राजीव लोचन साह
उत्तराखंड विधानसभा में समान नागरिक संहिता पर कानून बगैर ज्यादा बहस या शोर शराबे के पारित हो गया है। उत्तराखंड देश का पहला प्रदेश है, जहाँ ऐसा कानून बना है। इसके लिये प्रदेश सरकार अपनी पीठ खुद थपथपा रही है और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी में उसी तरह उल्लास का भाव है, जैसे अब तक अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा समारोह को लेकर था। संविधान के जानकारों और अनेक जागरूक लोगों को इस कानून में अनेक अव्यावहारिकतायें और खतरे दिखाई दे रहे हैं। एक तो यह कि जब इस कानून की परिधि से कुछ जनजातियों को बाहर कर दिया गया है तो फिर यह ‘समान’ कहाँ रहा ? इसके पीछे एक समुदाय विशेष को लक्ष्य करने की मंशा ज्यादा दिखाई दे रही है। इस कानून में ‘लिव इन रिलेशनशिप’ को हतोत्साहित करने की मंशा भी है। इस तरह के रिश्ते में रहने वाले लोगों को अपना पंजीकरण अनिवार्य रूप से करवाना होगा, अन्यथा वे जेल तथा अर्थदण्ड के भागी होंगे। क्योंकि ऐसा कानून पहली बार बना है, अतः इसको लेकर जिज्ञासायें अनेक हैं और देश भर में इसको लेकर चर्चा हो रही है, अतः इसके बारे में सही राय बना पाना अभी सम्भव नहीं होगा। मगर हमारा सवाल दूसरा है। कोई कानून क्यों बनना चाहिये और क्या कानून बना देने मात्र से उस पर अमल होना सम्भव हो जाता है। उत्तराखंड की अनेक ज्वलन्त समस्यायें हैं, जिनके नाम गिनाने की यहाँ जरूरत नहीं है। पूछने पर प्रदेश का अति सामान्य व्यक्ति भी उनके बारे में बता देगा। तो इस कानून से उसकी किस समस्या का समाधान हो रहा है ? क्या इस कानून से उसकी जिन्दगी में जरा सा भी बदलाव आयेगा ? फिर कानून बनने के बाद क्या लागू होते भी हैं ? वर्षों पहले बने एक कानून के अनुसार सार्वजनिक स्थानों में धूम्रपान करने पर दंड का प्रावधान है। क्या आपने कभी इस कानून को लागू होते हुए देखा। एक राजनैतिक एजेंडा के तहत भले ही यह कानून कुछ समय तक चले, मगर फिर इसका धूल खाने का ही वक्त आयेगा।