भास्कर उप्रेती
इस बीच ऐसा संयोग बना कि मुझे कुमाऊं की अधिकांश विधान सभा सीटों में जाने का मौका मिला और जिन भी लोगों से मुलाकात हुई उनके व्यूज सुनने को मिले. मेरी जिज्ञासा कौन जीत रहा है, कौन हार रहा है से अधिक मुद्दों को समझने में थी. लोगों की आकांशा क्या है, क्या सोचते हैं, क्या बदलता देखना चाहते हैं. गाड़ी में जहाँ भी अवसर मिलता मैं राहगीरों को बिठा लेता और उनसे कुछ प्रश्न करता. चाय की दुकानों में और होटलों में जहाँ भी रुका वहां बात होती. जिन मित्रों से भेंट-मुलाकात हुई चुनाव केंद्र में आ ही जाता.
मुझे ठीक 10 साल पहले 2012 के विधान सभा चुनाव में कुमाऊं की सभी और गढ़वाल की करीब दर्जन भर सीटों को कवर करने का मौका मिला था, एक पत्रकार के रूप में. रोचक बात यह थी कि उसमें मुझे मेरे संस्थान ने जीत-हार का गणित जानने और चुनावी सभाओं को कवर करने की बजाय आमजन से उनकी हसरतें पूछने के लिए भेजा था. इस बार मैं एक नागरिक के रूप में यह देख रहा था. स्टोरी भेजने का दवाब नहीं था तो मैं थोड़ा धैर्य के साथ दृश्य और वार्तालाप को देख पा रहा था.
मेरे कार्यस्थल रानीखेत को केंद्र में रखकर ये यात्रा मैंने दो चरणों में कीं. पहले चरण में मैं सल्ट, द्वाराहाट, रानीखेत के साथ रामनगर, हल्द्वानी, रुद्रपुर, सितारगंज, नानकमत्ता, खटीमा, भीमताल और नैनीताल गया. दूसरे चरण में सोमेश्वर, बागेश्वर, गंगोलीहाट, पिथौरागढ़, लोहाघाट, चम्पावत, जागेश्वर, अल्मोड़ा होते हुए वापस रानीखेत आ गया. इनमें मुझे रामनगर, हल्द्वानी, रानीखेत, द्वाराहाट, सोमेश्वर, गंगोलीहाट और पिथौरागढ़ विधान सभा सीटों में अधिक देखने और सुनने का अवसर मिला. जिन पत्रकार मित्रों को मेरे यात्रा में होने की बात पता थी उनसे बीच-बीच में बातें होते रहीं.
प्रचार की दृष्टि से विधान सभा चुनाव 2011 की तुलना में 2022 का चुनाव काफी अलग है. जाहिर है कोरोना और शीत ऋतु के बीच चुनाव हो रहा है. इस बीच 2017 में भी एक विधान सभा चुनाव हुआ. 2014 और 2019 में लोक सभा चुनाव हुए. परिदृश्य काफी बदल गया है.
राज्य निर्माण के बाद यह पहला विधान सभा चुनाव है जिसमें उत्तराखंड के अपने मूल मुद्दे पूरी तरह से गायब मिले. उत्तराखंड की राजनीति की भाषा गायब मिली.
यह पहला चुनाव है जिसमें राज्य निर्माण के लिए जिम्मेदार राजनीतिक शक्तियां पूरी तरह से हाशिए पर चली गईं हैं. चुनाव अब राष्ट्रीय कही जाने वाली पार्टियों के बीच का व्यवसाय है.
आपदा से घायल हुई सड़कों, कोरोना काल में शिक्षा और स्वास्थ्य की बदहाली, पलायन, बेरोजगारी, नशाखोरी जैसे मुद्दे सतह पर नहीं हैं.
राजनीतिक उठापटक, कपड़ों की तरह बदलते मुख्यमंत्री, स्थायी-अस्थायी राजधानी, सुगम-दुर्गम जैसे मुद्दे भी चर्चा में नहीं.
चुनाव में अखबार पूरी तरह हाशिये पर है जबकि मोबाइल और टीवी बेहद अहम् हो गए हैं. हर घर में स्मार्ट फोन और हर घर में व्हाट्सएप होने से मतदाता के मन का निर्माण हो रहा है.
चुनावी सभा और स्टार प्रचारकों का कोई खास महत्व नहीं रहा. जहाँ बड़े प्रचारक आए और भीड़ जुटी वहां भी समीकरण अलग तरह से तय हो रहे हैं.
यह चुनाव राजनीतिक दलों के बीच न होकर प्रत्याशियों के बीच हो रहा है. ऊपर से लेकर नीचे तक पर्सनालिटी कल्ट ही सबसे अहम् है.
चुनाव प्रबंधन में लगे हर कार्यकर्त्ता, प्रचार में निकले हर मतदाता, टैक्सी मालिक और ड्राइवर ने सीधा-सीधा सौदा किया है. दिहाड़ी रेट तय हैं. हैसियत और प्रभाव के हिसाब से रेट तय हुए हैं.
