शिरीष मौर्य
हिमालय की ओर जाते रास्ते अपनी बनावट में मनुष्य की अपनी जिजीविषा का प्रतिरूप हैं। मनुष्य ने जहां जाना चाहा या उसे जहां जाना पड़ा, उसने राह बनाई। मनुष्यों की यह आवाजाही उसके संगी जीवों के साथ रही। हिमालय की ओर जाते, हिमालय से आते रास्तों पर पालतू भेड़ों के समूह उसके साथ थे। यह साथ एक पूरी संस्कृति को गढ़ने-रचने का साथ है। चरवाहों के पथों ने शिखरों को समीप तक छुआ। उस संस्कृति से शेष भारत बहुत कम सम्पर्क में रहा। पहाड़ प्रकाशन से छपी किताब ‘अजपथों से हिमशिखरों तक’ में कुछ सम्पर्क सूत्र हैं, जो बताते हैं कि पर्वतारोहियों, शोधकर्ताओं और मानव-संस्कृतियों के रचाव में दिलचस्पी रखने वाले कुछ रचनात्मक जनों ने उन पथों पर यात्राएं कीं और उसके दस्तावेज़ तैयार किए।
ललित पंत ऐसे ही एक पथिक हैं और यह किताब उनका तैयार किया हुआ ऐसा ही एक रचनात्मक दस्तावेज़। काली और गोरी नदी के संगम क्षेत्र के शौका समुदाय और लिपूलेख की ओर के वे मार्ग, जो सदियों में जीवट से भरे चरवाहों के साहसी क़दमों, भेड़ों और माल ढोने वाले खच्चरों के खुरों से सिरजे गए, जैसे प्रकृति अपनी संरचनाएं सिरजती है, वैसे इन मार्गो का सृजन हुआ। फिर सामरिक ज़रूरतों ने कच्ची-पक्की सड़कें बनाईं। हम सब जानते हैं कि सीमा पार शत्रु है। सीमा के भीतर दारमी, ब्यांस, चौंदास जैसी जगहों के नाम शायद कहीं पढ़े हों, पर ठाणीधार, दोबाट, ऐलागाड़, लोलंगपो जैसी जगहें, जो पथों पर बसासतें हैं, उनका क्या? चीनियों के बारे में कल्पना करता हुआ देश सीपालों, मार्छालों, गर्ब्यांगों, पांगतियों, अणवालों के बारे में जानना तो दूर, कभी कल्पना भी करता है? चौंदास के चौदह गांवों के बारे में जानना भी भारत के बारे में जानना है –
यह छोटी-सी चौंदास की दुनिया जिन चौदह गांवों से मिलकर बनती है, वे क्रमश: पांगू, रिमझिम, रौतों, हिमखोला, छिलासौ, सोसा, सिर्खा, रूंग आदि हैं, जो दस शुद्ध शौकाओं के गांव हैं , जबकि पांगला, गला, तंकुल व जिप्ती पश्चिमी नेपाल के प्रवासियों, अणवालों व शौका लोगों के मिश्रित गांव हैं। अपनी तरह का जीवन, समाज, संस्कृति यहां पल्लवित हुई है, जो नितान्त हिमालयी जलवायु एवं पारिस्थितिकीय समायोजन का एक सहज उदाहरण है।
मैं किताब से लिए इस विवरण में मिश्रित जीवन – समाज – संस्कृति जैसे पदों पर ठहरता हूं। भारतीय जीवन, भारतीय समाज और भारतीय संस्कृति सबमें जो अनिवार्य विशेषण अकसर छूट जाता है, वह ‘मिश्रित’ है। संविधान का प्रीएम्बल जब ‘हम भारत के लोग’ कहता है, तो उसमें भारत के लेपचा, खाम्पटी, अगरिया, बैगा, बेदिया, खरिया, खोड़, बिरहोर, गारो, न्याशी, रेंगमा, हल्बा, कोटा,बगारा, कुरूंबा, कादर, पूलियान, जाखा, आन्गे आदि अनेक जनजातियों के लोग अनिवार्यत: शामिल हैं। मैं जो कह रहा हूं, वह उसका एक प्रतिशत भर है, जिसे कहा जाना और बार-बार कहा जाना अभी बाक़ी है। भारत और भारतीयता की तस्वीर, हमारे समाज और संस्कृति की तस्वीर इस क़दर बहुवर्णी और बहुरूपी है कि उसके संधान के लिए एक उम्र काफ़ी नहीं। इस किताब का यह हासिल है कि यह स्थानों पर जाते हुए समाज और संस्कृति की मूलसंरचना का संज्ञान लेना नहीं भूलती। जिन पथों से गुज़रती है, उनकी बनावट और बुनावट को ठहरकर देखती-समझती है।
