अरुण कुकसाल
पहाड़ के गांवों में विगत 50 सालों के अंतराल में रामलीला का बाहरी आवरण जरूर बदला पर उसकी मूल आत्मा में पात्र और दर्शक वहीं और वैसे ही हैं। रामलीला के पात्रों और दर्शकों का यह चिरंजीवी आत्मिक मौन संवाद ही है जो हमें अपनी पैतृक जड़ों के पास बार-बार ले जाता है। यह मजबूती जब तक रहेगी तब तक हम गांव में रहने वालों के लिए ‘पलायन’ शब्द का कोई अर्थ नहीं है। पलायन पर पलने वाले लोग हमारे लिए निक्कजू और फैशनपरस्त ही रहेंगे। फिलहाल बात हो रही थी अपने बचपन की रामलीला की तो चलो, वहीं चलते हैं।
गांव में बचपन की रामलीला के 10-12 दिन-रात सबसे मजे के होते। घर, खेत, स्कूल जहां भी हों, हम बच्चों की आपस में रामलीला के ही संवाद चलते रहते थे। दिन-भर धनुष-तीर से हर बच्चा लैस रहता था। स्कूल जाते-आते हुए भी ये साथ रहते। स्कूल में मास्साब की मार न पड़े इसलिए रास्ते में ही धनुष-तीर को गुप्त ठिकानों में, दोस्तों से छुपा के रखना होता था। गांव की दीदी-फूफू के सुरक्षा घेरे में खाजा-बुखाणां के साथ रात को छिल्लों के उजाले में चामी से 1 किमी. की चढ़ाई चढ़कर कण्डारपाणी रामलीला देखने पहुंचते थे। कण्डारपाणी का तप्पड 5-6 से अधिक गैस (पैट्रोमेक्स) के उजालों से जगमगा रहा होता था। ये हमारे लिए रामलीला के अतिरिक्त का बहुत बड़ा आकर्षण और अचरज़ रहता था। हर पैटोमैक्स ऊंचे स्थान पर बड़े लड़कों की कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में जगमगाता रहता। हम बच्चों को उसके पास जाने की सख्त मनाही होती थी। पर वो बच्चा ही क्या जो मना करने वाले काम को न करे। हम पैटोमैक्स के उजाले में रात को हुए इस दिन का मजा लेने उनके पास ही मंडराते रहते।
अपने गांव चामी के कलाकार हमारी पहली पंसद के होते थे। सीता स्वयंवर में गया प्रसाद ब्याडा जी (ताऊ जी) की जोकरिंग मजेदार होती। वे खूब सारे फटेपुराने कपड़े पहनकर स्टेज पर गाते…….
छः स्यारों छछिडों खा छै,
छः स्यारों बसिंगों,
अर भुक्की रै गो मि ब्याले रात…..
तब कण्डारपाणी स्कूल के ऊपर वाले तप्पड़ पर जाड़ों में रामलीला होती थी। रामलीला के मुख्य पात्र बनना तो दूर हम छोटे बच्चों के लिए बंदर या राक्षस बनने के लिए भी जुगाड़ लगाना पड़ता था। बंदर बनने की होड रहती, क्योंकि राक्षसों से जीतना तो आखिर में बंदरों को ही था। साथ ही राक्षसों को बेमतलब की मार भी ज्यादा खानी होती थी और फिर राक्षस तो राक्षस ही ठहरा। बंदर बनने में एक दिक्कत आडे़ आती थी कि उसमें ज्यादातर को मुखोटा पहनना पड़ता था। जिससे दर्शक दीर्घा में बैठे अपने परिवारजनों, गांववालों और दोस्तों को पता ही नहीं चल पाता था कि मैं स्टेज पर बंदर का पात्र निभा रहा हूं। इसकी तोड़ के लिए हम बीच-बीच में मुखौटा उठा कर दर्शकों (विशेष कर अपने परिचितों की ओर) को अपना मुंह बार-बार दिखाते रहते, ताकि घर-गांव में हमारा रुतवा बना रहे। हमारी इस हरकत पर हनुमान जी या बड़ा बंदर अपने गदे से हमारी पीठ पर जोर की घौल जमाता। कभी-कभी रामलीला की मर्यादा को तोड़ते हुए मंच पर ही बंदर और राक्षस आपस में सचमुच ही लडने लगते। कमेटी वाले उन्हें जबरदस्ती स्टेज से खींच कर हटाते। स्टेज के पीछे ले जाकर तब वे ही हमारी असली धुनाई करते थे।
