केशव भट्ट
लिखने-पढ़ने की अपनी छोटी सी यात्रा में जाने कितने सहयात्री मिले, जो मेरे लेखन शुरू करने की वजह बने। उनसे मुझे देखने और लिखने का शऊर मिला और अपने विचारों पर टिके रहने का हौसला। जब कभी पीछे मुड़कर जीवन की लकीर की ओर देखता हूँ तो कितने सारे चेहरे झिलमिलाते हुए मन की आँखों के सामने से गुज़र जाते हैं!
खादी की वेशभूषा में हमेशा मुस्कुराता हुआ वह चेहरा किसी को भी बरबस अपनी ओर खींच लेता है। वर्षों पहले रास्ते में दिखाई पड़ने पर उन्होंने खुद ही मुझे पुकारा तो मैं असमंजस में ठहर गया। बेहद आत्मीयता से वह बोले, “आपकी खबर पढ़ी नैनीताल समाचार में। आप हमेशा जनता की आवाज को उठाते हैं। मैं भी कुछ मुद्दे दूंगा आपको। बहुत सारे हैं। आप तो हिमालय में जाते रहते हैं, उन यात्राओं पर आपका लिखा मैं पढ़ते रहता हूं। नैनीताल समाचार जब भी आता है तो सारे काम छोड़कर जब तक पूरा पढ़ नहीं लेता, मुझे चैन नहीं मिलता है।”
यह शख्स हैं गरुड़ तहसील में बैजनाथ के पास रहने वाले सदन मिश्रा। यूँ तो मिश्रा जी मूलतः चमोली जिले के हाटकल्याणी गांव के हैं। बचपन में गांधी जी की विचारधारा की बाढ़ में इन्होंने जो डुबकी मारी आज तक उसी में डूबते-उतराते रहते हैं।
अब सदनजी को कैसे बताता कि उन्हीं की तरह मैंने भी औरों की कचकचाट के चलते लिखने की शुरूआत की। नकल और अकल के साथ आधा-अधूरा जो मन में आया उसे नैनीताल समाचार को भेजने लगा। नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन साह मेरे आधे अधूरे दस्तावेजों को सुधारकर अखबार में छाप दिया करते थे। बाद में नैनीताल समाचार पत्र में अपने नाम से छपा लेख पढ़ने के बाद उत्साह में थोड़ा और इजाफ़ा हो जाता था। राजीवदा मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते। इतना ही नहीं कभी-कभार फोन करते या चिट्ठी भेजकर लेख की माँग किया करते थे। उनकी चिट्ठियाँ बहुत आत्मीय होती थीं।
इस तरह नैनीताल समाचार के माध्यम से लिखने-पढ़ने में दिलचस्पी शुरू हो गई। इसमें खबरें पूरे विस्तार से छपती थीं। पत्र के पीछे के पृष्ठ में कुछ अलग मिज़ाज के आलेख छपा करते थे। शंभू राणा के किस्से-कहानियों को पढ़कर मन में उनकी एक खास छवि बन गई थी। वह 1997 का दौर था। उन्हीं दिनों नैनीताल समाचार के संपादकीय सहकर्मी महेश जोशी उर्फ महेशदा से मुलाकात हुई। झक्क सफेद बाल-दाढ़ी वाले महेशदा मुझे अद्भुत इंसान लगे। हर किसी से इतनी आत्मीयता से बतियाते कि उसी के हो जाते थे। अपने स्वनिर्मित अजीबो-गरीब सिद्वांतों की वजह से बेशक थोड़ा अक्खड़ मिजाज भी प्रतीत होते थे। अखबार के लिए वह अकसर ग्रामीण क्षेत्रों की पैदल यात्राएं किया करते थे। उनका मानना था कि पैदल यात्रा में हकीकत से सीधे टकराने का मौका मिलता है, गाड़ियों के सफ़र में कुछ पता नहीं चलता। महेशदा जेब से पूरे फकीर, लेकिन दिल से इतने अमीर कि सारे जहां में अमन-शांति लाने का माद्दा रखते थे। सरल इतने कि हर किसी की बातों का भरोसा कर लें। बागेश्वर में ठहरने का उनका अड्डा मेरे साथ था तो उनके किस्से-कहानियों की पोटली भी मेरे सामने ही खुलती थी। अड्डा क्या था, बंजारों के डेरे जैसा और आज भी उसकी तस्वीर कुछ खास बदली नहीं है। लेकिन वह उसमें भी मगन रहते थे।
