चारु तिवारी
उम्र का बड़ा फासला होने के बावजूद वे हमेशा अपने साथी जैसे लगते थे। उन्होंने कभी इस फासले का अहसास ही नहीं होने दिया। पहाड़ के कई कोनों में हम साथ रहे। एक बार हम उत्तरकाशी साथ गये। रंवाई घाटी में। भाई शशि मोहन रुवांल्टा के निमंत्रण पर। पर्यावरण दिवस पर उन्होंने एक आयोजन किया था नौंगांव में। हमारे साथ बड़े भाई और कांग्रेस के नेता पूर्व मंत्री किशोर उपाध्याय भी थे। रास्ते भर उन्होंने यमुना घाटी के बहुत सारे किस्से सुनाये। उन्होंने यमुना पुल की मच्छी-भात के बारे में बताया। खाते-खाते मछली के कई प्रकार और उसे बनाने की विधि भी बताते रहे। यहां की कई ऐतिहासिक बातें, लोकगाथाओं, लोककथाओं एवं लोकगीतों के माध्यम से कई अनुछुये पहलुओं के बारे में बताते रहे। एक बार हम लोग टिहरी जा रहे थे। श्रीदेव सुमन की जयन्ती पर। यह आयोजन मैंने ही किया था। टिहरी के प्रेस क्लब और ‘त्रिहरि’ के साथियों के साथ मिलकर। दिल्ली से हमारे साथ प्रो. रामशरण जोशी, पंकज बिष्ट, प्रदीप पंत और क्षितिज शर्मा भी थे। ये लोग अलग गाडि़यों में थे। उन्होंने मुझसे कहा कि वह मेरी ही गाड़ी में आयेंगे। टिहरी जाने तक टिहरी राजशाही से लेकर टिहरी बांध बनने तक की बहुत सारी गाथायें। एक बार वह मेरे साथ चैबट्टाखाल आये। ऋषिबल्लभ सुन्दरियाल जी की पुण्यतिथि पर। तब शुरू हो गये कि कैसे सतपुली से चैबट्टाखाल तक लोगों ने श्रमदान से सड़क बना दी। नाम रखा ‘जनशक्ति मार्ग।’ एक बार वे मेरे साथ धूमाकोट के पंजारा गांव आये। कामरेड नारायणदत्त सुन्दरियाल जी के गांव। हमने उनकी बरसी पर एक आयोजन किया था। तब उन्होंने इस क्षेत्र के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बारे में रास्ते भर बहुत सारी बातें बताई। और भी बहुत जगह साथ गये। मैं और मेरी बेटी अक्सर उनके घर चले जाते थे। उनके पास किताबों का बहुत बड़ा संग्रह था। कई दस्तावेजों का संकलन भी। बेटी उनके यहां से हर बार एक किताब पढ़ने लाती। वे एक कागज में नाम लिख लेते। एक दिन बेटी ने कहा कि क्या आपको लगता है कि मैं आपकी किताब मार दूंगी। हंसते हुये बोले नहीं, तुम्हारा नाम याद रहेगा इसलिये। राजेन्द्र धस्माना जी को कई रूपों में याद किया जा सकता है। भले ही उनसे मुलाकात दिल्ली आने के बाद हुई थी, लेकिन लगता था कि हम उन्हें बहुत पहले से जानते हैं। आज उनकी पुण्यतिथि है। उन्हें शत-शत नमन।
हम लोग जब पहाड़ में आंदोलनों और पत्रकारिता में सक्रिय हुये तो राजेन्द्र धस्माना जी को जानने लगे थे। वे बहुत सारे कार्यक्रमों में नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत और द्वाराहाट आते रहते थे। उनको जानने की एक और वजह थी कि उन दिनों दूरदर्शन के समाचारों में उनका नाम आता- ‘समाचार संपादक राजेन्द्र धस्माना।’ हम धस्माना जी को एक सजग पत्रकार, प्रतिबद्ध समाजिक कार्यकर्ता, अन्वेषी यायावर, उत्तराखंड के साहित्य, भाषा एवं संस्कृति के प्रति समर्पित व्यक्तित्व, लोक में बिखरी तमाम विधाओं और चीजों को संकलित करने वाले अध्येता, पहाड़ के सवालों पर हर जगह खड़े मिलने वाले प्रहरी और मानवाधिकारों के लिये लड़ने वाले एक कार्यकर्ता के रूप में जानते हैं। पहाड़ के प्रति उनका जुड़ाव बहुत गहरे तक था। एक व्यक्ति के रूप में जिस तरह संवेदनायें उनके अंदर भरी थी वह उनके व्यवहार में झलकता था। वे बहुत आत्मीयता के साथ मिलते। अपनेपन से। स्नेह से। उन्हें अहंकार तो कभी छू भी नहीं सका। उनका दायरा बहुत बड़ा था। लेकिन उन्होंने पहाडि़यत को अपने अंदर से जाने नहीं दिया। वे किसी न किसी रूप से हर समय पहाड़ से जुड़े रहते। संयोग से मैं जहां विनोदनगर में रहता था उसके सड़क पार करते ही उनका अपार्टमेंट था- ‘आकाश भारती।’ मैं आखिरी समय तक उनसे लगातार मिलने जाता था। कई जगह उन्हें अपने साथ ले जाता। जब भी किसी आयोजन में उन्हें बुलाता चाहे पहाड़ में हो या दिल्ली में उन्होंने कभी मना नहीं किया।
