स्वस्ती श्री सर्वोपमायोग्य नैनीताल समाचार के प्रिय पाठकगण,
आप सपरिवार स्वस्थ होंगे और रहें यह मेरी पहली कामना है। आज जब मैं आपको हरेले की चिठ्ठी में ‘यत्र कुशलम तत्रास्तु’ का शुभ-संदेश लिख रहा हूं तो आपकी कुशलता की कामना से ज्यादा अपने अन्तर्मन के भय से आशंकित हूं। मुझे मालूम है कि आंतरिक भय की ऐसी लकीरें आपके आसपास भी मौजूद हैं। चिन्तनीय है कि हमारे समाज में अतंर्मन के भय की यह लकीरें आजकल दिन-प्रतिदिन सर्वाधिक बोले और सुनाई देने वाले शब्दों के कोलाहल में और गहरी होती जा रही हैं। गम्भीर बात यह भी है कि अब बच्चे भी इसके दबाव में आने लगे हैं। लगता है कि लाॅकडाउन और सामाजिक-दूरी के अधोवस्त्र पहन कर हम जिन्दा रहने के जुगाड़ में आज के दिन को बस आगे धकेल रहे हैं।
मेरे परम मित्रों, विश्व के तथाकथित ताकतवर शासकों की जोर-जबरदस्ती और बड़बोलापन अपने चरम पर है। दुनिया के सामने उनकी चालाकी और निरंकुशता के जोर के बाद भी वे बुरी तरह नालायक और असफल साबित हो रहे हैं। फिर भी, वे सामाजिक वातावरण में विष घोल कर आम आदमी की सांस लेने की घुटन पर भी पर्दा डालने में मस्त हैं। वर्तमान सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्थायें कोरोना काल में आत्म-विश्वास का दंभ भले ही दिखा रही हों परन्तु उनके डरे-सहमे चेहरे और आचरण में सामने खड़ी चुनौतियों को हिम्मत से स्वीकार करने की कमजोरी साफ झलक रही है। वह उनसे निपटने के बजाय दुबक कर नज़र-अंदाज करने मुद्रा में है।
आपको खबर तो होगी ही कि देश के धन्नासेठ महामारी के विपन्न दौर में दौलत-रुतबे में और ज्यादा चमक-निखर रहे हैं। मध्यम वर्ग अपने स्वाभाविक स्वभाव के अनुरूप अपने खोल से बाहर नहीं निकल पा रहा है। गरीब इस समय गरीबी से ज्यादा व्यवस्थाओं की क्रूर संवेदनहीनता से अचेत सा हो गया है। अमीर के लिए ये समय एक अवसर है। मध्यम वर्ग अपनी सिमटती सुविधाओं से बैचेन है और गरीब अपने अस्तित्व को मटियामेट होते सांसारिक शून्य की ओर ताक भर रहा है। इस पूरे समर में कुछ वैचारिक सकारात्मकता है तो वो ये है कि कोरोना महामारी की वजह में ‘मनुष्य’ केन्द्र में है ‘ईश्वर’ नहीं। परन्तु इस सबके बावजूद भी शासन व्यवस्थायें पूर्ववत अपने एजेण्डे पर ही काम करती नज़र आ रही हैं। वैसे भी आपदा को अपने हितों के अवसरों में तब्दील करने में वे पारंगत हैं। उनके लिए यह समस्या विकट नहीं, वरन विशिष्ट है, जिसमें वे अपनी असफलताओं और जिम्मेदारियों को छुपाने में सफल होती जा रही हैं। जबकि आज जरूरत इस बात की है कि कोरोना काल से वैश्विक स्तर पर सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों से उत्पन्न नये परिदृश्य को नीतिगत और क्रियान्वयन के स्तर पर गम्भीरता से समझा और उन्हें सही दिशा में गतिशील किया जाये।