महेशदा मुझे नैनीताल समाचार में छपने वाले गढ़वाल-कुमाऊं के लेखकों के बारे में बताते रहते थे। उस दौर में समाचार पत्र में खबरों के अलावा शंभू राणा के दिलचस्प लेख भी छपते थे। समाचार पत्र के अंतिम पृष्ठ में उनका लिखा पढ़ते-पढ़ते मैं उनका मुरीद हो चुका था। महेशदा से मित्रता हुए दो-एक साल ही हुए होंगे कि एक दिन अखबार के काम से महेशदा बागेश्वर पहुंच गए। तभी गांव से बागेश्वर आए मेरे चाचा एक दुर्घटना में घायल हो गए। उन्हें अल्मोड़ा अस्पताल ले जाने की योजना बनी तो मैंने महेशदा से साथ चलने का आग्रह किया और वह तुरंत तैयार भी हो गए। अल्मोड़ा जिला अस्पताल में चाचाजी को भर्ती कराया गया। दूसरे दिन उनका आपरेशन हुआ। महेशदा और मैं चाचाजी की तीमारदारी में जुटे रहे। सुबह गिलासों में चाय लाने की परेशानी होने पर महेशदा एक थर्मस ले आए। उन्होंने बताया कि यहीं नीचे शंभूजी रहते हैं तो उनके डेरे से ले आया। हफ्तेभर बाद डाक्टर ने चाचाजी को घर पर आराम करने की सलाह देकर डिस्चार्ज होने को कहा। मैंने धन्यवाद ज्ञापित करने के मकसद से महेशदा से शंभूजी के घर ले जाने का आग्रह किया। महेशदा तुरंत राजी हो गए।
“शंभूजी के घर में कौन-कौन हैं।? कुछ फल-वल लिए चलते हैं।” मेरे यह पूछने पर महेशदा ने बताया कि वह अकेले ही रहते हैं। “बच्चे, मॉं-बाप कहां रहते हैं?’ उन्होंने जानकारी दी कि वह अकेले ही हैं। घर-परिवार कुछ नहीं है। मुझे यह सुनकर अजीब सा लगा। एक दुकान से कुछ सामान लेकर हम शंभूजी के घर की ओर चल पड़े। बाजार से नीचे बावन सीढ़ी की ओर चले और फिर एक गली में कुछ सीढ़ियां उतरने के बाद हम एक झोपड़ीनुमा घर के सामने थे। चंद सीढ़ियों पर कोने में पानी से भरे प्लास्टिक के गेलन रखे थे। दरवाजे से अंदर कदम रखते ही कमरा खत्म जैसा हो गया था। हम दीवार के साथ चिपककर लगी एक फोल्डिंग चारपाई पर बैठ गए। महेशदा ने हमारा परिचय कराया। कुछ देर बाद शंभूजी ने नीबू की चाय पिलाई। मैं कमरे को देखने में लगा था। किताबों के अलावा वहाँ कुछ भी नहीं था।
“फकीर हुआ यार यह भी। अपने मन का राजा हुआ। किसी की नहीं सुनता। लेकिन लेखन इसका चमत्कारी हुआ।” वापसी में महेशदा ने मुझे शंभू राणा के बारे में तफ़सील से बताया। चाचाजी को लेकर देर शाम को घर पहुंचे। हफ्तेभर बाद पिताजी ने एक नया हुक्म फरमाया, “आज दोपहर बाद अल्मोड़ा चले जाना और वहां मामा के घर में रहना और अगले दिन सुबह स्कूल जाकर बच्चे को हॉस्टल ले आना, उसकी छुट्टियां पड़ गई हैं। मोटर साइकिल आराम से चलाना। लफंडरों की तरह नहीं।” दरअसल तब मेरा बड़ा भतीजा तरुण नैनीतान के निकट दोगांव के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता था। और रात-दिन अपने बापू के साथ-साथ मुझे भी उस बोर्डिंग वाली जेल में डालने का दोषी मान गरियाता रहता था। हांलाकि कुछ सालों बाद भतीजे के अन्य दो भाई भी वहीं धकेल दिये गए और तीनों बारी-बारी से बाथरूम में रो-रोकर हमें गरियाते हुए हम पर वज्रपात होने तक की कामना किया करते थे।
