राजीव लोचन साह
इस अंक के साथ नैनीताल समाचार अपने 46 वर्ष पूर्ण कर 47वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। किसी छोटे अखबार का इतनी अवधि तक अनवरत् चलते रहना कोई सामान्य घटना नहीं है। निरन्तर छपना और उसमें भी अपना चरित्र और तेवर बनाये रखना बहुत बड़ी चुनौती है, खास तौर से तब, जब विज्ञापनों की सुविधा आपके पास न हो। आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी होने का तरीका हमें कभी आया ही नहीं। वह तो नैनीताल समाचार के लेखकों ने कभी पारिश्रमिक की माँग नहीं की, अन्यथा इतनी देर तक टिके रहना असम्भव था। हमने अपने शुरू के सालों में ही ऐसे दर्जनों लेखकों की टीम बनाई, जो कालान्तर में नैनीताल समाचार में लिखते हुए भी अनेक अखबारों अथवा टी.वी. चैनलों के उच्च पदों पर पहुँचे। इस तरह से नैनीताल समाचार उदीयमान पत्रकारों के लिये एक नर्सरी भी बना। उस दौर में पत्रकारिता के कोर्स बहुत कम हुआ करते थे। उस वक्त के अनेक नामचीन पत्रकार ही नहीं, अनेक विद्वान और विषय विशेषज्ञ भी नैनीताल समाचार से जुड़े। नैनीताल समाचार की जन उपयोगी भूमिका को देखते हुए पृथक उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इसे एक दैनिक समाचार पत्र का रूप दिये जाने की माँग हमारे पाठकों, शुभचिन्तकों और राज्य आन्दोलनकारियों द्वारा बहुत जोर-शोर से की गई, ताकि उत्तराखंड के प्रति कोई संवेदना रखे बगैर इसे विज्ञापनों की मण्डी समझने वाले दैनिकों का मुकाबला किया जा सके। मगर वह सामर्थ्य हम हासिल ही नहीं कर सके। ऐसा यदि हो पाता तो उत्तराखंड में पत्रकारिता का परिदृश्य कुछ अलग होता और वह उत्तराखंड की राजनीति को भी शायद सकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही होती।
वह कालखंड, जिससे नैनीताल समाचार का गौरवशाली इतिहास जुड़ा हुआ है, अब व्यतीत हो गया है। पिछले कुछ सालों में पूरे देश की तरह उत्तराखंड में भी पत्रकारिता का स्वरूप बदला है। मुख्यधारा के प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को तो अब गोदी मीडिया कहा जाने लगा है, क्योंकि वह सरकार की गोद में बैठ कर सरकार का प्रवक्ता बन गया है। वह सरकार से सवाल नहीं करता, उन खबरों को छिपा कर रखता है, जिनसे सरकार की छवि खराब होती हो। अनेक बार तो वह सरकार की नीतियों से असहमति रखने वाले लोगों को खलनायक तक बना देता है। डिजिटल मीडिया में अवश्य दर्जनों वैबसाइट्स और ब्लॉग हैं, जिन्होंने पत्रकारिता की इज्जत को बचा कर रखा है। वे इस गोदी मीडिया को चुनौती तो दे रहे हैं, किन्तु उसे पूरी तरह अपदस्थ करने की स्थिति में वह आ नहीं सकते। आने को यह डिजिटल मीडिया एकदम निचले स्तर तक भी आ गया है। पत्रकारिता में यह एक क्रांतिकारी स्थिति होती, क्योंकि इससे गाँव-कस्बों की समस्यायें उभर कर सामने आतीं। मगर छोटे-छोटे नगरों में भी दर्जनों न्यूज साइट्स हो जाने के बावजूद वे जनता की ओर पीठ कर सरकारी और प्रशासनिक प्रेस विज्ञप्तियाँ ही छापते रहते हैं। दैनिक अखबारों के जिलावार संस्करणों की तरह उन्होंने खबरों को भी बहुत सीमित कर दिया है।
इस ढाँचे में हम कहाँ फिट होते हैं ? हम प्रिण्ट मीडिया में हैं और ब्रेकिंग न्यूज के इस दौर में हमारी बासी खबरों का कोई महत्व नहीं रह जाता। फिर वक्त के साथ उत्तराखंड में फैले हमारे खबरची भी अन्यत्र व्यस्त हो गये हैं। जो विषय विशेषज्ञ थे, वे भी धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं। पाठकों में भी वे ही बचे रहे हैं, जो नैनीताल समाचार के स्वर्णिम दिनों से इसके साथ जुड़े रहे हैं। नयी पीढ़ी को अपने लायक नैनीताल समाचार में कुछ मिलता नहीं। इन हालातों में हम अपना रास्ता टटोल रहे हैं। बहरहाल, यात्रा जारी है, रुकी नहीं है।