मैकपमैन की सख्त हिदायत रहती कि कल सुबह मुहं मत धोना। वरना उसे दूसरे दिन फिर से मैकअप करना पड़ता था। हमारे स्कूल के मास्साब रामलीला के मुख्य मेकअप मेन होते थे। परन्तु वे बड़े कलाकारों मसलन राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण आदि के ही मेकअप करते थे। मेकअप के सारे रंग प्राकृतिक फूल, पत्ती और विभिन्न लकडियों की राख के बने होते। रामलीला शुरू होने के कई दिन पहले हर प्रकार की लकड़ियों को अलग-अलग ढेरियों में पहले खूब जलाया जाता। फिर उसे महीन कपड़े में छानकर रखा जाता था। वैसे सभी लकड़ियों की राख सफेद होती पर उसमें अलग-अलग सैड होते। सौंदर्य प्रसाधन के पाउडर के रूप में मुख्यतया भीमल की लकड़ी की राख पात्रों के चेहरे पर लगाई जाती थी। पात्रों के मैकअप में इन राखों का सबसे ज्यादा योगदान रहता था।
रामलीला के कुछ पात्र अपने घर से ही सज-धज कर आते थे। ऐसा वो अपने रोल को अलग हट कर और आकर्षक बनाने के लिए करते थे। रामलीला के मैकपमैन पर उनका भरोसा कम ही रहता। ऐसे कलाकार अनुभवी, वरिष्ठ और बुजुर्गवार होते थे। अलग-अलग गांवों से रात को अपने रोल का मेकअप किए रामलीला में पाठ खेलने आते लोगों को देखना हमारे लिए बहुत रोमांचक होता था। सबसे मजेदार बात तो यह होती थी कि रामलीला मंचन स्थल कण्डारपाणी से 3 किमी दूर के गांव सरासू से एक लोकप्रिय कलाकार (नारायण दत्त घिल्डियाल जी) ताड़िका बनकर छम-छम अपने दल-बल के साथ ऊंची-ऊंची किटकताल (अठ्ठाहास) मारते हुआ आता था। उसके पीछे-पीछे लेकिन थोड़ा दूरी पर रास्ते के गांवों के लोगों का हूजूम भी उनके साथ हो लेता था। उस ताडि़का के दांये-बांये और आगे-पीछे राक्षस बने लड़के खूब शोर मचाते चलते थे। रास्ते भर उनकी किलकारियां और ताडि़का का अठ्ठाहास हम बच्चों के लिए भयानक माहौल होता था। पर फिर भी उनको देखने और साथ चलने के रोमांच को हम छोड़ नहीं पाते थे। उस ताड़िका बने कलाकार की गब्बर गर्जना से पेड़ों और झाडि़यों में सोई चिड़ियायें अचानक जागकर चिल्लाने लगती, पेड़ों पर सोये कुछ बंदर तो पत्त से नीचे गिर जाते थे और नजदीकी जंगल के जानवर यथा-बाघ, गुलदार, सियार, सुवर आदि जंगल से छू-मंतर हो जाते थे।
रात की रामलीला खेलने के बाद दूसरे दिन स्कूल में रंग-बिरंगे मुंह वाले बच्चे ही ज्यादा दिखाई देते। बिना मुहं धुले लाल ओंठों के साथ सबके माथे पर लाल नीली-पीली बिंदियां चमकती रहती थी। ओंठों को लाल करना तब सबसे बड़ा शौक होता था। मुझे याद है कि स्कूल के हाफ टाइम में रामलीला में लक्ष्मण और सीता बने लड़कों में आपस में किसी बात पर हाथा-पाई हो गयी थी। मास्साब जी ने देखा तो तुरन्त दोनों को सजा के तौर पर मुर्गा बना दिया। मजा तब आया जब उसी रात को रामलीला के शुभारंभ में वही मास्साब जी लक्ष्मण और सीता बने उन्हीं लडकों की आरती उतारते हुये तल्लीनता से गा रहे थे ‘श्री रामचन्द्र कृपाल भज मन हरण भय………….।
One Comment
CHandrashekhar Tewari
Rocak Sansmaran….!!!