पिताजी का हुक्म मिलते ही दोपहर बाद मैं अल्मोड़ा को रवाना हो गया। अल्मोड़ा में बावन सीढ़ियों पर बाइक सहित शंभूजी के दरवाजे पर पहुंचा तो वह हकबकाकर मुझे देखने लगे कि अभी कुछ ही दिन पहले परिचय हुआ था और यह महाशय आज रहने के वास्ते धमक गया। शाम गहराने लगी तो भोजन की जुगत हुई। मैंने बकरे के अवशेषों को कढ़ाई में ही पका डाला। पहली बार कढ़ाई में मांस बनते देख शंभूजी चौंके। इसके जवाब में उन्होंने उल्टे तवे में रूमाली रोटी बनाकर हिसाब बराबर कर लिया। सुबह मैं भतीजे को लेने निकल गया। शंभूजी कई दिनों तक हैरान रहे। कहते रहे, “अजीब आदमी है यार। अपने ही घर में मुझे लगा जैसे मैं इसका मेहमान हूं।”
वक्त की रफ़्तार के साथ भतीजे भी बड़े होते चले गए और आने-जाने में आत्मनिर्भर भी। ऐसे में शंभूजी के घर पर रुकने के मौके कम हो गए। बाद में शंभूजी, महेशदा के अलावा नैनीताल समाचार के एक और स्तम्भ और प्रकाशक हरीश पंतजी का बागेश्वर में अकसर आना-जाना होने लगा। महेशदा से थोड़ा हटके खिचड़ी दाढ़ी-बाल वाले हरीश पंत उर्फ ‘मिस्टर हैरी’ भी कम मजेदार नहीं हैं। जब भी हमारी जुगलबंदी होती तो मजाल कि कोई दिमाग का इस्तेमाल कर बोले। सभी अपनी दिल की पोटली खोलते चले जाते। महेशदा की पोटली में टू व्हीलर चलाने और जूडो-कराटे सीखने की तमन्ना छुपी हुई थी। मिस्टर हैरी दुनिया में सुकून का सपना संजोये रहते। शंभूजी की पोटली खाली रहती। मिस्टर हैरी ने नैनीताल समाचार से देश-दुनिया में क्रांति का सपना संजोया और घर के दरवाजे को लात मार समाचार के ऑफिस की एक पटखाट में खुद को झौंक दिया। उनके दोस्तों ने एक बार ढलती उम्र का हवाला देकर उन्हें शादी के सपने दिखाए। बमुश्किल वह राजी भी हो गए। तय जगह में उनके मित्र उन्हें लेकर पहुंचे। बातचीत में कन्या पक्ष ने पूछा, “लड़का कहां है?’ मित्र ने बगल में बैठे मि. हैरी की ओर इशारा किया, “यही तो हैं।” उन्हे देखकर संभावित वधू बिफर गई, “क्या यही सांता क्लाज रह गया था मेरे लिए, मुझे नहीं करनी है शादी।” अधेड़ वय की सुंदरी के मुंह से अपनी तारीफ़ में ये अल्फाज सुन हैरी और मित्र वहां से विदा हो लिए और हैरी ने भी ताउम्र कुँवारे बने रहने की घोषणा कर दी।
इधर वक्त सरकता रहा और महेशदा और हैरी के साथ शंभूजी भी आत्मीय हो गए। एक बार शंभूजी ने फ्लोरिडा निवासी डॉ. ब्रायन विज की “आत्मा एक शरीर अनेक, मैनी लाइब्स मैनी मास्टर्स” किताबें पढ़ने को दीं। पढ़ने के बाद मैंने उन्हें फोन पर कहा, “दुनिया कितने मीठे चमत्कारों से भरी हुई है और हम आपस में लड़ते रहते हैं।” इस पर वह गंभीर हो गए और बोले, “क्या पता पिछले किसी जन्म में मैं तुम्हारा पिता रहा होऊंगा और तबकी अपनी खुरापातों का पश्चाताप तुम्हें इस जन्म में करना तय रहा होगा!”
