क्या मैं त्रेपन सिंह चौहान को भूल सकता हूँ. त्रेपन… मेरा मित्र, प्रेरणास्रोत और छोटा भाई. उसका भी तो आज जन्मदिन है. कितनी उम्मीदें थीं उससे? डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट के बाद कमला पन्त और उसके बाद त्रेपन ही तो हमारा नेतृत्व करेगा. मगर तीन साल पहले वह जीवन के पचास साल पूरे किये बगैर ही चला गया. एक लाइलाज व्याधि ने उसे घेर लिया था. पहले उसके हाथ कांपने लगे, फिर धीरे-धीरे सारा शरीर निष्क्रिय हुआ और अन्त में वाणी ने भी धोखा दे दिया. मगर जिजीविषा और आत्मबल देखिये कि उस वक़्त भी वह आँखों के इशारों पर काम करने वाले एक सॉफ्टवेयर की मदद से एक उपन्यास लिख रहा था. इससे पूर्व वह ‘यमुना’ और ‘हे ब्वारी’ जैसे अद्भुत उपन्यास दे ही चुका था. उससे न जाने कितना साहित्य अभी और आना था.
उससे पहली मुलाक़ात बहुत अच्छी तरह याद है. वह अपने कुछ साथियों के साथ एक गाड़ी लेकर उत्तराखंड का चक्कर लगा रहा था. मुजफ्फरनगर कांड पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति रवि धवन ने एक शानदार फैसला दिया था, जिससे उत्तराखंड की जनता के घावों पर मलहम जैसा लगा था. मगर मुलायम सिंह यादव ने अपना खेल खेला और सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति महापात्र की बेंच ने सिर्फ दो पन्नों के एक फैसले से रवि धवन के उस विशाल और ऐतिहासिक फैसले को पलट दिया था. इस फैसले के बारे में हमें मालूम नहीं था. त्रेपन ने ही यह नया डेवलपमेंट हमें बताया. हम स्तब्ध रह गये.
इसके बाद त्रेपन हमारा अज़ीज़ हो गया.
कितना कुछ किया उसने छोटी सी ज़िन्दगी में? वह ज़िंदा होता तो अब तक बाल गंगा घाटी में अब तक एक प्रोड्यूसर्स कम्पनी के रूप में एक मेगावाट की एक जल विद्युत परियोजना बन गयी होती और उस क्षेत्र के डेढ़ सौ परिवार दस हजार रूपये महीने की रॉयल्टी पा रहे होते. विनाशकारी विशाल परियोजनाओं का यह एक विकल्प होता. विकास का एक जनमुखी मॉडल. यह योजना हमने प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. रवि चोपड़ा, पी.यू.सी.एल. के राष्ट्रीय अध्यक्ष रवि किरण जैन और सत्तर के दशक में टंगसा में बिजली सत्याग्रह कर चुके इंजी. योगेश्वर कुमार के साथ मिल कर नैनीताल में बनाई थी. त्रेपन की बीमारी से वह अटक गयी. उत्तराखंड की नारी शक्ति को सम्मान देने के लिये उसने दो साल घसियारी प्रतियोगिता आयोजित की. बाद में सरकार घसियारी शब्द ले उड़ी और इसकी ऐसी की तैसी कर दी.
देहरादून के सैकड़ों मजदूरों को साथ लेकर उसने ‘उत्तराखंड निर्माण मजदूर संघ’ नाम से ट्रेड यूनियन का गठन किया. ऐसी जगहों पर उसकी निगाह पड़ती और ऐसा उसका मौलिक चिंतन होता कि हम चकित रह जाते. इतने विस्तार से लिख पाना इस वक़्त संभव नहीं हो रहा है.
त्रेपन चला गया. हमारी आधी शक्ति चली गयी. वार्धक्य का दौरा ऊपर से पड़ गया. त्रेपन के साथी शंकर गोपालाकृष्णन और विनोद बडोनी उसके बाद बहुत सुनियोजित ढंग से भरसक चेतना आन्दोलन को आगे बढ़ा रहे हैं. मगर उससे त्रेपन का छोड़ा हुआ खालीपन तो भर नहीं सकता.