विनोद पाण्डे
आज दीप दाज्यू का पीपलपानी (बारहवाँ) सम्पन्न हो गया। ऐन दीवाली के बीचोबीच गोवर्द्धन पूजा के दिन, 5 नवम्बर को अचानक उनके निधन का समाचार मिला। वे कुछ दिन से बीमार चल रहे थे और काफी कमजोर हो गये थे। बी. डी. पाण्डे अस्पताल में चिकित्सक उनके पुत्र डॉ. अनिरुद्ध गंगोला ने हल्द्वानी एक निजी अस्पताल में जाँच करवायी तो अग्न्याशय में संक्रमण का पता चला था। इस बीमारी का निदान करने का वक्त भी नहीं मिला।
मेरी जानकारी में दीप दाज्यू यानी डॉ. दीप चन्द्र गंगोला एक मजबूत इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे। मैंने उन्हंे एक बार को छोड़ कर कभी बीमार या घर में बैठे नहीं देखा। ये अपवाद तीन साल पहले तब का है जब रात में स्कूटर से दुकान से घर जाते समय उन्हें किसी वाहन ने टक्कर मार दी। उनके सिर में गंभीर चोट आयी, वे कुछ समय तक बेहोश रहे और धीरे-धीरे ठीक होने लगे। हमने उन्हें राय दी कि वे जब तक दुकान पर नहीं बैठेंगे उनका स्वास्थ्य पूरी तरह ठीक नहीं होगा। उन्होंने सचमुच में हमारी राय मान ली और वे दुकान पर बैठने लगे और वे वास्तव में पूरी तरह ठीक हो गये। अब की बार उन्हें शायद कभी ध्यान आ पड़ा कि उनकी उम्र करीब 83 साल हो गयी है। शायद उन्होंने तय कर लिया हो कि बस, अब हो गया।
चार साल पहले अपनी पत्नी लीला गंगोला की मृत्यु के बाद वे कुछ अकेले जैसे हो गये थे। हालांकि उनके छोटे भाई डॉ. डी पी गंगोला के साथ उनका परिवार नैनीताल के आदर्श संयुक्त परिवारों में से एक है। वे बताते थे कि उनकी धर्मपत्नी जो कि नैनीताल नगरपालिका के पूर्व चेयरमैन स्व. मनोहर लाल साह जी की पुत्री थीं, गृह प्रबंध में अद्भुत थी। वे एक प्रकार से पूरे घर की प्रबंधक थीं। घर के सभी सदस्य व्यस्त रहते थे। निश्चित रूप से उनका निधन पूरे परिवार की अपूरणीय क्षति रही होगी। लेकिन दीप दाज्यू ने सब कुछ संभाल लिया था, क्योंकि अभी उन्हें उनके परिवार के आजीविका का आधार इन्द्रा फार्मेसी को अपने भतीजे अभिषेक के हाथों में सौंपना था। तीन वर्ष पहले उनके साथ हुई दुर्घटना के बाद से अभिषेक ने धीरे-धीरे इंन्द्रा फार्मेसी की व्यवस्था संभालना शुरू कर दिया और जल्दी ही पूरा नियंत्रण स्थापित कर दिया था। शायद दीप दाज्यू संतुष्ट हो गये हों।
इन्द्रा फार्मेसी दवा की केवल एक दुकान नहीं है। बल्कि नैनीताल में एलोपैथिक दवाओं के विकास का इतिहास भी है। दीप दाज्यू बताते थे कि उनके दादा इन्द्र लाल साह के समय से ही अनेक लोग इस दुकान में काम सीखने व सलाह लेने आते थे, क्योंकि उस समय आज की जैसी बनी बनायी दवायें नहीं आती थीं। कैमिस्ट के पास कई तरह के दवाओं के लवण होते थे जिन्हें आज कल एपीआई (एक्टिव फार्मास्यूटिकल इन्ग्रेडियेंट) कहते हैं। फार्मेसिस्ट इन्हें एक मीठे रंगीन द्रव मंे मिलाकर किसी बीमारी के लिए कंपाउंड बनाते थे। इसलिये इन लोगों को तब कम्पाउण्डर भी कहा जाता था। इस तरह की दवाओं को मिक्सचर कहा जाता था, जिन्हें शराब के खाली पव्वों में भरा जाता था और उसमें पव्वे की पूरी लंबाई में एक षठकोणों की पट्टी के रूप में कागज को चिपका दिया जाता था ताकि मरीज उस बोतल से बराबर मात्रा में दवा ले सके।