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उत्तराखंड में पिछले एक साल में हालात बहुत गड़बड़ रहे। कुछ प्रमुख घटनाओं में, अगस्त 2022 में हेलंग (चमोली) में पुलिस और सी.आई.एस.एफ. द्वारा मन्दोदरी देवी से घास छीनने तथा उन्हें हिरासत में रख कर उनका चालान करने की घटना सामने आई। फिर अल्मोड़ा जनपद में सवर्ण जाति की लड़की से विवाह करने का दुस्साहस करने वाले एक दलित जगदीश की निर्मम हत्या कर दी गई। उसके बाद अंकिता नाम की एक युवती की हत्या का मामला सामने आया, जिसने पूरे प्रदेश को हिला कर रख दिया। फिर भर्ती घोटाले के विरोध में प्रदेश भर के बेरोजगारों ने देहरादून में जबर्दस्त प्रदर्शन किया। इन सभी घटनाओं में प्रदेश सरकार िंकंकर्तव्यविमूढ़, लगभग सन्निपात की हालत में पड़ी रही। या तो वह इन घटनाओं की अनदेखी करती रही या फिर उल्टे ही कदम उठाती रही। उदाहरणार्थ, अंकिता हत्याकांड में वह अब तक अपराधियों को बचाने की कोशिश कर रही है। आज तक यह मालूम नहीं पड़ा है कि वह वी.वी.आई.पी. कौन है, जिसे विशेष सेवा देने से इन्कार करने पर अंकिता को अपने प्राण गँवाने पड़े। बेरोजगारों के प्रदर्शन में बेरोजगार युवकों को ही अपराधी जैसा बना कर उनकी न सिर्फ निर्मम पिटाई की गई, बल्कि उन्हें जेल की हवा भी खिला दी गई। पिछले कुछ महीनों से प्रदेश में साम्प्रदायिक तनाव की घटनाओं में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है। यह हिन्दुत्ववादी संगठनों के पिछले कुछ सालों में किये गये अथक परिश्रम का परिणाम है। इन घटनाओं का पैटर्न सभी जगह एक सा है। या तो कोई मुसलमान युवक किसी हिन्दू युवती को भगा कर ले जाने की कोशिश कर रहा होता है या फिर कहीं कोई मुसलमान गौमाता के साथ अप्राकृतिक मैथुन कर रहा होता है। इन घटनाओं के कोई प्रमाण नहीं होते। खबर सिर्फ अफवाहों के सहारे आग की तरह फैलती हैं, उत्तेजित भीड़ हंगामा काटती है और सरकार के इशारे पर पुलिस भी फटाफट निरपराध लोगों को गिरफ्तार करने में सक्रिय हो जाती है। गनीमत है कि आम उत्तराखंडी हिंसक स्वभाव का नहीं होता, अन्यथा यहाँ भी हरियाणा के नूँह की तरह हिंसा का लावा फूट पड़ा होता। पता नहीं, इस लव जिहाद शब्द को कैसे इतनी स्वीकार्यता मिल गई, अन्यथा अन्तर्जातीय विवाह तो हमारे समाज में न जाने कब से प्रचलित हैं। भाजपा के नेताओं में ही इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। सबसे गजब तो पौड़ी के चैयरमैन यशपाल बेनाम के साथ हुआ। उनकी पुत्री एक मुसलमान युवक से विवाह कर रही थी और इसमें माँ-बाप व रिश्तेदारों की पूरी सहमति थी। मगर हिन्दुत्व सर्मथकों ने हल्ला-गुल्ला कर यह विवाह समारोह ही रुकवा दिया।
इधर अतिक्रमण हटाने के नाम पर भी मुसलमानों को निशाने पर लिया जा रहा है। हालाँकि उनके साथ-साथ गरीब हिन्दू भी इस अभियान में पिस रहे हैं। अब अतिक्रमण हटाने के लिये सड़कों के किनारे से दुकानदारों को उजाड़ने का अभियान शुरू होने जा रहा है। इससे हजारों परिवारों के सामने आजीविका का संकट खड़ा होगा। ये लोग मोदी जी के हाथ मजबूत कर उनकी डबल इंजन की सरकार को अपनी किस्मत सौंपने के फैसले पर निश्चित ही पछता रहे होंगे। गये वर्ष विधान सभा चुनाव में भू कानून की बात करने वाली भाजपा की सरकार अब भू कानून का नाम भी नहीं लेती।
इस वर्ष हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में वर्षा ने खूब तबाही मचाई। हिमाचल प्रदेश तो बुरी तरह तहस-नहस हुआ है। शिमला और कुलू की तबाही देख कर पर्यटकों ने अब पहाड़ों का रुख करना ही बन्द कर दिया है। हिमाचल की तुलना में उत्तराखंड की तबाही की चर्चा इसलिये कम हुई कि यहाँ वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा की भाँति बड़ी संख्या में लोग नहीं मरे। बहरहाल हिमालय क्षेत्र में हुई इन दुर्घटनाओं का कारण अतिवृष्टि रही, जिसके पीछे ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का हाथ बताया जा रहा है। यह बात सही भी लगती है, क्योंकि हाल के सालों में बादल फटने की घटनायें बहुत बढ़ गई हैं। वर्षा अब समान रूप से नहीं होती। एक स्थान पर वर्षा भारी मात्रा में होती है तो उसी के कुछ किमी. दूर एकदम सामान्य मात्रा में। लेकिन यह अतिवृष्टि भी इतनी बर्बादी नहीं करती, यदि हमारा विकास का मॉडल प्रकृति का सम्मान करने वाला होता। हिमालय में बन रही जल विद्युत परियोजनाओं के साथ अनियंत्रित पर्यटन भी ऐसी दुर्घटनाओं को जन्म दे रहा है। बगैर पर्यावरण और प्रकृति के मिजाज को समझे बन रही सड़कें और मकान अन्ततः मनुष्य को इस अपराध का दण्ड दे रही हैं।
इस 46वें जनमबार अंक में हम प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. रवि चोपड़ा का एक लेख दे रहे हैं, जिसे उन्होंने हमारे लिये विशेष आग्रह पर लिखा है। पर्यावरण पर कुछ अन्य उपयोगी सामग्री भी है। मगर हमेशा की तरह हम अपने किये हुए से बहुत संतुष्ट नहीं हो पाये हैं।
नैनीताल समाचार के सभी पाठकों, विज्ञापनदाताओं, सहयोगियों और शुभचिन्तकों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें।