राजीव लोचन साह
अठारहवीं लोकसभा के चुनाव के लिये मतदान का पहला चरण शुरू होने में अब एक सप्ताह से भी कम समय बचा है। लेकिन मतदाताओं की रहस्यमय चुप्पी न सिर्फ राजनैतिक दलों को डरा रही है, बल्कि राजनैतिक प्रेक्षक भी हैरान हैं। हालाँकि चुनावी सभायें जोर-शोर से हो रही हैं। मगर वह तो अपने तथाकथित समर्थकों को किसी तरह जुटा लेने का एक कर्मकाण्ड है, जो हमेशा से होता आया है। जिस पार्टी के पास जितने अधिक साधन होंगे, वह उतनी अधिक भीड़ जुटा लेता है। इस मामले में सत्ताधारी दल हमेशा लाभ की स्थिति में होता है। मगर यह भीड़ आसन्न चुनाव के बारे में कोई स्पष्ट संकेत नहीं देती। नेताओं-जन प्रतिनिधियों के इस दल से उस दल में जाने की खबरें भी खूब हैं। चुनावी मौसम में ऐसा भी हमेशा होता है। मगर इस बार जिस तरह से अन्य दलों के लोग भारतीय जनता पार्टी में जा रहे हैं, उससे यह तो स्पष्ट है कि इसके पीछे लालच और जाँच एजेंसियों का दबाव मुख्य है। चुनाव में जनता को ललचाने के लिये आश्वासन देना और असम्भव दावे करना भी आम बात है। भाजपा भी हर व्यक्ति के खाते में पन्द्रह लाख रुपये देने और हर साल दो करोड़ नौकरियाँ देने जैसे वादों के साथ ही सत्ता में आयी थी। मगर आश्चर्य की बात यह है कि उसके स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस बार कोई नये वादे करने की स्थिति में भी नहीं दिखाई दे रहे हैं। इसके उलट उनकी ताकत कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र, जो वास्तव में काफी लुभावना बन पड़ा है, पर तीखा आक्रमण करने में ज्यादा लग रही है। मगर यह आरोप कि इस घोषणापत्र पर मुस्लिम लीग की छाप है, किसी भी समझदार व्यक्ति को पच नहीं रहा है। हमेशा की तरह उनके भाषण धार्मिक मुद्दों, जिन पर चुनाव आयोग कतई नियंत्रण लगा पा रहा है, पर ज्यादा केन्द्रित हैं। उनका ‘इस बार चार सौ पार’ का नारा तो विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन के रूप में एकजुट हो जाने के कारण एकदम अविश्वसनीय लगता है।