मित्रो, हम-आप और सरकारें इससे सबक लेंगे क्या ? कैसी होगी दुनिया इसके बाद ? कैसा होगा उसका रंग-रूप और चाल-ढाल ? असली सच यह है कि हम और हमारी जिम्मेदार संस्थाओं-व्यवस्थाओं का मन-मस्तिष्क इसको ईमानदारी और समर्पण भाव से समझना चाहें तभी यह डरावनी सामाजिक-राजनैतिक जड़ता खत्म होगी।
दोस्तो, ऐसे समय में हमारे पहाड़ का प्राकृतिक पर्व हरेला अपनी स्वाभाविक जीवंतता के साथ नयी खुशियों के श्रीगणेश का संदेश लिए हमारे द्वार पर मुस्करा रहा है। उसकी मुस्कान हमें अपनी मानवीय भूलों को समझने-समझाने और उसको सुधारने का मौका दे रही है। परन्तु उसका आत्मीय स्वागत करने की उदासीनता पहाड़ी समाज के मन-मस्तिष्क में पसरी हुई है। हम लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर उसे ताक भर रहे हैं। पर वह है कि अपनी ताजगी और आत्मीयता से हमें पुनः प्रकृति का सहचर बनने का आमत्रंण दिये जा रहा है। हमें समझना होगा कि प्रकृति में आई यह नई मुस्कान ही हम सबको आज के अवसाद से उभारेगी। इसके लिए मानवजनित व्यवस्थाओं को प्रकृतिजनित व्यवस्थाओं के अनुरूप बनना ही होगा।
मेरे मित्रो, मानव की स्वयं के लिए निर्मित आपदा के इस काल में आपको नहीं लगता कि मानव से इतर ब्रह्माण्ड का हर जीव और जैव आजकल अधिक खुश और निखरता नजर आ रहा है। प्रकृति प्रफुल्लित है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और नदी-पहाड़ के हिस्से के धरती-आकाश आज खुले-खुले दिख रहे हंै। वे अपने जीवन के स्वर्णकाल में हैं। उनकी खुशी और निखरने का कारण यह नहीं है कि मनुष्य विकट कष्ट में है, वरन् यह है कि आजकल वे अपने हिस्से के नैसर्गिक जीवन का भरपूर आनंद ले पा रहे हैं।
यह काल मानव के लिए कष्टकाल है, परन्तु उससे ज्यादा उसके अपने कर्मफलों को भोगने और उस पर आत्म चिंतन करने का भी है। कोरोना काल ने आम आदमी के रोजगार को ही नहीं, वरन् उसकी मूलभूत सोच, चिंता और सामान्य आत्म चिंतन को नई चुनौतियों एवं अवसरों की ओर मोड़ने के लिए बाध्य किया है। आजकल आदमी अपने और अपनों के इतने करीब रहकर भी नितांत अकेलापन महसूस कर रहा है। अपने आप से बात करने में दिन-रात बीत रहे हैं। आज बाहर नहीं, अन्दर की ताकत ज्यादा काम आ रही है। परिवार और अपना पैतृक परिवेश इन दिनों सबसे बड़ा संबल है। मित्रों में ठसक नहीं, आत्मीयता की आवाज़ है। व्यावसायिक मित्र अपने आप छिटक कर दूर हुए हैं। वर्षों में कमाई गई भौतिक-कृत्रिम दौलत का बोझ भरभरा कर औंधे गिरने को है। भौतिक संसाधन और सुविधायें किसी हद तक निष्क्रिय अवस्था में हैं। आम आदमी सहजता से सीमित संसाधनों से तालमेल बिठाना सीख रहा है। बच्चे अचंभित हैं। उन्हें आज तक जो बताया, समझाया और दिखाया गया आजकल वैसा नहीं है। सामाजिक प्रचलन के टोने-टोटके आजकल खुद ही टटकार हैं। कर्मकांड चुप हैं, धर्म मौन हैं, परंपरायें शिथिल हैं। संस्कृति और पुरातन ज्ञान के दावों पर तुरंत चिल्लाने वाले थक कर सुस्ता रहे हैं। भविष्य फलों को अपने भविष्य का ही पता नहीं चल रहा है। धार्मिक कट्टरता का पर्दाफाश अपने आप ही हो रहा है। धर्मगुरु अन्तंर्धान हो गए लगते हैं। आदमी धर्म से ज्यादा विज्ञान के करीब जा रहा है।
