जगमोहन रौतेला
उत्तराखण्ड में जनांदोलनों का प्रतीक रहे व चर्चित उपन्यासकार मित्र त्रेपन सिंह चौहान का लम्बी बीमारी के बाद आज प्रात: लगभग 6.30 बजे देहरादून के सिनर्जी अस्पताल में निधन हो गया । पिछले लगभग तीन महीने से स्वास्थ्य अधिक खराब होने से त्रेपन अस्पताल में फर्ती था । उसके चाहने वाले सभी मित्र , दोस्त व प्रशंसक उसके शीघ्र स्वस्थ्य होने की कामना कर रहे थे । पर नियति को यह मंजूर नहीं था और हमारे बीच का एक सबसे जीवट , लड़ाकू व चिंतनशील लेखक का लगभग 48 साल की उम्र में आकस्मिक निधन हो गया ।
त्रेपन का जन्म अक्टूबर 1971 को केपार्स गॉव, बासर पट्टी – भिलंगना ( टिहरी गढ़वाल ) में हुआ । उनकी मॉ का नाम श्रीमती श्यामा देवी चौहान व पिता का नाम कुन्दन सिंह चौहान था । त्रेपन ने गढ़वाल विश्वविद्यालय के टिहरी परिसर से स्नातक और डीएवी कालेज देहरादून से इतिहास में एमए किया था । वह पॉच भाई – बहनों में सबसे छोटा था । उसके बड़े भाइयों के नाम सबल सिंह, अबल सिंह और बहनों के नाम दर्शनी देवी, बिशा देवी हैं । इनका गॉव काफी तलाव खेती वाला है। इसी कारण इनके पिता कुन्दन सिंह चौहान ने खेती -किसानी से ही अपने परिवार का लालन -पालन किया और अपने सभी बच्चों को शिक्षित किया । स्कूल – कालेज के समय से ही सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहने वाले त्रेपन को उत्तराखण्ड आन्दोलन ने बहुत प्रभावित किया और वह 1986 में उत्तराखण्ड क्रान्ति दल से जुड़ गया । उक्रान्द के राज्य आन्दोलन से जोड़ने में टिहरी के वरिष्ठ पत्रकार विक्रम बिष्ट की महत्वपूर्ण भूमिका रही । जो खुद भी उस दौर में उक्रान्द के तेज तर्रार युवा नेता थे । इससे पहले 1985 में त्रेपन का सम्पर्क घनसाली ( टिहरी ) में किसी कार्यक्रम के दौरान उत्तराखण्ड के गॉधी कहे जाने वाले इन्द्रमणि बडोनी के साथ हुआ । उसके बाद तो लगभग एक दशक तक त्रेपन राज्य आन्दोलन में न केवल बहुत सक्रिय रहा , बल्कि बडोनी जी के साथ उसकी बहुत निकटता बनी रही । राज्य आन्दोलन के दौरान बडोनी जी व उक्रान्द के दूसरे वरिष्ठ नेता काशी सिंह ऐरी व त्रेवेन्द्र पंवार जब भी टिहरी जिले के भ्रमण पर होते तो वह बिना त्रेपन चौहान की मौजूदगी के पूरी नहीं होती थी ।
राजनैतिक स सामाजिक सक्रियता के दौरान ही त्रेपन ने अपने गॉव व भिलंगना ब्लॉक में विकास कार्यों में घपले घोटालों को बहुत नजदीक से देखा । जिसने त्रेपन के जीवन की दिशा को एक तरह से बदल दिया । राज्य आन्दोलन में सक्रिय रहने के साथ ही उसने भ्रष्टाचार से लड़ाई लड़ने की ठान ली औरउसके लिए ब्लॉक स्तर पर धरने व प्रदर्शनों को दौर प्रारम्भ किया । यह बात 1996 मई की है। तब 11,33,000 रुपए तक की जानकारी मॉगी थी। जिसमें सिर्फ़ 3,00000 रुपए तक के भुगतान हुए थे। बाकी पूरा गबन था। इसी तरह की कई जानकारियाँ मॉगी गई थी। इस मामले में उस त्रेपन और उसके कई साथियों को कई फर्जी केसों में फँसाया गया था। इन लोगों ने तब डीआरडी ( जिला ग्रामीण विकास कार्यालय ) टिहरी से सूचना मॉगी थी। हर जिले में यह कार्यालय होता था । इस लड़ाई में तब धूम सिंह जखेड़ी, गजेन्द्र सिंह, धनपाल बिष्ट, जगदेई रावत, गंगा रावत, काफी लोग थे।