शंभूजी से जब भी पारिवारिक या अन्य मुद्दों पर बात होती तो वह मेरे सवालों का कोई जबाब नहीं देते थे। मैं अनमना सा हो जाता था। बाद में अल्मोड़ा जाने के बाद वह बस से मुझे कोई किताब भिजवा देते और कहते, ‘एक किताब भेजी है इसे जरूर पढ़ना।’ मैं सोचता, ‘अजीब किस्म का आदमी है। मैं क्या कह रहा हूं और ये किताब पढ़ने को कह रहे हैं।’ समय मिलने पर जब मैं किताब पढ़ना शुरू करता तो धीरे-धीरे मुझे मेरे सवालों के जबाब उसमें मिल जाते। शंभूजी का यह तरीका मेरे लिए सुकून भरा रहता।
वर्ष 1999 की बात है जब मैं नया-नया नवभारत टाइम्स से जुड़ गया था। नवभारत टाइम्स से रिटायर हो चुके पत्रकार जयदत्त पंतजी ने इसमें अहम भूमिका निभाई। रिटायर होने के बाद भी वह नवभारत टाइम्स के लिए स्वतंत्र लेखन किया करते थे। उनकी पत्नी कमल पंत भी नवभारत टाइम्स के लिए लिखती थीं। बागेश्वर जिला बनने के बाद जब मैं जयदत्त पंतजी के संपर्क में आया तो एक साल तक खबरों की दीक्षा देने के बाद उन्होंने दिल्ली नवभारत टाइम्स के संपादक को मुझे स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए कह दिया। साल में एक बार दिल्ली में अखबार के ऑफिस में हाजरी बजाने जाना होता था। तब हल्द्वानी के संवाददाता और वरिष्ठ पत्रकार आनंद वल्लभ उप्रेतीजी का साथ मिल जाता था। उम्रदराज होने के बावजूद जब वह बतियाते थे तो बच्चे जैसे बन जाते थे। तब उनके परिजनों में से उनके अलावा मैं उनकी पत्नी से ही परिचित था। हल्द्वानी में ‘पिघलता हिमालय’ के नाम लिखी एक छोटी सी प्रेस के सुंरगनुमा कमरों में ही उनकी गुजर-बसर हुआ करती थी। अंदर के एक कमरे में अपनी दो उंगलियों से वह कम्प्यूटर में टाइप करने में लगे रहते थे। अखबार के अलावा वह अनुवाद के काम में भी लगे रहते थे। साथ ही अपने अनुभवों को कहानियों में उतारा करते थे। जब भी मेरा वहां जाना होता था वह फौरन कम्प्यूटर छोड़ मुझसे मुखातिब हो जाते। “अरे! यह कम्प्यूटर का बक्सा भी गज़ब ही ठैरा हो। आशुतोष (पत्रकार आशुतोष उपाध्याय) ने पीछे पड़कर इसमें लिखना सीखा ही दिया हो! अब धीरे-धीरे इसमें ख्याट-ख्याट कर अपना काम कर ही लेता हूं। तुम भी सीखो इसे यह मजेदार है। कागज में लिखने में काटा-पीटी बहुत हो जाती है, इसमें जहां जो काटना है या जोड़ना है सब हो जाता है।”
वहां अगल-बगल के कमरों में कुछेक जन काम में लगे रहते थे। बाहर एक कोने में फोटेस्टेट का काम भी चलता था। बाद में कई सालों बाद मुझे मालूम पड़ा कि उनके अगल-बगल काम में लगे रहने वाले उन्हीं के पुत्र थे। और दोनों संगीत की कई विधाओं में निपुण हुए। उप्रेती जी को हिमालयी क्षेत्र में घूमने का बहुत शौक था। साल 2000 की मशहूर नंदादेवी राजजात की कठिन यात्रा में वह भी अपना पिट्ठू लिए निकल पड़े। लौटने के बाद उन्होंने ‘राजजात के बहाने’ नाम से अपने यात्रा संस्मरण लिखे जिसे बाद में राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल। दुर्भाग्य से उप्रेतीजी अपने ढेर सारे सपने अधूरे छोड़कर असमय ही दुनिया से विदा हो गए। अब जब भी मैं टाइप करता हूं तो उप्रेतीजी की बातें बरबस याद आ जाती हैं।