हम अचानक एक नये सामाजिक-आर्थिक संक्रमण काल में आ गए हैं। इस घटना से पूर्व हमें बाह्य सामाजिक परिवर्तन प्रभावित करते थे, आन्तरिक बदलावों में हमने तटस्थता ही अपनाई थी। परन्तु इस नये माहौल में यह चक्र बिल्कुल ही घूम गया है। आम आदमी बाह्य बदलावों से ज्यादा अन्तर्मन के बदलावों से जूझ रहा है।
आप महसूस कर रहे होंगे कि आजकल नेताओं का बड़बोलापन धराशायी होेता जा रहा है। सार्वजनिक और सामुदायिक सेवाओं की अहमियत नागरिकों के सामने मजबूती से आई है। लेकिन उनमें व्याप्त सरकारी तंत्र का खोखलापन, लचरपन और अक्षमता के कारण वह इस समस्या से प्रारंभिक तौर पर ही जूझ नहीं पा रही है। ज्यादातर निजी क्षेत्र और स्वयंसेवी संस्थायें अपने हितों को बचाने की ही फिऱाक में हैं। आये दिन सम्मान बांटने वाले लोग और संस्थायें आजकल अपने सम्मान को बचाने में लगे हैं। कोरोना से पूर्व गांव-नगरों में स्वयंसेवी संस्थाओं का समाजसेवा के प्रति बोलबाला सुनाई-दिखाई देता था। वे आजकल नेपथ्य में चुपचाप हैं। अधिकांश साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं ने अपने कारोबार का नया ठिकाना सोशियल मीडिया को बना दिया है। अब तो आम आदमी को कोरोना के प्रति उनके गाहे-बेगाहे मार्मिक गीत, कहानी और कवितायें कर्कश ध्वनि की तरह चुभने लगे हैं।
तथाकथित नव-उपजे सलाहकारों-शुभचिंतकों की सलाहों का दौर जोरों पर है, परन्तु उसमें समझदारी-प्रासंगिकता को शामिल करना आवश्यक नहीं माना जा रहा है। बैठे-ठाले व्यक्तियों का सोशियल मीडिया में लाइव आने का फैशन अब आतंकित करने लगा है।
इन सबके बावजूद युगों से चली आ रही हमारे समाज की सामुदायिकता जोर-शोर से पीडितों के लिए अपना सर्वस्व प्रदान कर रही है। लोग समर्पित भाव से सामाजिक सेवा कार्य करते हुए न तो फ्रंट में हैं और न फोटो में। सेवा भाव उनके स्वभाव में है, इसलिए उनको इसकी इच्छा मात्र भी नहीं रहती। कोरोना काल में पीड़ित लोगों को राहत देते ये कर्मवीर हर समय सर्वत्र मौजूद हैं। यही कारण है कि लोगांे के मन-मस्तिष्क में सरकार और संस्थाओं से ज्यादा पहचान इन कर्मवीरों की बनी हैं।
आप यह बात भली-भांति समझ रहे हैं कि जो लोग सरकारी तंत्र की संस्थाओं को कोसते फिरते थे, उसके निजीकरण के पक्ष में पुख्ता दलीलें देते नहीं थकते थे, आज उसी में आश्रय तलाश कर रहे हैं। सरकारी तंत्र से संचालित जनसेवायें इस विकट घडी में अपना सर्वोच्च देने को तत्पर हैं, परन्तु दे कैसे ? उनकी जर्जर हालत की पोल-पट्टी सबके सामने निर्वस्त्र है। उसमें जो धैर्य और समझ-बूझ जो दिखनी चाहिए वह भी नदारद है। नतीजतन, वह अपने दायित्वों को ग्रामीण प्रतिनिधियों और आम जन पर डालने पर आमादा होती दिखाई दे रही है। वास्तविकता तो यह है कि नीतिगत कमियों के कारण सरकारी प्रयास प्रभावी होते नहीं दिख रहे हैं।