डीआरडी सारे विकास कार्यों का सबसे बड़ा सरकारी ठेकेदार था। काफी लड़ाई हुई टिहरी तत्कालीन जिलाधिकारी प्रताप सिंह से और काफी जन दबाव के बाद उन्हें सूचना देनी पड़ी थी। देश को सूचना का अधिकार इसके दस साल बाद मिला और त्रेपन ने अपने साथियों के साथ मिलकर संघर्ष की बदौलत बिना किसी कानून के सूचना प्राप्त करने में सफलता पा ली थी । यह उनके जनसरोकारों के प्रति लड़ने और भिड़ने की जीवटता को दिखाता है । संघर्ष की पहली लड़ाई जीत लेने के बाद त्रेपन ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा ।
भ्रष्टाचार के खिलाफ व जनता के हितों को मुकाम तक पहुँचाने के लिए ही ” चेतना आन्दोलन ” के नाम से एक संगठन का निर्माण किया गया । चेतना आंदोलन की नींव 6 जून 1995 को रखी गई थी। कार्ययोजना बहुत स्पष्ट थी , विकास कार्यों के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से भ्रष्टाचार काजो बड़ा खेल हुआ था , उसके खिलाफ आवाज उठाना जरूरी था । इसका असर भी काफी हुआ ।घनसानी के एक गॉव में लोग ग्राम प्रधान से 2,00000 लाख रु वसूल करने में सफल रहे। बाद के वर्षों में टिहरी जिले में ” चेतना आन्दोलन ” भ्रष्टाचार के खिलाफ व जनहितों के पक्षों में लड़ने वाला एक बड़ा संगठन बनकर सामने आया । इसी संगठन के नीचे फलिण्डा में जल विद्युत परियोजना की एक लम्बी लड़ाई लड़ी गई । जिसके फलस्वरूप गॉव के लोगों को छटी विद्युत इकाई लगाने का वैधानिक अधिकार प्राप्त हुआ । अपने पूरी तरह चेतना आन्दोलन के समर्पित कर देने और उक्रान्द नेतृत्व के 1996 के लोकसभा चुनाव के बहिष्कार जैसे बचकाने राजनैतिक निर्णय से त्रेपन का उक्रान्द से मोगभंग हुआ और उसने उक्रान्द के केन्द्रीय कमेटी की सदस्यता के साथ ही उसकी प्राथमिक सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया । उसके बाद त्रेपन फिर किसी राजनैतिक दल का सदस्य नहीं रहा ।
इसके बाद उसका रुझान जनान्दोलनों के साथ ही लेखन की ओर भी होने लगा । इसी दौरान उसने सृजन नव युग ( उपन्यास ) , उत्तराखण्ड आन्दोलन : एक सच यह भी ( विमर्श ) , पहले स्वामी फिर भगत अब नारायण ( कहानी ) , सारी दुनिया मागेंगे ( जनगीतों का संकलन व सम्पादन ) , टिहरी की कहानी ( कहानी संग्रह -कन्नड़ में अनुदित ) पुस्तकें लिखी । पर त्रेपन को एक संवेनशील कथाकार के तौर पर पहचान अप्रैल 2007 में प्रकाशित उपन्यास “यमुना ” ने दिलायी ।जो उत्तराखण्ड आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया पहला उपन्यास है । जो आन्दोलन में शामिल रही एक अनाम महिला “यमुना ” के माध्यम से आन्दोलन के दौरान किए गए अनेक राजनैतिक षडयंत्रों का पर्दाफाश करती है । तब हिन्दी संसार के आलचकों ने भी ( विशेषकर उत्तराखण्ड के ) इसे कम चर्चित लेखक की कृति समझते हुए इस पर कोई ध्यान नहीं दिया । एक तरह से यमुना जैसे संवेदनशील उपन्यास को खारिज करने की कोशिस की ।