दो मालिकों के मालिकाना हक की लड़ाई में धीरे-धीरे नवभारत टाइम्स के प्रांतीय प्रकाशन गायब हो गए और उसमें काम कर रहे बड़े पत्रकारों ने सुनहरे सपने दिखाने वाले अन्य अखबारों के स्वीमिंग पूल में डुबकी मार ली। कई सालों की लड़ाई के बाद नवभारत टाइम्स फिर से ‘एनबीटी’ के नाम से निकला। लेकिन इस बार यह अखबार दिल्ली के आसपास तक सीमटकर रह गया। वर्ष 2008 में उत्तराखंड में देहरादून से ‘हिन्दुस्तान’ अखबार की शुरूआत होनी थी। घाघ पत्रकारों का जमावड़ा दिल्ली-देहरादून में संपादकों के आगे-पीछे मंडराने लगा। समाज के लिए कुछ करना है की तर्ज पर मैंने भी दिल्ली की ओर दौड़ लगाई।
इस बीच लखनऊ में हिंदुस्तान के समाचार संपादक महेश पांडेजी का फोन आया। उन्होंने मुझे नए-नए शुरू हो रहे देहरादून संस्करण के लिए एप्लाई करने को कहा। पांडेजी से मैं कभी मिला नहीं था। उनकी अपनत्व भरी बातों और आवाज से लगा कि वह यंग ही होंगे। इस पर मैंने भी दिल्ली का रुख किया। हिंदुस्तान की बहुमंजिली इमारत के तीसरे तल्ले में देहरादून डेस्क की खोज खबर लेने पर किसी ने एक केबिन की ओर इशारा किया तो मैं वहीं हो लिया। अंदर एक शख्स कंप्यूटर में तल्लीन दिखे। “सर, दिनेश जुयालजी कहां मिलेंगे? मैं बागेश्वर से आया हूं?’ मेरे यह कहते ही वह आत्मीय हो गए। वह आशुतोष उपाध्याय थे, जो कि उस दौर में हिंदुस्तान अखबार में समाचार संपादक के पद पर थे। उनसे बातें करते महसूस हुआ कि वह तो मुझे बखूबी पहचानते हैं। उन्होंने अपने चचेरे भाई डॉ. राजीव उपाध्याय का परिचय देते हुए कहा, “अरे! मैंने ही तो राजीव की बागेश्वर में पहली पोस्टिंग होने पर उनके लिए कमरा सुझाने के लिए नैनीताल समाचार वाले महेश जोशीजी को कहा था।”
बागेश्वर से दिल्ली का सफर और सुबह से भूखा होने पर थकान होना लाजमी थी। लेकिन आशुतोषदा से बातें करने के बाद शरीर में जैसे नई उर्जा आ गई। बीसेक मिनट बातचीत के बाद वह फिर से अपने कंप्यूटर में डूब गए। एसी की ठंडी हवा के झोंको में मुझे कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया मुझे इसका भान ही नहीं हुआ। आधे घंटे तक मैं भविष्य के सुनहरे सपनों में डूबा कुर्सी में सोया रहा। अचानक नींद खुली तो सामने बांई ओर एक कुर्सी में एक सज्जन को मोबाइल में डूबे देखा।
