विनोद पांडे
कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति एन.के. जोशी की नियुक्ति विवादों में घिर गयी है। एन.के.जोशी की इस पद पर नियुक्ति 8 मई 2020 को हुई थी। उनकी नियुक्ति को उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका के माध्यम से चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ता रवीन्द्र जुगरान ने हाईकोर्ट में दायर अपनी याचिका में कहा है कि एन.के.जोशी कुलपति पद के निर्धारित योग्यता और अर्हता नहीं रखते हैं और उन्होंने कुलपति के पद के लिए प्र्रस्तुत आवेदन पत्र के बायोडेटा में गलत और भ्रामक जानकारियां दी हैं। रवीन्द्र जुगरान उत्तराखण्ड आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं, जो मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा कांड के समय आंदोलनकारियों का नेतृत्व करते हुए पुलिस के अत्याचार के शिकार भी हुए थे। वे इससे पहले भी कई भ्रष्टाचार के प्रकरणों में जनहित याचिकाऐं दायर कर चुके हैं।
विश्वविद्यालय के लिए कुलपति के पद पर किसी व्यक्ति की तैनाती के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और यूपी यूनीवर्सिटीज एक्ट में नियम बने हैं। इस पद की योग्यता और अर्हता में उच्च स्तर की योग्यता, निष्ठा, मनोबल व संस्था के प्रति समपर्ण के अलावा किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर 10 वर्ष का अनुभव या किसी शोध संस्थान या अकादमिक प्रशासनिक संस्थान में समान पद पर अनुभव निर्धारित किया है। इस पद पर नियुक्ति के लिए निर्धारित प्रक्रिया के अंर्तगत पहले राज्यपाल जो कि कुलाधिपति होते हैं, योग्य उम्मीदवारों से आवेदन आमंत्रित करते हैं। इसके बाद एक सर्च कमेटी का गठन करते हैं। ये सर्च कमेटी योग्य उम्मीदवारों से तीन अभ्यर्थियों का चयन करती है। तदुपरांत राज्यपाल उन तीन अभ्यर्थियों से एक व्यक्ति को कुलपति के रूप में नामित करती है।
याचिका में कुलाधिपति (राज्यपाल), कुमाऊँ विश्वविद्यालय, सर्च कमेटी के अलावा एन.के. जोशी को भी पक्षकार बनाया गया है। कुलाधिपति और सर्च कमेटी पर आरोप है कि उन्हें एन.के. जोशी के प्रति अनावश्यक पक्षपात किया है। एन.के. जोशी पर आरोप है कि उन्होंने अपना बायो डेटा गलत दिया है और गलतबयानी की है। इसका अर्थ है कि अगर ये आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो न केवल उनकी नियुक्ति खारिज होगी बल्कि उन पर शपथ लेकर गलत बयान देने का मामला भी चल सकता है।
याचिका में कहा गया है कि उनकी शिक्षा संबधी अभिलेख भ्रामक हैं। उन्होंने एम.एससी. भौतिक विज्ञान से किया है और अपना पी.एच.डी. वन विज्ञान विषय में तथा प्रोफसर पद पर सेवा कम्प्यूटर साइंस विषय में की है। इसलिए उनकी शैक्षिक अर्हता भ्रामक है। वे किसी भी राजकीय विश्वविद्यालय या संस्था में कभी भी प्रोफेसर नहीं रहे। इसलिए वे कुलपति के लिए नियमावली में निर्धारित योग्यता और अर्हता भी नहीं रखते हैं। इसलिए उनकी नियुक्ति को नियमविरूद्ध (अल्ट्रा वायरस) घोषित किया जाय। याचिका में यह भी कहा गया है कि उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने 3 दिसम्बर 2019 को इसी तरह नियम विरूद्ध नियुक्ति के लिए दून विश्वविद्यालय के कुलपति चन्द्रशेखर नौटियाल की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का संदर्भ लेते हुए रद्द कर दिया था।
याचिकाकर्ता ने कहा है कि उसने इनका बायोडेटा जो कि कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति पद के आवेदन हेतु लगाया था, उसे सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त किया है तथा उसे उसमें जोशी द्वारा दी गई नियुक्तियों व योग्यताओ की सूचना के संबध में विरोधाभास है। जैसे उन्होंने भारतीय वन प्रबंध संस्थान भोपाल में स्वयं को संकाय सदस्य बताया है जबकि वे वहां पर सिस्टम एनालिस्ट थे जो कि एक गैर शैक्षणिक तकनीकी पद है। इसी तरह उन्होंने 2017 में अपने एक शोध पत्र में स्वयं का पद निदेशक उत्तरांचल विश्वविद्यालय लिखा है जबकि बायोडेटा में उसी समय में स्वयं को उस विश्वविद्यालय का कुलपति बताया है। उन्होंने स्वयं को दो पुस्तकों का लेखक बताया है लेकिन उन किताबों के नाम, उनके प्रकाशक का नाम आदि की सूचना नहीं दी है। उनके 2017 में अन्य व्यक्तियों के साथ छपे एक शोध पत्र जिस शोध पत्रिका में छपे हैं, जब इस शोध पत्रिका की प्रतिष्ठा के बारे में खोजबीन की गई तो सूचना मिली है कि ये शोध पत्रिका को “प्रीडेटरी जरनल” यानी परभक्षी पत्रिका की श्रेणी में रखा गया है। एक संस्था जो कि अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर इन शोध पत्रिकाओं की प्रतिष्ठा का आंकलन करती है, इस श्रेणी में उन पत्रिकाओं को रखती है जिनकी प्रमाणिकता संदिग्ध होती है।
