले अब आजादी के आन्दोलन के दौर की तरह हमारी चेतना का विस्तार नहीं अपितु हमारी चेतना को कुन्द कर रहे हैं। हम इनसे सन्देश नहीं ले पा रहे हैं। हम प्रगतिशील लोगों का क्या कर्तव्य है। क्या हम इनसे चेतना ले सकते हैं ? क्या हम समाज को चेतना दे सकते हैं ? या फिर ठगी के इस खेल में चुपचाप महाभारत के बर्बरीक की तरह तटस्थ भाव से यह सब देखकर बिना कुछ कहे इसे आत्मसात करें।
हममें से कई लोग सठिया चुके होंगे। कई नवयुवक भी सामने आ रहे हैं पर उनकी हमसे स्वभाविक दूरी बनी है। हम उस दौर के सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिस दौर में चिट्ठियों से संदेश भेजे जाते थे। समाज में धन की कमी थी। कम पैसों में बहुत सामान मिल जाता था। आज चिट्ठियां भेजने वाला अनपढ़ जैसा ही है। इन्टरनेट की इस दुनिया में अनेकों प्रकार का ज्ञान एक क्लिक करते ही प्रकट हो जाता है पर इसे साबित करने के लिये भी संवाद जरूरी है। हम पुराने लोग नई पीढ़ी को कैसे समझायें ? यह चुनौती भी हम सबके सामने हैं। नई पीढी परंम्परा तो निभा रही है पर लॉजिक का अभाव है।