मन में ख्याल आया कि, शायद यही देहरादून संस्करण के नए स्थानीय संपादक होंगे तो उनसे ही मुखातिब हो लिया। मेरा अनुमान सही रहा। वह दिनेश जुयाल थे। बागेश्वर जिले में रिपोर्टर के लिए उन्होंने सवालों की झड़ी लगा दी। मसलन, ‘पलायन पर किस तरह की खबर बनाओगे?’ मैंने उत्तराखंड के सीमावर्ती गांवों का हवाला देकर उन्हें बताया कि पलायन से गांव के गांव खाली हो चुके हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ ही कई दिनों की पैदल यात्रा के बाद शहरनुमा कस्बों में पहुंचने वाले सीमाओं के ये प्रहरी अब खानाबदोश जिंदगी नहीं जीना चाहते। ये सब अब पलायन कर रहे हैं। कुछेक बुजुर्ग ही चार—एक महीने के लिए गांव जाकर अपने घरों को आबाद करते हैं।
जुयालजी ने मुझे सुनकर समझाया कि खबर सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ही बनाई जाती है। मैं बिफरते हुए बोला कि सरकारी आंकड़े तो झूठ का पुलिंदा होते हैं। असल खबरें तो धरातल पर जाकर ही मिल सकती हैं। मैं भूल गया कि मेरा इंटरव्यू चल रहा है। मैंने जुयालजी पर ही सवाल दाग दिया, “आप कितने साल से अपने गांव नहीं गये हैं। आपने अपने गांव में पलायन को रोकने के लिए क्या-कुछ किया? जब आप खुद पलायन कर गए हैं तो नसीहत क्यों देते हैं?” लगा जैसे जुयाल जी कुछ अनमने हो गए हैं। बात खत्म करते हुए उन्होंने कहा, “ठीक है आपको बाद में बता दिया जाएगा।”
आशुतोषदा से विदा ले मैं वापस बागेश्वर लौट आया। दूसरे दिन लखनऊ से महेशदा का फोन आया, “अरे! भाई तुम भी अजीब इंसान हो। तुम इंटरव्यू देने गए थे या लेने।? क्या-क्या उटपटांग सवाल पूछते हो यार!”
मैंने पूरा वाकया बताया तो उधर से महेशदा की गंभीर आवाज सुनाई पड़ी, “बात तो तुम्हारी सही है। लेकिन तुम सवाल में से सवाल निकाल लेते हो। अब तुरंत देहरादून जाओ। मेरी बात हो गई है। अब सवाल मत करना। ठीक है। जमाने के साथ चला करो।”
महेशदा की मीठी डांट के बाद देहरादून को दौड़ लगा दी। वहां नया ऑफिस अस्तव्यस्त दिखा। कुछेक घंटे इंतजार के बाद जुयालजी ने बुलाया। अंदर एटीएम नुमा एक छोटे से केबिन में वह अपना लैपटॉप खोले बैठे थे। सामने एक कुर्सी दिखी तो उनसे इजाजत ले मैं उसमें बैठ गया। अभिवादन के बाद उन्होंने तंज कसा, “मुझ पर दबाव बहुत बना रहे हो।” मैं तुरंत ही बोल पड़ा, “मैंने किसी से कुछ नहीं कहा है, आप बताइये कि किसने आपको मेरे बारे में कहा। मैं खुद ही उनसे बात कर सारी स्थिति साफ कर देता हूं।” हकबकाते हुए वह बोले, “अरे। भाई मेरा क्यों जीना हराम कर रहे हो। ठीक है। यह बताओ कि तुम्हें हम क्यों रखें।?’ मैंने अपने बारे में विस्तार से बताना शुरू किया तो फोटोग्राफी की बात सुन वह चौंक गए। “तुम्हारे पास किस तरह की फोटो हैं।” मैंने अपना लैपटॉप खोल उनके सामने कर दिया। हिमालय समेत फोटोग्राफ का समूचा भंडार देखकर वह बोले, ‘क्या तुम मुझे कुछ फोटो दे सकते हो?” “मैंने इन तस्वीरों का कौन सा अचार डालना है! आपके काम आती हैं तो सब ले लें।” फोटो का खजाना देने के बाद मेरा इंटरव्यू खत्म हो गया। जुयालजी ने केवल यही पूछा था, “टाइपिंग आती है?”
