नवीन जोशी
अगर सरकारों की आय का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत आबकारी शुल्क यानी शराब और भांग वगैरह नशीले पदार्थों की विक्री हो, तो बंदी में ढील देते ही उनकी दुकानों को ‘आवश्यक वस्तुओं’ की तरह खोल देने के फैसले से आश्चर्य नहीं होना चाहिए. चिंता इस पर होनी चाहिए कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के इतने सालों बाद भी सरकारें अपनी आय के नए-नए और जन-हितैषी संसाधन क्यों नहीं खोज पाईं? साल-दर-साल वे अपना खजाना भरने के लिए नशे के व्यापार पर निर्भर होती गई हैं.
जिस तरह के आर्थिक हालात बन गए हैं उसमें बंदी और अधिक दिनों तक जारी नहीं रखी जा सकती. सरकार की आय का ही सवाल नहीं है. करोड़ों लोग काम के बिना भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं. बंदी का जारी रहना बहुत बुरे दिन लाएगा. इसलिए सरकार ने अपनी आय के बहुत बड़े स्रोत को खोल दिया लेकिन शहरों की पढ़ी-लिखी जनता की मति को क्या हुआ? शराब की दुकानों के आगे सुबह छह बजे से लगी लाइनें, धक्का मुक्की, बंदी की सावधानियों की घोर अनदेखी, लाठी चार्ज और तरह-तरह के किस्से क्या बताते हैं?
करीब चालीस दिन से जो लोग संक्रमण के डर से घरों में दुबके थे, जिन्होंने अपने सेवकों-सहायकों तक को घर में आने से रोक दिया और खुद बर्तन मांजना-झाड़ू-पोछा करना मंज़ूर किया, वे अचानक मदिरा की दुकानों पर द्वन्द्व-युद्ध करने टूट पड़े. जो पुलिस बंदी की चौकसी में लगी थी और गरीबों-असहायों की मदद कर रही थी, वह दारू की दुकानों के आगे भीड़ में व्यवस्था बनाने के लिए जूझने लगी.
कोरोना कोई आंधी-तूफान नहीं जो आकर गुजर जाएगा. हमें उसके साथ जीना सीखना है और यह कतिपय आवश्यक सतर्कताओं का पालन करके ही किया जा सकता है. हाथों की ठीक से और बार-बार सफाई, पर्याप्त दैहिक दूरी और मास्क पहनना उसी तरह जीवन का हिस्सा बनाना होगा, जैसे खाना या कपड़ा पहनना है. सार्वजनिक जमावड़े यानी किसी भी तरह की भीड़-भाड़ से बचना है. दूसरों को संक्रमण से बचाना ही अपने को बचाना है.
आश्चर्य है कि डेढ़ महीने की पूर्ण बंदी भी जनता के बड़े वर्ग को यह समझ नहीं दे सकी है. बोरा भर-भर दारू की बोतलें खरीद लेने का जो हर्ष कई तस्वीरों में लोगों के चेहरे पर दिख रहा है, वह अगले दो हफ्तों में उनकी ही नहीं, पूरे परिवार और समाज की जान पर भारी पड़ सकता है. आप जितनी पी सकते हों, पीजिए. सरकार आपको पिलाने में पीछे नहीं रहेगी. वह सावधानियां तो अवश्य बरतिए जिनके बारे में पूरी दुनिया के विज्ञानी और चिकित्सक दिन-रात बता रहे हैं.
तबलीगी जमात में शामिल लोगों को जाहिल और आतंकी बताने की होड़ मची थी क्योंकि वे अपनी नासमझी और धर्मांधता में संक्रमण फैलाने के शुरुआती कारण बने. फिर अपने घरों की सुरक्षा में बंद लोगों ने उन दिहाड़ी कामगारों को जाहिल कहा जो भूख और बेरोजगारी के कारण किसी भी तरह अपने गांव लौटने को आतुर सड़कों, बस और रेलवे स्टेशनों पर उमड़ पड़े हैं. मदिरा की दुकानों पर मची रेलमपेल को जहालत नहीं माना जाएगा?
नव-उदारवाद ने खाया-पीया-अघाया ऐसा बड़ा वर्ग पैदा किया है जिसे अपने लिए सब कुछ बटोर लेना ही जीवन का एकमात्र आनंद लगता है. उसे देश और समाज की उतनी ही चिंता है जितने में उसके ‘फ़न’ में बाधा न पड़े. उसके लिए राष्ट्रवाद भी एक ‘फ़न’ है और चैरिटी करते हुए फोटो खिंचा कर तालियां बजवाना भी. जब पूंजी के विदेशी द्वार खुलते हैं तो समाज का विवेक सरपट सरक जाता है. उसी का बेचारा और भोंडा प्रदर्शन हम आए दिन देखते रहते हैं.
(सिटी तमाशा, नभाटा से साभार)