आपको लग रहा होगा कि देश का आम आदमी कोरोना जैसी बीमारी से दिन-रात लड़ रहा है और सरकार आगामी चुनावों की तैयारी में जुटी है। सरकारों की प्राथमिकता चुनावों में सत्ता को हथियाना है। राज्यों की सरकारों को भी अपने राजनैतिक लाभ-हानि को देखकर सहायता पहुंचाई जा रही है। मीडिया को सच दिखाने से ज्यादा सरकार को बचाने की चिंता खाये जा रही है। झूठ की बुनियाद पर नये-नये सच गढ़ता मीडिया प्रजातंत्र का स्तम्भ न होकर राजनीति और व्यवसाय का बाजारी मुखौटा बनकर रह गया है।
कितनी बड़ी बिडम्बना है कि जो युवा पहाड़ से मैदान जाकर अपना जीवन स्तर सुधारते हुए हमारी स्थानीय अर्थव्यवस्था को आर्थिक संबल प्रदान कर रहे थे, उन्हीं पर इस विपदा की चोट सबसे ज्यादा पड़ी है। ये युवा देश-दुनिया में हमारी थोपी हुई पहचान का प्रतीक नहीं हैं, वरन हमारी मूल पहचान के वास्तविक प्रतिनिधि हैं। आज वह युवा अपने गांव और अपनों की बीच वापस आ रहे हंै। लौटते हुए इन युवा कदमों में उदासी जरूर है पर उनको अपने गांव की ताकत पर भी भरोसा है। यह उनके साथ खड़े होकर उन्हें हौसला देने का वक्त है। हमें यह गम्भीरता से समझना होगा कि उन्हें सरकार और सामाजिक संगठनों के भरोसे अकेला नहीं छोड़ा जा सकता।
मित्रो, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की प्रारंभिक रिपोर्ट कहती हैं कि कोरोना महामारी के असर से विश्व स्तर पर 16 प्रतिशत युवाओं ने अपना रोजगार खोया है। उत्तराखंड में यह आंकड़ा 30 प्रतिशत से कम नहीं होगा। इस हिसाब से तकरीबन 1.5 लाख नये युवाओं को तुरंत रोजगार देने की चुनौती हमारे सामने है। पहाड़ के प्रति गांव में आगामी एक साल के अंदर 7 से 10 नये युवा नये रोजगार प्राप्त करने की लाइन में हैं। अपने रोजगारों से छूटने के बाद वापस आने वाले ये युवा अधिकांशतः 30 वर्ष से कम आयु के हैं। यह वह आयु होती है जब युवक शिक्षा, प्रशिक्षण और रोजगार पर अपने मन-मस्तिष्क को केन्द्रित करता है। मैदानी इलाकों से ज्यादातर वे युवा वापस पहाड़ आ रहे हैं जो कि सेवा क्षेत्रों, यथा होटल, रियल स्टेट, सुरक्षा कार्यों और गैर तकनीकी कार्यों से जुड़े रहे हैं। उनके अनुभवों और हुनर से संबधित कार्यों की उपलब्धता फिलहाल पहाड़ों में बड़े फलक पर नहीं है। अतः अन्य क्षेत्रों की ओर उनको उन्मुख करना होगा, जो कठिन और दीर्घकालिक कार्य है। ऐसे समय में अपने गांव-इलाके वापस आने वाले युवाओं की मनोदशा-मनोवृत्ति को आत्मीयता से समझने और उनमें साहस और सकारात्मकता के भावों को पुनः जागृत करने की जरूरत है। अभी तो उन पर बेवजह छाये अपराध बोध को कम करके उन्हें सामान्य जीवन की मुख्य धारा में लाने की सार्थक पहल करनी होगी।