अचानक केबिन में एक हाथ में प्लास्टर बांधे कोई सज्जन आए तो जुयालजी सावधान जैसी मुद्रा में खड़े हो गए। उनकी देखा-देखी मैं भी खड़ा हुआ तो वह शख्स तुरंत ही मेरी कुर्सी में बैठ गए। जुयालजी को उन पर पूरी तरह से लमलेट हुआ देखा तो मैं बाहर निकल लिया। बाहर कुछ लोग कंप्यूटर में उलझे हुए दिखे। खाली कुर्सी दिखी तो मैं वहीं बैठकर उन्हें देखने लगा। वह परेशान थे। पूछा तो पता चला कि वर्ड की फाइल नहीं बन पा रही है। मैंने तत्काल उनकी समस्या हाल कर दी तो वे सब मुझे ऐसे देखने लगे जैसे मैं कोई एलियन हूं। उनमें से एक होलडोल नुमा भरे पेट वाले शख्स मुझसे मुखातिब हो पूछने लगे कि क्या मैं यहीं डेस्क के लिए इंटरव्यू देने आया हूं? मैंने उन्हें बताया कि बागेश्वर जिले के लिए आया हूं तो वह हैरान होते हुए बेाले, “अरे! आपकी जरूरत तो यहां डेस्क में है। हिंदुस्तान अखबार को पांव जमाने में।” वह तुरंत जुयालजी के पास गए और उन्हें खींचते हुए कमरे में लाते हुवे बोले, “सर ये यहीं डेस्क में काम करेगें। इनका काम अच्छा है।” जुयालजी के लिए मैं पहले से आफत था अब एक नई आफत उन्हें सामने दिखाई देने लगी तो “ठीक है-ठीक है” करते रह गए। मैंने देहरादून में काम करने से साफ मना कर दिया तो जुयालजी ने राहत की सांस ली। मुझे उन्होंने “भिखारी को मिलने वाली दक्षिणा जितनी तनख्वाह के बारे में बताया। मैं फौरन राजी हो गया।
देहरादून से हिंदुस्तान अखबार लांच हुआ तो ढोल पीटते हुए दावे किए गए कि अब स्वराज आ जाएगा। अखबार देश-दुनिया में क्रांति ला देगा। एक साल तक अखबार देहरादून के आस-पास के बड़े शहरों में ही मंडराता रहा। वर्ष 2009 में कुमाऊं में भी इसकी शुरुआत कर दी गई। इस पर मैंने अमर उजाला के लिए काम कर रहे घनश्याम जोशी को भी साथ लेकर उन्हें ही सारी जिम्मेदारी सौंप दी। खबरें लिखने में घनश्याम का कोई सानी नहीं हुआ और संपादन के साथ-साथ वह विज्ञापन नीति पर भी उनकी अच्छी पकड़ हुई। शुरुआती दौर में खबरों को जन समस्याओं पर केंद्रित कैसे किया जाय इस पर ढेरों रूहानी बातें होती थीं। धीरे-धीरे विज्ञापनों ने खबरों की जगहें हड़पनी शुरू कर दीं और धीरे-धीरे मीटिंगों में जिलों के पत्रकारों को भी विज्ञापन की रसीद बुक, ‘टारगेट’ पूरा करने वास्ते पकड़ा दी जाने लगीं। जाहिर है पत्रकारिता के इस मिज़ाज से मेरा मोहभंग होना ही था।
एक दिन अचानक लखनऊ से महेशदा का फिर से फोन आया। उन्होंने बताया कि बागेश्वर जिले के लिए आकाशवाणी संवाददाता की पोस्ट खाली है, विज्ञप्ति निकली है तुरंत अप्लाई करो। मैंने उदासीनता दिखाई लेकिन वह नहीं माने तो मैंने भी उनका मन रखने के लिए आवेदन कर दिया। कुछेक सालों बाद आकाशवाणी का बोर्ड बैठा और मुझे ले लिया गया। हिंदुस्तान अखबार को घनश्याम ने बखूबी संभाल लिया तो मैंने अखबार से विदा ले ली। वर्ष 2017 में देहरादून से दूरदर्शन समाचार की शुरूआत हुई तो आकाशवाणी के संवाददाताओं को ही प्राथमिकता दी गई। अब आलम यह है कि अखबार कहें या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हर जगह सरकारी भोंपू को लेकर खड़ा होना पड़ता है। जनता की समस्याएं अब खबर की श्रेणी में नहीं आतीं। खबरों में खबर कम छुट्टभइयों का प्रचार ज्यादा होता है।