यह किताब संविधान में वर्णित ‘हम भारत के लोग’ के बारे में बात करती है, देखिए हमारे लोग कौन हैं और उनके साथ क्या होता रहा है –
कश्मीर के बक्करवाल तथा हिमाचल के गद्दियों की भांति उत्तराखंड के भेड़ पालक अणवाल समुदाय की कहानी उन लोगों की है, जो भेड़ ढाकरों (झुण्डों) के साथ चरागाहों की खोज में चलवासी जीवन जीते रहे हैं। कभी परम्परागत भारत-तिब्बत व्यापार के चलते दौर में ये भोटिया व्यापारियों के मालवाही पशु झुण्डों के साथ तिब्बती व भारतीय मंण्डियों व बाज़ारों के बीच लम्बे फ़ासले तय करते अपनी गुज़र-बसर करते थे। उस हिमालयपारीय व्यापार में अणवालों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। जो भी परिस्थितियां रही हों,यह समुदाय जीवन निर्वाह स्तर की मजदूरी से अधिक कुछ नहीं पाता था और मरते-खपते पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंधुआ मजदूर की हैसियत से ऊपर नहीं उठ पाता था। भारत-चीन विवाद के बाद व्यापार बंद हुआ और सीमान्तवासियों के जीवन की परिस्थितियों में भारी फेरबदल हुआ। आय, रोज़गार व जीवनयपान के तौर-तरीक़ों में बदलाव आया। पूरा सीमान्ती समाज संघर्ष कर रहा था। तथी मालिक की हैसियत रखने वाले शौका (भेटिया) समाज को अनुसूचित जनजाति का संवैधानिक संरक्षण मिला। जबकि तिब्बत व्यापार में दोयम दर्जे़ की ज़िन्दगी बसर करने वाले अणवाल-नौकर समुदाय को सरकारी संरक्षण का हक़ न मिल सका। अणवाल कोई जाति नहीं, बल्कि उन श्रम सेवाओं को देने वाले लोगों का समुदाय है, जो आर्थिक प्रयोजन, श्रम व आजीविका की दृष्टि से समानधर्मा है।
‘चलवासी’ पर मैं ठिठकता हूं। रहवासियों ने कथित रूप से महान सभ्यताओं का निर्माण किया, चलवासियों के कोई उल्लेख उन सभ्यताओं के वर्णनों में मौजूद नहीं। जबकि इथोपिया के अपने पालने से मनुष्यता उठी और चलकर पृथ्वी के कोने-कोने तक गई। सब हो जाने के बाद भी जीवनयापन के लिए, जो चलते रहे उनका जीवन-संघर्ष कहां लिखा गया? हरीशचन्द्र पाण्डे की कविता लद्दू घोड़े के ज़ख़्मी पीठों वाले घोडों-खच्चरों सरीखे लोग, जो हर सभ्यता के निर्माण का आधार बने, हमारे ध्यान में क्यों नहीं रहते ? इस किताब की यह लिखत वर्ग-व्यवस्था के पुराने ढांचे और लोकतंत्र में भी न मिल सके न्याय और अधिकार के एक प्रसंग को उजागर करती है। इसीलिए यह महज एक यात्रावृत्त भर नहीं, इसमें उन पथों पर रहने वाले समुदायों और संस्कृति की सामाजिक-आर्थिक पड़ताल भी मौजूद है। एक-सी भौगोलिक स्थितियों और समस्याओं में रहने वालों और एक-सी संस्कृति के वाहकों के बीच भी स्तरीकरण की पूरी संरचना को यह किताब दिखाती है, न केवल दिखाती है, बल्कि उसके ओझल रह जाने पर अफ़सोस भी करती है।
पहाड़ से छपी इस पोथी का बहुत संक्षिप्त-सा यह परिचय लिखते हुए मैं पाठकों से अनुरोध करता हूं कि जिन पथों के बारे में यह किताब है, उन पर चलने वालों को जानने-समझने और भारतीयता की अवधारणा में गहरे उतरने के लिए यह और ऐसी हर किताब एक अनिवार्य पढ़त है। इस किताब से गुज़रना आपको देश की ठीक-ठीक समझ रखनेवाला बेहतर नागरिक बनाएगा।