सज्जनो, जो युवा पहले से ही अपने गांव-इलाके में रहकर बेरोजगारी के दंश को झेल रहे हैं, आने वाले दिनों में रोजगार अवसरों को प्राप्त करने के लिए उनकी प्रतिस्पद्र्धा और ज्यादा कड़ी होने वाली है। विडम्बना यह भी है कि पहाड़ों में रहने वाले अधिकांश युवाओं की आशा भरी नजरें सरकारी नौकरियों की ओर है, जो अब एक सिरे से नदारद हैं। जीवकोपार्जन के लिए स्व रोजगार अपनाना पढ़े-लिखे युवाओं का अन्तिम और मजबूरी में लिया गया विकल्प है। अतः पहली पहल तो युवाओं को सरकारी नौकरी की मृगतृष्णा से उबारने की है।
सरकार संसाधनों के अभाव के बहाने उन क्षेत्रों से भी अधिक से अधिक राजस्व जुटाना चाहती है जिसे सामान्य अवस्था में भी जनकल्याणकारी नीतियों के विरुद्ध समझा जाता है। शराब और खनिज का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है, मानो इनके बिना सरकार अपना राजस्व ही नहीं जुटा पायेगी। सबके मन-मस्तिष्क में यह संदेश गया है कि शराब और खनिज सरकारी आय का प्रमुख जरिया है। हम सबको मालूम है कि इस झूठ के गम्भीर नतीजे उत्तराखंडी समाज को आने वाले समय में दिखेंगे।
सरकार युवाओं को मनरेगा में काम दिलाने से ज्यादा सोच ही नहीं पा रही है। जबकि वास्तविकता यह है कि मनरेगा में पहले ही अतिरिक्त श्रम शक्ति का अपव्यय होता दिख रहा है। मनरेगा बैठे-ठाले व्यक्तियों को रोजगार में शामिल करने हेतु अल्पकालिक और सतही युक्ति है। इसे स्थायी रूप में ग्रामीण रोजगार उपलब्धता का समाधान मान लेने के गम्भीर नकारात्मक प्रभाव होंगे, जो किन्हीं स्तरों पर ग्रामीण समाज में अभी से दिखने भी लगे हैं।
चकबन्दी की बातें खूब हो रही हैं, परन्तु जब व्यावहारिक धरातल पर उसकी शुरूआत होगी तभी उसके लाभों को सराहा जा सकता है। चकबंदी का विचार उन लोगों को तो लुभाता है जो खेती-किसानी से सीधे नहीं जुड़े हैं। जो गांव में रह रहे हैं वो बोले न ‘चकबंदी कराओ’ तब तो बात बने। जो आवाज उठा रहे हैं उनके विचारों पर शंका नहीं है, पर सही और प्रभावी प्रयास तो गांव से निकलकर ही सामने आयेंगे। विडम्बना यह है कि उत्तराखंड मेें सन् 1964 के बाद नया भूमि बंदोबस्त ही नहीं किया जा सका है। आज भी पहाड़ में एक सामान्य ग्रामीण अपनी भूमि का स्वतंत्र खातेदार न होकर संयुक्त हिस्सेदार है। गांव-इलाके की सार्वजनिक भूमि सरकार के प्रभुत्व में है। खाता-खतौनी में दर्ज जमीन और वास्तविक स्थिति में व्याप्त अंतर दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है।