इस याचिका में प्रार्थना की गई है कि इस प्रकरण में “कुओ वारंटो” के अंर्तगत कार्यवाही की जाय। “कुओ वारंटो” किसी लोक सेवक के पद पर नियुक्ति के संबध में एक न्यायिक हस्तक्षेप है। जिसके आधार पर किसी व्यक्ति की किसी पद पर की गई नियुक्ति को अदालत में कोई व्यक्ति इस आधार पर चुनौती दे सकता है कि स्पष्ट किया जाय कि वह व्यक्ति इस किस योग्यता के आधार पर नियुक्त हुआ है। यह जरूरी नहीं है कि उस नियुक्ति से याचिकाकर्ता के हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा हो।
याचिका में यह भी कहा गया है कि कुलपति पद पर इस नियुक्ति के संबंध में राजीव लोचन साह संपादक नैनीताल समाचार और इंद्रेश मैखुरी पत्रकार और पूर्व छात्र नेता व भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य ने कुलाधिपति को इस संबंध में प्रत्यावेदन दिया लेकिन उन्होंने इस संबध में कोई कार्रवाई नहीं की।
अब देखना है कि इस मामले में अदालत की कार्रवाई किस प्रकार की होती है। अगर आरोप सत्य पाये गये तो न केवल वर्तमान कुलपति के लिए बहुत मुश्किलें बढ़ेंगी साथ ही इसमें प्रदेश सरकार की शिक्षा के प्रति गंभीरता के प्रति गंभीर प्रश्न उठेंगे। क्योंकि राज्यपाल भले ही कुलाधिपति हों लेकिन विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को समाप्त करने में सरकारों के निहित स्वार्थ होते हैं। कमजोर और अयोग्य व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाने से अवैध नियुक्तियों का रास्ता आसान हो जाता है। भारत जैसे देश में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक लगातार स्तरहीन होते जा रही है। इस याचिका के अलावा ईमानदारीपूर्ण कदम उठाने की जरूरत है। मात्र एक गलत नियुक्ति को रद्द करवा देने से भविष्य में किसी बेहतरी की उम्मीद करना अत्यधिक आशावाद होगा। निश्चित रूप से जिन व्यक्तियों ने शिक्षा व्यवस्था में भ्रष्टाचार के प्रकरणों को सामने लाने के प्रयत्न किये हैं उन्हें चाहिये कि वे शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के लिए व्यापक आंदोलन करें, निश्चित रूप से उन्हें जन समर्थन मिलेगा और संभव है कि शिक्षा व्यवस्था में बदलाव भी शुरू हो।
विश्वविद्यालय के लिए कुलपति के पद पर किसी व्यक्ति की तैनाती के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और यूपी यूनीवर्सिटीज एक्ट में नियम बने हैं। इस पद की योग्यता और अर्हता में उच्च स्तर की योग्यता, निष्ठा, मनोबल व संस्था के प्रति समपर्ण के अलावा किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर 10 वर्ष का अनुभव या किसी शोध संस्थान या अकादमिक प्रशासनिक संस्थान में समान पद पर अनुभव निर्धारित किया है। इस पद पर नियुक्ति के लिए निर्धारित प्रक्रिया के अंर्तगत पहले राज्यपाल जो कि कुलाधिपति होते हैं, योग्य उम्मीदवारों से आवेदन आमंत्रित करते हैं। इसके बाद एक सर्च कमेटी का गठन करते हैं। ये सर्च कमेटी योग्य उम्मीदवारों से तीन अभ्यर्थियों का चयन करती है। तदुपरांत राज्यपाल उन तीन अभ्यर्थियों से एक व्यक्ति को कुलपति के रूप में नामित करती है।
याचिका में कुलाधिपति (राज्यपाल), कुमाऊँ विश्वविद्यालय, सर्च कमेटी के अलावा एन.के. जोशी को भी पक्षकार बनाया गया है। कुलाधिपति और सर्च कमेटी पर आरोप है कि उन्हें एन.के. जोशी के प्रति अनावश्यक पक्षपात किया है। एन.के. जोशी पर आरोप है कि उन्होंने अपना बायो डेटा गलत दिया है और गलतबयानी की है। इसका अर्थ है कि अगर ये आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो न केवल उनकी नियुक्ति खारिज होगी बल्कि उन पर शपथ लेकर गलत बयान देने का मामला भी चल सकता है।
