डाo सुशील उपाध्याय
स्वाभिमान के साथ कहता हूं कि मैं हिंदी वाला हूँ, लेकिन मुझे हिंदी वाला होने पर कोई अहंकार नहीं है। ना ही ये अहंकार करने की कोई वजह दिखती है। मेरे मन में जितना सम्मान हिंदी का है, उतना ही सम्मान उन भाषाओं का भी है, जिन्हें या तो मैं जानता हूं या सीखने की कोशिश करता हूं। मुझे उन लोगों से डर लगता है जो भाषा को लेकर अहंकार की हद तक पक्षवादी या अंध-श्रद्धालु होते हैं।
इसमें संदेह नहीं भाषा का दर्जा मां जैसा ही है। मुझे भी अपनी मां प्रिय है, लेकिन मैं दूसरे की मां को किसी भी तरह से कमतर नहीं मानता। भाषा को ऐसे मुग्ध लोगों से बहुत खतरा होता है। ये स्थापित तथ्य है कि पूरी दुनिया बहुभाषी होने की तरफ बढ़ रही है। ऐसे लोगों की संख्या में विगत दशकों में लगातार बढ़ोतरी हुई है, जो तीन या इससे भी ज्यादा भाषाएं जानते हैं। लेकिन उपर्युक्त पैमाने पर हम हिंदी वाले कहाँ खड़े हैं ?
यदि सच में हम हिंदी वालों को अपनी भाषा से प्रेम है तो उन्हें अपने पड़ोस की कुछ भाषाओं को भी जानने-सीखने की कोशिश करनी चाहिए। यह सवाल आप मुझसे भी पूछ सकते हैं कि मैंने कितनी भाषाएं सीखने की कोशिश की है। इस पर, मेरा जवाब होगा कि मैं हिंदी के अलावा उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी में भी निरंतर अपनी समझ को बढ़ाने की कोशिश करता हूं। लगातार संस्कृत और पालि भाषा सीखने की कोशिश भी कर रहा हूं। साथ ही अपने छात्र-छात्राओं से भी उम्मीद करता हूं कि वे अपने घर में बोली जाने वाली बोलियों और उपबोलियों का भी इस्तेमाल करें। ऐसा करने पर हिंदी खुद ही समृद्ध हो जाएगी। हम सभी को इस बात को भी गांठ बांधना चाहिए कि सरकारों के संरक्षण से भाषाएं बहुत लंबे वक्त तक जिंदा नहीं रहती। यदि रह पातीं तो लैटिन और संस्कृत जैसे महान भाषाओं के बोलने वालों की संख्या न घटती।
जब हम कोई नई भाषा सीखते हैं तो उस भाषा के साथ एक नई संस्कृति के दरवाजे भी हमारे लिए खुलते हैं। यह सही है कि भाषा में शुद्धता और उसके मानक रूप को हमेशा बढ़ावा देना चाहिए, लेकिन मानकीकरण और शुद्धता की जिद का स्तर ऐसा भी ना हो की किसी बिल्डिंग की तीसवीं मंजिल से नीचे गिर रहे शुद्धतावादी को गिरने से ठीक पहले की मंजिल पर किसी का नाम गलत लिखा दिखाई दे और वह बेचैन हो जाए। हालांकि गलत वर्तनी के प्रयोग से मैं भी चढ़ जाता हूं, लेकिन हमें भाषा के विकास और उसके विकार के बीच अंतर करना आना ही चाहिए। अन्यथा कई बाहर सहज विकास को भी भाषा की बुराई या कमजोरी की तरह देखा जाने लगता है। वैसे, बीते 1000 साल में हिंदी इतने सारे रूपों में हमारे सामने आई है कि उसमें दूसरी भाषाओं और दूसरी संस्कृतियों के लोगों के योगदान का कम करके नहीं आंका जा सकता। हिंदी की वृद्धि हिंदी वालों के श्रेष्ठता बोध से नहीं, बल्कि उनके उदारमना होने से होगी। यह कटु सत्य है कि नई भाषाओं को सीखने और उन्हें व्यवहार में लाने में हिंदी पट्टी के लोग बेहद संकीर्ण रवैया अपनाते हैं। हालांकि, अपवाद हर जगह सम्भव हैं।
आज हिंदी दिवस है तो यकीनन हमें खुश होना चाहिए, अपने व्यवहार में हिंदी को बढ़ावा देना चाहिए, लेकिन जहां जरूरत पड़े वहां हमें अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू या अपने उपयोग की अन्य भाषा भी सीखनी चाहिए। आज उन सब लोगों को भी शुभकामनाएं जो अपनी मातृभाषा से प्रेम करते हैं, उन्हें बढ़ावा देना चाहते हैं और उससे भी बड़ी बात यह कि वे अन्य भाषाओं से भी उतनी ही गहरी मोहब्बत करते हैं, जितनी कि अपनी मातृभाषा से रखते हैं।
सुबह से अलग-अलग माध्यमों पर हिंदी की महानता और विराटता पर कई तरह के संदेश मिल रहे हैं। ज्यादातर संदेशों में ऐसा भाव है कि दुनिया की कोई भी भाषा हिंदी के समकक्ष या उस जैसी नहीं है। मैं इस सोच से सहमत नहीं हो पाता। वस्तुतः जितनी खूबसूरत हिंदी है, भारत की अन्य भाषाएं भी कमोबेश उतनी ही खूबसूरत हैं। इस खूबसूरती में तभी बढ़ोतरी होगी जब हम और आप सामाजिक, सांस्थानिक और व्यावहारिक रूप से अपनी भाषाओं के प्रयोग को निरंतर बढ़ावा दें। जिन्होंने हिंदी दिवस पर शुभकामनाएं भेजी उन सभी मित्रों को अनंत शुभकामनाएं।
आखिर में एक बात और। हिंदी के उन दुखियारे लोगों को भी सांत्वना पहुंचे, जिन्हें यह डर है कि एक दिन हिंदी मर जाएगी। मेरा मानना यह है कि यदि एक भाषा के रूप में हिंदी मर सकती है तो फिर दुनिया की वह कोई भी भाषा जिंदा नहीं रहेगी, जिससे हम आज बहुत ही समृद्ध और प्रभावपूर्ण मान रहे हैं।
सुशील उपाध्याय