राजेन्द्र धस्माना जी का मतलब था एक चलता-फिरता ज्ञानकोश। उनके पास बहुत समृद्ध निजी पुस्तकालय था। बहुत सारी दस्तावेजों का संकलन भी। बड़ी संख्या में हिन्दी-अंग्रेजी की पत्रिकायें भी उनके पास आती। पहाड़ से निकलने वाले छोटे-बड़े सारी पत्र-पत्रिकायें उनके यहां आती थी। उनके पास फोटाग्राफ का भी अच्छा संकलन था। कैसेट और सीडी भी। बहुत बड़ा सफर रहा धस्माना जी की रचना यात्रा का। उन्होंने बहुत सलीके से अपने को गढ़ा। बनाया। विस्तारित किया। पौड़ी जनपद की मौंदाडस्यूं पट्टी के गांव बग्याली में 9 अप्रैल, 1936 को उनका जन्म हुआ। उनके पिता का नाम चंडीप्रसाद धस्माना और माताजी का नाम कलावती देवी था। कुछ समय गांव में रहने के बाद वे शायद हापुड आ गये थे। यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। बाद में उन्होंने पत्रकारिता में डिप्लोमा और जन संपर्क में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा किया। ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ से उन्होंने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की। और बाद में भारतीय सूचना सेवा में चले गये। लेखन की ओर रुचि प्रारंभ से ही थी। 1955 में में ही वे कवितायें लिखने लगे थे। उस दौर में उनेा एक कविता संग्रह ‘परवलय’ प्रकाशित हुआ। उनके लेख और समीक्षायें भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी थी। वे भारत सरकार के समाचार प्रभाग, आकाशवाणी, समाचार एकल और दूरदर्शन में समाचार संपादक रहे। धस्माना जी पहले गांधी वांड्मय के सहायक संपादक और 1993 से 1995 तक प्रधान संपादक रहे। दूरदर्शन में 1995 से 2000 तक प्रातःकालीन समाचार बुलेटिन के संपादक रहे। उन्होंने कई पुस्तकों और स्मारिकाओं का संपादन किया।
राजेन्द्र धस्माना जी का उत्तराखंड के रंगमंच मे महत्वपूर्ण योगदान रहा। वे सत्तर के दशक में उत्तराखंड रंगमंच के उन्नायकों में रहे। दिल्ली, मुंबई और पहाड़ में सक्रिय रंगमंच संस्थाओं के साथ उनका घनिष्ठ संबंध रहा। उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण नाटक लिखे, जिनमें ‘जंकजोड’, ‘अर्द्धग्रामेश्वर’, ‘पैसा न ध्यल्ला, गुमान सिंह रौत्यल्ला’ और ‘जय भारत, जय उत्तराखंड’ उल्लेखनीय हैं।बीस से अधिक डाक्यूमेंटरी का निर्माण किया। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी उनकी हमेशा प्रभावी उपस्थिति रही। उन्होंने उत्तराखंड और देश के तमाम सवालों पर प्रभावी हस्तक्षेप किया। वे उत्तराखंड लोक स्वातंत्रय संगठन (पीयूसीएल) के अध्यक्ष रहे। एक पत्रकार के रूप में उत्तराखंड राज्य आंदोलन में भी उनकी महत्वूपर्ण भूमिका रही। मानवाधिकारों के लिये वे अंतिम समय तक लड़ते रहे। उत्तराखंड के सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आंदोलनों में योगदान के लिये उन्हें हमेशा याद किया जायेगा हमारा सौभाग्य है कि हमें भी लंबे समय तक उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें सादर नमन।
(हमने क्रियेटिव उत्तराखंड-म्यर पहाड़ की ओर से उनका पोस्टर प्रकाशित किया था।)