कैश और शराब की स्वीकार्यता खुलेआम है, यह परदे के पीछे का मामला नहीं रहा. फुल-टाइम प्रचारकों को ब्रांडेड कपड़े, बाइक, कार, मोबाइल, लैपटॉप, रिचार्ज कूपन दिए जा रहे हैं. प्रचार करने वालों को विभिन्न बैंक खातों से पैसा ऑनलाइन ट्रांसफर हो रहा है.
दिहाड़ी मजदूरी पर किसी भी पार्टी की भीड़ का हिस्सा बनने में गुरेज नहीं. मतदाता खुलेआम कहता है कि यही समय है जब वो नेताओं से कुछ ले सकते हैं.
राममंदिर निर्माण, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, रेललाइन निर्माण, आल वेदर रोड, दलबदलू जैसे मुद्दे चुनाव में कहीं नहीं हैं. न ही रोजगार और महंगाई पर कोई बात कर रहा है. सबसे अधिक जोर इस बात पर है कि कौन कैंडिडेट चुनाव के बाद अधिक प्रभावी हो सकता है. नोटबंदी और जीएसटी पर भी बात नहीं करते.
कोरोना काल में आईं मुसीबतों और प्रवासी मजदूरों को हुई तकलीफों को लोगों ने भुला दिया है. वे अपनी और से इस पर बात नहीं करते. जिक्र करने पर उन लोगों को जरूर याद करते हैं जो तकलीफ में मददगार बनकर आये.
महिला मतदाताओं के लिए फ्री का राशन बड़ा मुद्दा है मगर वे गैस की बड़ी हुई कीमतों पर बात नहीं करतीं. मोबाइल से मिले ज्ञान को वे प्रकट करती हैं. इससे यह महसूस होता है कि वे स्वतंत्र मत देने का मन बना चुकी हैं.
चुनाव सामग्री और संसाधनों में सत्ताधारी पार्टी भाजपा अन्य दलों से कहीं आगे है. जब हर घर या दुकान में भाजपा के झंडे की बात करो तो लोग कहते हैं मना नहीं कर सकते इन्हें. यानी झंडे से मत तय नहीं हो रहा है. चुनाव आयोग कहीं चौकस और सक्रिय है, दिखता नहीं.
आम मतदाता और कार्यकर्त्ता में किस भी पार्टी या नेता के प्रति श्रद्धा भाव नहीं. न किसी के लिए दीवानगी वो प्रकट करता है. बात करने पर विधायकों की बढ़ती संपत्ति की बात करते हैं.
किसान आन्दोलन जैसा मुद्दा मैदानी सीटों में धुंधला है और पहाड़ की सीटों में तो उसका कोई असर नहीं है. अधिक बात करने पर मतदाता किसानों से सहानुभूति जरूर दर्शाते हैं.
चुनाव एक निवेश है. प्रत्याशियों ने खड़िया और शराब सिंडिकेट से खूब कर्ज उठा रखा है. अधिकारियों ने भ्रष्टाचार की कमाई को प्रत्याशियों पर निवेश किया है. हारे हुए प्रत्यशियों का कर्ज में डूबना तय है.
पक्ष-विपक्ष का कोई ऐसा प्रत्याशी नहीं जिसे लोग उसके प्रदर्शन या जनहित के आन्दोलन की वजह से चुनने या ठुकराने जा रहे हों.
मतदाता की राजनीतिक चेतना की दृष्टि से यह चुनाव मुझे सबसे कंगाल लगता है. परिणाम जिस भी प्रत्याशी और पार्टी के पक्ष में आयें जनता ने अपनी लोकतंत्र में भागीदार होने की शक्ति कम कर दी है. तात्कालिक लाभ के लिए मत का जिस तरह से सौदा किया है, उससे कल उसके असंतुष्ट और असहमत होने की नैतिक शक्ति चली गई है. यदि राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों में खोट है तो मतदाता में भी कम खोट नहीं. सवाल है, मतदाता में चेतना कहाँ से आएगी, कैसे आएगी..उसका समाधान दूर-दूर तक नहीं दिखता. यह राजनीतिक शिक्षा का सवाल है और उसकी सामग्री पहले से भी कम हो गई है. मतदाता जब पांच साल अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करता, छोटे-बड़े आन्दोलन नहीं करता, मुखर नहीं रहता, सही-गलत जानने की कोशिश नहीं करता तो चुनावी चकल्लस में उसका विवेक ठीक से काम करेगा, यह उम्मीद करना बेईमानी है. आज का मतदाता चुनावी खिलाड़ियों की असलियत पहले की तुलना में कहीं ज्यादा जानता भले हो मगर उसे अपनी किस्मत बदलने की राह अब भी दिखाई नहीं दे रही.