मित्रो, उत्तराखंड में विक्रम संवत् 1852 (सन् 1795) के भयंकर ‘बावनी अकाल’ और सन् 1920 की महामारी में हमारे पितर कई दिनों तक भूख से बेहाल रहे। परन्तु उन्होंने अपनी खेती के परम्परागत बीजों को नहीं खाया। वे लोग जान बचाने जगंलों की ओर भागते समय भी अपने मूल्यवान धन के साथ तोमड़ियों में बीजों को साथ ले जाना नहीं भूले थे। उन्हें विश्वास था कि जब तक ये परम्परागत बीज उनके पास उपलब्ध हंै, उनके जीवन पर संकट नहीं आ सकता। वे आश्वस्त थे कि कुछ समय के बाद अपने इन मौलिक बीजों का खेती में उपयोग करने से वे अकाल पर विजय प्राप्त कर लंेगे। उनका विश्वास सही साबित हुआ। उन्हीं बीजों के बदौलत बाद में अपनी जीवनचर्या को फिर से चलाने में उन्हें विशेष दिक्कत नहीं आई। उनके जीवन में फिर से खुशहाली आ गई थी।
आज हमें फिर विगत शताब्दियों में आई भयंकर विपत्तियों से निपटने में हमारे पूर्वजों द्वारा अपनाई गई सकारात्मकता के बीजों को पुनर्जीवित करने की जरूरत है। पिछले 100 सालों में ग्रामीणों की जीवन शैली का परिदृश्य बदल चुका है। मानवीय समझ और भौतिक सुविधाओं का आधुनिक जीवन शैली के अनुरूप विकास-विस्तार हुआ है। जीवन की आशा और अवसर आज पहले की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी रूप में विद्यमान हैं। उन्हें नई गति और दिशा देने की जरूरत है। अनवरत् सामाजिक विकास में शताब्दी पूर्व के हुनर को पुनस्र्थापित करना और कराना ज्यादा मुश्किल नहीं है।
मित्रो, आज की जर्जर अर्थव्यवस्था को गतिशीलता देने के लिए सबसे पहले स्थानीय उद्यमियों के उत्पादों का सबसे बड़ा खरीददार सरकार को ही बनना होगा। हर स्तर पर उद्यमियों के उत्पाद की गुणवत्ता को परखने से ज्यादा उनको दीर्घकाल तक उद्यमशील बनाये रखने की नीति को बढ़ावा देना होगा। जब द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान तबाह हो गया था तब उसने हर हालत में स्थानीय उत्पादों को सर्वोत्तम मानकर उन्हीं के उपभोग की राष्ट्रीय नीति अपनाई थी। परिणामस्वरूप उस भयंकर संकट से उन्हांेने अपने को उबारा ही नहींे, वरन् आगे का विकास भी किया है।
साथियो, यह समय सामाजिक उत्तेजना का नहीं वरन् जागृत रहकर दूरदर्शी व्यवहार अपनाने का है। इस कोरोना काल ने लाख बुरा किया हो, परन्तु सरकारी, गैर सरकारी, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि वर्तमान व्यवस्थाओं के अनावश्यक ग्लैमर-रुतबे और उनकी जनतांत्रिक जवाबदेही पर जमी धूल को हटाने का कारगर कार्य किया है। यह उम्मीद की जानी चाहिए कि अब इन संस्थायों पर ज्यादा दायित्वशील आचरण अपनाने के लिए आम जन का दबाव निश्चित रूप से बढ़ेगा। सरकारी नीतियों, कार्यक्रमों और अभिकर्मियों की जवाबदेही के प्रति आम लोग जिस तरह सचेत हो रहे हैं, वह रोजगार में आत्मनिर्भरता लाने के साथ ही विचारों में भी परिपक्वता आने के शुभ संकेत हैं। विश्वास किया जाना चाहिए कि आने वाले समय में सामाजिक दायित्वों के प्रति सरकारंे और जिम्मेदार बनेगी।