पर त्रेपन इससे हतोत्साहित नहीं हुआ । उसने आलोचकों की ओर ध्यान देने की बजाय अपना अगला उपन्यास “भाग की फॉस ” लिखा । जो 2013 में प्रकाशित हुआ । जो टिहरी के एक गॉव की महिला के जीवन संघर्ष की बहुत ही मार्मिक कथा है । इसके अगले ही वर्ष 2014 में त्रेपन का उत्तराखण्ड में पूँजी से राजनीति की विषभरी यारी की औपन्यासिक दास्तान पर आधारित उपन्यास “हे ब्वारी !” प्रकाशित हुआ । जो एक तरह से उत्तराखण्ड आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखे गए पहले उपन्यास “यमुना ” से आगे की कहानी ही है । “हे ब्वारी ! ” की नायिका भी यमुना ही है । यह उपन्यास आलोचकों व समीक्षकों में बहुत चर्चित रहा । हे ब्वारी की चर्चा के बहाने ही फिर आलोचकों व समीक्षकों की नजर सात पहले लिखे गए उपन्यास “यमुना ” पर पड़ी और उसके बाद ही यमुना चर्चा में आया । इसके बाद तो त्रेपन के तीनों उपन्यास यमुना , भाग की फॉस और हे ब्वारी की काफी मॉग पाठकों के बीच रही और एक उपन्यसकार के तौर पर त्रेपन को एक नई पहचान भी मिली ।
भाग की फॉस को लिखने से पहले ही त्रेपन को कैंसर जैसी बीमारी का भी सामना करना पड़ा । पैनक्रियज में 2010 में कैंसर का हमला हुआ। एम्स में उसका आॅपरेशन हुआ । उसका 45 प्रतिशत भाग गँवाना पडा़ था । डॉक्टर टीएन चटर्जी के नेतृत्व में पॉच डॉक्टरों की टीम ने ऑपरेशन किया था। तब काफी मित्रों ने उसकी हर तरह की मदद की थी । जिनमें मुम्बई फ्रेंड ग्रुप के अलावा दिल्ली के साथियों श्रुति , प्रो प्रिथा चंद्रा, रामेन्द्र कुमार, रोहित जैन, प्रो.रवी कुमार, प्रत्यूष चंद्रा, शंकर गोपाल कृष्णन , प्रो. एसएच शिव प्रकाश , राजीव कुमार ,सुश्री कनिका सत्यानन्द आदि शामिल हैं । कैंसर से लड़ाई जीत लेने के बाद त्रेपन ने दो महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे और सामाजिक आन्दोलनों में खुद को पूरी तरह से झौंक दिया । इस बीच उसने शंकर गोपाल कृष्णन जैसे अपने कुछ साथियों की मदद से देहरादून में असंगठित मजदूरों को एक बैनर के तले एकत्र करने का महत्वपूर्ण कार्य किया और उन्हें उनके मानवीय अधिकार दिलाने की लड़ाई भी बहुत मजबूती के साथ लड़ी । जिसके बाद ही दबाव में आई उत्तराखण्ड सरकार को असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के हित में कई कदमों की घोषणा करनी पड़ी । इसके लिए तीन कार्यशालाएँ व सम्मेलन भी देहरादून में आयोजित हुए । त्रेपन का इरादा मजदूरों को संगठित करने के बाद उत्तराखण्ड की राजनीति में एक सार्थक हस्तक्षेप का था ,ताकि उत्तराखण्ड को लूट – खसोट की राजनीति से मुक्त किया जा सके और यमुना जैसी सैकड़ों /हजारों नायिकाओं व नायकों ने जिस बेहतर उत्तराखण्ड राज्य का सपना देखा था , उसे धरातल पर उतारा जा सके ।