याचिका में कहा गया है कि उनकी शिक्षा संबधी अभिलेख भ्रामक हैं। उन्होंने एम.एससी. भौतिक विज्ञान से किया है और अपना पी.एच.डी. वन विज्ञान विषय में तथा प्रोफसर पद पर सेवा कम्प्यूटर साइंस विषय में की है। इसलिए उनकी शैक्षिक अर्हता भ्रामक है। वे किसी भी राजकीय विश्वविद्यालय या संस्था में कभी भी प्रोफेसर नहीं रहे। इसलिए वे कुलपति के लिए नियमावली में निर्धारित योग्यता और अर्हता भी नहीं रखते हैं। इसलिए उनकी नियुक्ति को नियमविरूद्ध (अल्ट्रा वायरस) घोषित किया जाय। याचिका में यह भी कहा गया है कि उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने 3 दिसम्बर 2019 को इसी तरह नियम विरूद्ध नियुक्ति के लिए दून विश्वविद्यालय के कुलपति चन्द्रशेखर नौटियाल की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का संदर्भ लेते हुए रद्द कर दिया था।
याचिकाकर्ता ने कहा है कि उसने इनका बायोडेटा जो कि कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति पद के आवेदन हेतु लगाया था, उसे सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त किया है तथा उसे उसमें जोशी द्वारा दी गई नियुक्तियों व योग्यताओ की सूचना के संबध में विरोधाभास है। जैसे उन्होंने भारतीय वन प्रबंध संस्थान भोपाल में स्वयं को संकाय सदस्य बताया है जबकि वे वहां पर सिस्टम एनालिस्ट थे जो कि एक गैर शैक्षणिक तकनीकी पद है। इसी तरह उन्होंने 2017 में अपने एक शोध पत्र में स्वयं का पद निदेशक उत्तरांचल विश्वविद्यालय लिखा है जबकि बायोडेटा में उसी समय में स्वयं को उस विश्वविद्यालय का कुलपति बताया है। उन्होंने स्वयं को दो पुस्तकों का लेखक बताया है लेकिन उन किताबों के नाम, उनके प्रकाशक का नाम आदि की सूचना नहीं दी है। उनके 2017 में अन्य व्यक्तियों के साथ छपे एक शोध पत्र जिस शोध पत्रिका में छपे हैं, जब इस शोध पत्रिका की प्रतिष्ठा के बारे में खोजबीन की गई तो सूचना मिली है कि ये शोध पत्रिका को “प्रीडेटरी जरनल” यानी परभक्षी पत्रिका की श्रेणी में रखा गया है। एक संस्था जो कि अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर इन शोध पत्रिकाओं की प्रतिष्ठा का आंकलन करती है, इस श्रेणी में उन पत्रिकाओं को रखती है जिनकी प्रमाणिकता संदिग्ध होती है।
इस याचिका में प्रार्थना की गई है कि इस प्रकरण में “कुओ वारंटो” के अंर्तगत कार्यवाही की जाय। “कुओ वारंटो” किसी लोक सेवक के पद पर नियुक्ति के संबध में एक न्यायिक हस्तक्षेप है। जिसके आधार पर किसी व्यक्ति की किसी पद पर की गई नियुक्ति को अदालत में कोई व्यक्ति इस आधार पर चुनौती दे सकता है कि स्पष्ट किया जाय कि वह व्यक्ति इस किस योग्यता के आधार पर नियुक्त हुआ है। यह जरूरी नहीं है कि उस नियुक्ति से याचिकाकर्ता के हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा हो।
याचिका में यह भी कहा गया है कि कुलपति पद पर इस नियुक्ति के संबंध में राजीव लोचन साह संपादक नैनीताल समाचार और इंद्रेश मैखुरी पत्रकार और पूर्व छात्र नेता व भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य ने कुलाधिपति को इस संबंध में प्रत्यावेदन दिया लेकिन उन्होंने इस संबध में कोई कार्रवाई नहीं की।
अब देखना है कि इस मामले में अदालत की कार्रवाई किस प्रकार की होती है। अगर आरोप सत्य पाये गये तो न केवल वर्तमान कुलपति के लिए बहुत मुश्किलें बढ़ेंगी साथ ही इसमें प्रदेश सरकार की शिक्षा के प्रति गंभीरता के प्रति गंभीर प्रश्न उठेंगे। क्योंकि राज्यपाल भले ही कुलाधिपति हों लेकिन विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को समाप्त करने में सरकारों के निहित स्वार्थ होते हैं। कमजोर और अयोग्य व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाने से अवैध नियुक्तियों का रास्ता आसान हो जाता है। भारत जैसे देश में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक लगातार स्तरहीन होते जा रही है। इस याचिका के अलावा ईमानदारीपूर्ण कदम उठाने की जरूरत है। मात्र एक गलत नियुक्ति को रद्द करवा देने से भविष्य में किसी बेहतरी की उम्मीद करना अत्यधिक आशावाद होगा। निश्चित रूप से जिन व्यक्तियों ने शिक्षा व्यवस्था में भ्रष्टाचार के प्रकरणों को सामने लाने के प्रयत्न किये हैं उन्हें चाहिये कि वे शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के लिए व्यापक आंदोलन करें, निश्चित रूप से उन्हें जन समर्थन मिलेगा और संभव है कि शिक्षा व्यवस्था में बदलाव भी शुरू हो।