एक बार सदन मिश्राजी ने मुझे चितरंजन दास की लिखी पुस्तक ‘शिलातीर्थ’ दी थी। मैंने उनसे पढ़ने का वादा किया, लेकिन मैं दूसरी व्यस्तताओं में फंसा रहा। एक बार जब तुंगनाथ यात्रा से वापस आया तो उन्होंने मुझसे बेहद आत्मीयता से ‘शिलातीर्थ’ को पढ़ने की याद दिलाते हुए कहा, “इसमें ‘दादा’ ने तुंगनाथ की पैदल यात्रा के बारे में भी लिखा है पढ़ना जरूर।”
सदनजी के आग्रह के बाद मैंने किताब के बीच में तुंगनाथ के बारे में पढ़ना शुरू किया तो पता चला कि अब का चोपता तब चोपड़ा हुआ करता था। यह वर्ष 1959 की बात है। पन्ने पलटे तो सदन मिश्राजी के बचपन की बातें पता चली कि आगरा में जब वह मुफलिसी के दौर से गुजर रहे थे तो उनकी मुलाकात चितरंजन दासजी से हुई थी। दासजी को जब उनकी गुरबत का पता तो उन्होंने बिना देर किए काफी मदद की। बाद में जब ‘दादा’ को पता चला कि सदनजी हिमालय की गोद में रहते हैं तो उनका सदनजी से जुड़ाव और भी गहरा हो गया। उन्होंने हिमालय देखने की इच्छा जाहिर की तो सदनजी खुश हो लिए। ‘दादा’ ने परीक्षा का काम निपटाया और सदनजी के साथ उनके गांव ‘हाटकल्याणी’ के लिए निकल पड़े। बाद में हाटकल्याणी से बद्री-केदार की उनकी पैदल यात्रा शुरू हुई जिसमें अपने गुरु के साथ सदन मिश्राजी के युवावस्था के ढेरों अनुभव रहे।
सदन मिश्रा जैसे कई समर्पित शख्स जब भी मेरी जिंदगी में आए, उनसे मुझे एक नई ऊर्जा मिलती रही। इधर सदन मिश्रा उम्रदराज होने के बावजूद जनता के कामों में दिन-रात जुटे रहते हैं। एक दिन हड़बड़ी में मिले तो बोले, ‘आजकल मैं अपने भूत के बारे में लिख रहा हूं कि जवानी के जोश में मैंने क्या-क्या किया।
समय बिना रुके भागता चला जा रहा है। इधर शंभूजी का लेखन भी धीमा पड़ने लगा है। महेश जोशी बुढ़ापे की दलहीज पर भी अपने ‘क्रांतिकारी विचारों’ को थामे हुए हैं। हरीश पंत ने लंबी बीमारी से उबरकर ‘क्रांति’ के लिए घर छोड़ने की नासमझी को समझा और घर वापसी की। समाज में अखबारों की जगह तेज़ी से इलेक्ट्रॉनिक चैनल, पोर्टल और यूट्यूबरों की बाढ़ ले रही है। हर कोई खबरची बन गया है, जबकि समस्याएं हैं कि दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही हैं।
धर्म के नाम पर देश की जनता को हांका जा रहा है। युद्ध हो रहे हैं। आदमी आदमी को मारने पर तुला है। इस सबके बीच में अकसर धरती भी कंपायमान होकर अपनी बेचैनी का अहसास कराती रहती है लेकिन खुद को सर्वोपरि मान हैवानियत का लबादा ओढ़े लोग कहते हैं कि, ‘सब ठीक ही तो है। विकास का पहिया भाग रहा है!