पर त्रेपन उत्तराखण्ड में बदलाव की राजनीति पर कोई सार्थक व निर्णायक हस्तक्षेप कर पाता उससे पहले ही वह पॉच -छह वर्ष पहले तंत्रिका तंत्र से सम्बंधित “मोटर न्यूरॉन डिजीज” जैसी विश्वभर में लाइलाज बीमारी से ग्रसित हो गया था । यह लगभग वही बीमारी थी , जिससे प्रख्यात नोबल वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंस भी पीड़ित हुए थे। इसकी चिकित्सा के लिए दिल्ली एम्स से लेकर केरल में पंचकर्म और प्राकृतिक चिकित्सा तक करवाई जा चुकी थी । विदेश में रहने वाले उसके दोस्त कनाडा और अमेरिका में भी उसकी बीमारी को लेकर विशेषज्ञ डॉक्टरों से सलाह ले चुके थे । डॉक्टरों की सलाह और बेहतर इलाज से समय – समय पर उसे आंशिक स्वास्थ्य लाभ भी होता रहा । पर लगभग दो साल पहले घर में ही गिरने से उसे सिर में गम्भीर चोट लगी । तब वह देहरादून के ही एक निजी अस्पताल सिनर्जी में भर्ती रहा । वहॉ के डॉक्टर को उसकी तंत्रिका तंत्र से सम्बंधित बीमारी के बारे में पूरी तरह से पता था । अपनी जीवटता , अपने परिवार के प्यार व असंख्य मित्रों की शुभकामनाओं के बीच वह तब लगभग 10 दिन कौमा में रहने के बाद मौत को मात देकर घर लौट आया था । इसके कुछ समय बाद वह अपने पुरानी जीवन चर्या में लौट आया था । शरीर के कमजोर होने के बाद भी उसने सामाजिक चेतना की गतिविधियों व लेखन में अपनी सक्रियता फिर से शुरु कर दी थी ।
उसकी बीमारी ने सबसे बड़ा हमला त्रेपन के तंत्रिका तंत्र पर किया था । जिसके कारण पहले उसके बॉया हाथ , फिर दाहिना हाथ और उसके बाद उसके पैरों को गम्भीर तौर पर प्रभावित हो गए। इससे उसकी सामाजिक व लेखन की गतिविधियॉ भी बहुत प्रभावित हुई । पर जीवटता के धनी भाई त्रेपन चौहान ने हारने व मायूस होने की बजाय अपनी गम्भीर बीमारी से दवाओं , डॉक्टरों के अलावा अपनी मजबूत मानसिक इच्छा शक्ति व पत्नी निर्मला और बेटे अक्षर व बेटी परिधि के सहारे लड़ने का निर्णय किया । वह मोबाइल के सहारे अपने निकट के लोगों व चाहने वालों के निरन्तर सम्पर्क में भी रहा । साथ ही उत्तराखण्ड , देश व दुनिया की हर तरह की गतिविधियों व उसकी हलचलों की जानकारी भी रखता रहा ।
अपनी गम्भीर बीमारी के बाद भी चार साल पहले उसने अपने चेतना आन्दोलन के बैनर के तले चमियाला – घनसाली ( टिहरी गढ़वाल ) में गॉव के महिलाओं की घसियारी प्रतियोगिता ( घास काटो प्रतियोगिता ) करवाई । ताकि गॉव की महिलाओं को भी उनके घास काटने के दैनिक काम को भी समाज में एक सम्मान प्राप्त हो सके । इसमें पहले स्थान पर आने वाली महिला को एक लाख रुपए नकद सम्मान राशि व चॉदी का मुकुट प्रदान किया गया । इसी तरह दूसरे व तीसरे स्थान पर आने वाली महिलाओं को सम्मान राशियॉ दी गई । गॉव की महिलाओं को उनके काम का सामाजिक सम्मान इस तरह से देने के बारे में त्रेपन जैसा व्यक्ति ही सोच सकता था । जो निरन्तर उनके बीच उनकी तरह रहकर ही सामाजिक व राजनैतिक चेतना जगाने का कार्य करता रहा हो । त्रेपन के इस अनोखे विचार को बहुत सराहना व चर्चा हर तरह से मिलती रही ।
तंत्रिका तंत्र के गम्भीर तौर पर प्रभावित होने से जब उसके हाथों ने उसका कहना मानने से इंकार कर दिया तो उसने निराश होकर हार नहीं मानी और मोबाइल के बोल कर लिखने वाले एप के सहारे वह इस बीच लगातार लेखन कार्य करता रहा । साथ ही सोशल मीडिया में भी निरन्तर सक्रिय रहा। पर उसके जीवन की कठिन परीक्षा अभी बाकी थी । पिछले लगभग एक साल से भाई त्रेपन को बोलने में भी परेशानी होने लगी थी । जिसकी वजह से मोबाइल के बोलकर लिखने वाले एप ने भी त्रेपन का साथ छोड़ दिया । इसके बाद तो त्रेपन का अपने समय और समाज से निरन्तर सम्पर्क बनाए रखने का महत्वपूर्ण साधन भी हाथ से जाता रहा ।