मित्रो, मैं पुनः आपके स्वस्थ मन और तन की कामना करते हुए यह कहना चाहता हूं कि यह वक्त नकारात्मकता की ओर देखने का नहीं, वरन् अपने कोे और अपनों के बीच की जद्दोजहद से बाहर आकर पहाड़ और पहाड़ी जीवनचर्या के परम्परागत सामंजस्य को देखने-समझने और उसे अपनाने की जरूरत है। यह हम गांठ बांध ले कि यह कार्य केवल सरकारी भरोसे तो कदापि संभव नहीं है। संपूर्ण समाज की सामूहिक नागरिक शक्ति ही आत्मनिर्भर जीवन की जीवंतता को पुनः स्थापित करेगी।
हम जरूर निराश और उदास हैं। परन्तु इस मानवजनित विपदा से उबरने का रास्ता भी तो हमें ही बनाना है। यह मानव जाति पर अवसाद की छाया है और हम बखूबी जानते हैं कि छाया का अस्तित्व हमसे है। हम ही उसके कारक हैं और हम ही उसके निवारक भी हैं। निराशा के इस दौर में गांव के एक किशोर का यह कथन कि ‘‘आज हमें मालूम चला कि हम शहर से ज्यादा अच्छी स्थिति में हैं। गांव आजकल खुशनुमा लग रहा है। यहां आजकल राजनीति से ज्यादा गांव के विकास की बातें हो रही हैं। मां-बाप की परेशानी समझ में आ रही है। बड़े भाई लोग रोजगार की बात बहुत गम्भीरता से कर रहे हंै।’’ आने वाले समय के लिए एक अच्छा संकेत है। हरेला की यह चिठ्ठी इसी भाव के साथ आप तक पहुंच रही है।
हरेले की चिठ्ठी आपके पास हर साल ये याद दिलाने भी आती है कि हमारा परंपरागत संवाद उसी आत्मीयता से जारी रहे, जैसा कि नैनीताल समाचार के जन्म से चला आ रहा है। होने को तो अब चिठ्ठियां अप्रासंगिक हो गई हैं, परन्तु जीवन में सब कुछ प्रांसगिक नहीं भी रहना चाहिए। अप्रासंगिक बातें और तरीके कई बार हमें वहां ले जाते हैं, जहां से हमने जीवन का सफर शुरू किया था। हमारी जीवन यात्रा के वे गवाह और पड़ाव हैं। इस नाते वे हमारे अतीत के सुख-दुःख के साथी भी हैं। छपछपी मित्रों से आत्मीय संवाद के निरंतर रहने पर ही तो लगती है। इसी में जीवन की सार्थकता है। हरेले की चिठ्ठी इसी छपछपी को आप तक पहुंचा रही है।
जो बातें मैंने चिठ्ठी में आपसे कही हैं वे अति बाजारी सूचना के दौर में आप तक अलग-अलग आवरणों में आती-जाती रही हैं। आज पाठक और श्रोता सूचनाओं के आंतक से ड़रा हुआ है। परन्तु इस सबके बीच मेरी और आपकी दोस्ती एक जीवंत मिसाल है, जिसमें वक्त की धूल हमारी मित्रता के धूम-धड़ाके में कभी और कहीं नज़र नहीं आई है।
‘‘आपका पत्र मिला, हाल-चाल मालूम हुए;’’ लिखकर पत्र का उत्तर देने का रिवाज तो अब है नहीं, फिर भी आपकी-मेरी पुरानी दोस्ती हुई इसलिए उम्मीद तो कर ही रहा हूं। और सभी बोलने वाले हुए कि ‘उम्मीद पर दुनिया टिकी है। इसलिए हे मित्रो, तन से न सही मन से ही सही पत्र की पावती तुरंत मुझे भेजने के लिए थोड़ा सा बेचैन हो जाना। यही बेचैनी तो आपकी-मेरी दोस्ती हुई। जब तक मेरे और आपके बीच यह बेचैनी रहेगी तब तक ‘दोस्ती जिन्दाबाद’ रहेगी। अब इसे ‘बेचैनी’ कह लो या ‘दोस्ती’, बात तो एक ही हुई।
हे पाठक प्रवर, समाज में अपनी इसी जींवत मौजूदगी का अहसास दिलाने हरेला के इस तिनड़े को स्वीकारो!
नैनीताल समाचार की ओर से मैं अरुण कुकसाल