नैनीताल में कई व्यापारिक प्रतिष्ठान बने और समाप्त हुए पर इन्द्रा फार्मेसी अपने पुराने गौरव के साथ आज भी स्थाापित है। इसे इस रूप मंे लाने में दीप दाज्यू का महत्वपूर्ण योगदान रहा। जब उन्होंने जब इसकी जिम्मेदारी संभाली थी तब यह एक नाजुक दौर से गुजर रही थी। दीप दाज्यू के पिताजी बसंत गंगोला जी एक निपुण चिकित्सक थे, परन्तु मधुमेह और बाद में ग्लूकोमा के कारण उनकी कार्यक्षमता क्षीण होती चली गई। उस समय दीप दाज्यू डी.एस.बी. डिग्री कॉलेज में रसायन विज्ञान के एक होनहार छात्र थे और उसी में अपना भविष्य बनाना चाहते थे। उन्होंने रसायन विज्ञान में ही पी.एचडी. भी की और शेरउड कॉलेज में दो साल पढ़ाया भी। लेकिन पिता के स्वास्थ्य के कारण उन्हें अपने पारिवारिक चिकित्सा के व्यवसाय को अपनाना पड़ा। उनका यह निर्णय भले ही मजबूरी में लिया गया हो, पर इससे नैनीताल में चिकित्सा के क्षेत्र में एक मजबूत नींव पड़ी। आज इन्द्रा फार्मेसी दवा की एक विश्वसनीय दुकान तो है ही, इसमें दो क्लीनिक भी हैं। एक डॉ. दाऊ नाम से विख्यात उनके छोटे भाई डॉ. डी.पी. गंगोला की और दूसरी उनके भतीजे डॉ. अभिनव गंगोला (डेंटिस्ट) की।
सबसे महत्वपूर्ण बात, जिसे शायद कम लोग जानते हों कि दीप दाज्यू एक आन्दोलनकारी रहे और इन्द्रा फार्मेसी कई आंदोलनकारियों का अड्डा भी रहा। गिर्दा का तो ये एक स्थायी स्टेशन था। दीप दाज्यू हर आंदोलन में अपनी भागीदारी जरूर दर्ज करवाते थे।
पुत्र अनिरुद्ध के अतिरिक्त दीप दाज्यू की एक बेटी अदिति है, जो अमेरिका में रहती हैं। संयुक्त परिवार की परंपराओं का उनकी आदतों में गहरा प्रभाव पड़ा था। किसी भी तरह के निमंत्रण में वे अनिवार्य रूप से न केवल जाते थे बल्कि वे हमेशा कार्यक्रम से पहले सुबह या दिन में जब आम तौर पर लोग नहीं जाते, वे जाकर पूरी कामों की तफसील पा लेते थे। इसी तरह हमारे नयना ज्योति के नेत्र शिविरों में वे आकर चुपचाप सारी जानकारी प्राप्त कर लेते और जिस दवा या सामान की कमी होती उसे वे चुपचाप पहंुचा देते थे। कई बार मरीजों को जब दवा मिलने में परेशानी होती तो अपनी दुकान में वे दवाएँ रखवा देते। इसी तरह आंदोलनों की हर सभा में वे जरूर शिरकत करते थे। प्रतिष्ठान के कामों की व्यस्तता के बीच से वे कैसे इतना समय निकाल लेते थे, यह जानना किसी के लिए भी एक प्रेरणा का विषय हो सकता है।
दीप दाज्यू के पास विधिवत् एक डाक्टर की डिग्री, भले ही वह जंतु विज्ञान में पीएच. डी. हो, थी, जिस कारण कई लोग उन्हें चिकित्सक ही समझते थे। उनके पास फार्मेसी में काम करने का पचास साठ-साल का अनुभव भी था पर वे आमतौर पर अपनी ओर से किसी को कोई दवा का परामर्श नहीं देते थे। मजबूरी में कभी देना पड़े तो बहुत ही सुरक्षित और मामूली दवा देते। यह एक आदर्श चिकित्सकीय नैतिकता है। हां, वे हर किसी का रक्तचाप निःशुल्क नापते थे। नापने के बाद एक कागज में उसे लिख कर भी देते थे।
दीप दाज्यू राजनैतिक रूप से बहुत जागरूक थे और गांधी-नेहरू के विचारों से प्रभावित लगते थे। पर कभी भी वे अपने राजनीतिक झुकाव को व्यक्त नहीं करते थे। आंदोलनों में उनकी भागीदारी और गिर्दा, शेखर पाठक और राजीव लोचन साह से उनकी घनिष्ठता इसी बात का प्रतीक थी। उनके इसी बहुआयामी स्वभाव के कारण इंद्रा फार्मेसी कई लोगों के लिया अपना प्रतिष्ठान या अड्डा बन सका। दीप दा के अचानक चले जाने से एक अजीब तरह की सुनसानी छा गई है। इसीलिए श्मशान घाट में उनके भतीजे अभिषेक के ये शब्द मेरे कानों में गूंज रहे हैं, ‘‘अंकल आते रहना। दुकान में आना मत छोड़ना।’’ हम छोड़ भी कैसे सकते हैं ? बचपन से अब तक सैकड़ों यादें जो इन्द्रा फार्मेसी से जुड़ी हैं।