शारीरिक तौर पर इतनी भीषण परिस्थियों के बाद भी जो हार न मानने की ठान ले वही तो ” त्रेपन ” था। उसने जीवन के इस सबसे कठिन व भीषण समय से भी सीधी टक्कर लेने का प्रण किया और ऑखों की पुतलियों के सहारे लिखने वाले एप को अपना निकट का साथी बनाया । उसी एप के सहारे वह अपने साथियों के साथ सोशल मीडिया से सम्पर्क में था। इसमें हैरतअंगेज बात यह है कि इस एप के सहारे वह अपना एक नया उपन्यास भी इन दिनों निरन्तर लिख रहा है । जो उत्तराखण्ड आन्दोलन की एक अनाम नायिका के जीवन संघर्ष पर लिखे गए इससे पहले लिखे गए उपन्यास ” यमुना ” की तीसरी कढ़ी का उपन्यास था । जिसका कुछ अंश नैनीताल समाचार में प्रकाशित भी हुआ । इसकी दूसरी कढ़ी का उपन्यास ” हे ब्वारी ” पहले ही लिखा जा चुका है । त्रेपन के उत्तराखण्ड आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखे गए ये दोनों ही उपन्यास बेहद चर्चित रहे हैं । जिन्हें हिन्दी साहित्य के आलोचकों की भी खूब सराहना मिली है। पर अफसोस इस उपन्यास को पूरा करने की उसकी जिद मौत ने पूरी नहीं होने दी । वह अपने संघर्ष और लड़ाई के दिनों के मित्रों पर आधारित एक पुस्तक “टुकड़ों -टुकडों में अतीत” भी इसके साथ ही लिख रहा था । जिसका अधिकतर हिस्सा वह लिख चुका था।
इस बीच पिछले लगभग चार महीने से उसे सॉस लेने में परेशानी होने लगी थी । जिसके बाद जॉच के लिए उसे सिनर्जी अस्पताल में ले जाया गया । जहॉ जॉच के उपरान्त पता चला कि बीमारी का हमला इस बार उसके फेफड़ों पर हुआ था । जिसके कारण वे सिकुड़ने लगे थे और पूरी सॉस न ले पाने के कारण उसे पूरी ऑक्सीजन नहीं मिल पा रही थी । जिसकी वजह से उसे ऑक्सीजन सपोर्ट सिस्टम पर रखा गया । इस दौरान वह ठीक होकर दो – एक बार घर भी आया , पर फेफड़ों के लगातार कमजोर होते जाने के कारण उसे फिर अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ता । इस दौरान वह ऑक्सीजन की नली लगे होने के बाद भी अस्पताल में अपने कम्प्यूटर पर काम भी करता रहा । उसका मस्तिष्क पूरी तरह से चेतनाशील रहा । परिवार के लोगों से वह अपने इशारों में बात भी करता रहा । शायद वह समझ गया था कि जीवन की डोर लगातार छोटी होती जा रही है और इसी कारण वह जीवन के अंतिम दिनों में भी लेखन में सक्रिय रहा और अपनी मानसिक ऊर्जा उसने वैसी ही बना कर रखी जैसी उसकी जनान्दोलनों में सक्रियता के दौरान थी । ऐसी जीवटता विरल ही
मित्र त्रेपन की पत्नी निर्मला , बेटा अक्षर व बेटी परिधि हमेशा उसकी निरन्तर देखभाल में लगे रहे । दुख व पीड़ा की इस खड़ी को सहन करने की ताकत उन्हें मिले , यह कामना है । जीवटता और संघर्ष के प्रतीक मित्र तुम हमेशा हमें याद रहोगे और जनान्दोलनों में हमेशा प्रेरणा का काम करोगे । तुम्हें भावपूर्ण विदाई दोस्त ! ●