प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार बिबेक देबरॉय के एक लेख, जिसमें उन्होंने भारत का संविधान बदलने की वकालत की है, पिछले दिनों भारतीय लोकतंत्र में विश्वास करने वाले लोगों के बीच विवाद का विषय बना। विवाद बढ़ जाने पर सरकार ने अपने आप को इससे अलग कर लिया और बिबेक देबरॉय ने भी इसे अपनी निजी राय बताते हुए सरकार को इस विवाद से बचाने की कोशिश की। प्रस्तुत है ‘द मिंट’ में 14 अगस्त 2023 को प्रकाशित बिबेक देबरॉय के इस लेख का उमेश तिवारी विश्वास द्वारा हिन्दी अनुवाद।
– संपादक
‘हम भारत के लोगों’ के लिए यह एक नए संविधान को अपनाने का समय है।
यदि हमें संविधान की प्रस्तावना (मूल सिद्धांतों ) से ही इसमें बदलाव की आवश्यकता हो, तो संशोधन से काम नहीं चलेगा। संविधान में संशोधन हमेशा इसे बेहतर बनाने के लिए हुए भी नहीं हैं। हालांकि, 1973 से हमें बताया गया है कि भले संसद के माध्यम से लोकतंत्र जो भी व्यक्त करे, संविधान की ‘बुनियादी संरचना’ को बदला नहीं जा सकता; यानी अदालतों द्वारा इसकी व्याख्या कानून के उल्लंघन के रूप में की जाएगी।
स्वतंत्रता दिवस मनाते समय मुड़कर देखें कि 1947 के बाद से अब तक हमने क्या हासिल किया, तो जानकर गुस्सा न भी आए, आश्चर्य अवश्य होगा। अब अतीत वर्तमान में घुस गया है और वर्तमान भविष्य में। औपनिवेशिक अतीत को तजे जाने के उदाहरण के रूप में आपराधिक न्याय पर लाए गए तीन हालिया विधेयक एक छोटा क़दम हैं। सेंगोल के रूप में अपनी विस्मृत विरासत को पुनः पाना, ऐसा ही एक और छोटा क़दम है। वर्तमान में भारत ने कोविड और उससे उबरने की स्थितियों को बेहद अच्छी तरह से संभाला है और कई अन्य देशों की तुलना में हमारे समष्टिगत आधार (मैक्रो फंडामेंटल) बहुत मजबूत हैं। मध्यम अवधि में, 6.5-7% की विकास दर कोई ऐसा लक्ष्य नहीं है जिसके बारे में चिंता की जाए। वर्तमान में बिंदास जीने की धारणा अमृत काल के टेम्पलेट और प्रक्षेपवक्र से भी मेल खाती है क्योंकि हम आजादी के 100 साल की ओर बढ़ रहे हैं। भविष्य के बारे में आशंकाओं भरा होरेस की पोएटिका का ग्रीक विधान भारत के लिए उपयुक्त नहीं है, यहां तो भविष्य; गर्व, आशावादिता और 2047 तक ‘विकसित’ देश बनने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य से जुड़ा है। ‘विकसित’ की कोई सटीक परिभाषा नहीं है, जब तक कि इसका मतलब OECD की सदस्यता न हो। अर्थव्यवस्था को समग्रता में, आधिकारिक विनिमय दरों अथवा क्रय-शक्ति-समता से और प्रति व्यक्ति आय के पैमाने से या इनमें से किसी आधार पर मापा जाता है। मानव विकास सूचकांक (एचडीआई), बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमडीपीआई) इत्यादि मानव विकास के अन्य सूचकांक हैं। वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद और जनसंख्या वृद्धि, मुद्रास्फीति और विनिमय दर के अनुमानित आंकड़ों के आधार पर, 2047 के लिए जो विभिन्न प्रोजेक्शंस हैं, वो सभी उच्च मध्यम-आय में बड़े संक्रमण और गरीबी की प्रकृति में परिवर्तन को इंगित करते हैं। (पुराने बीमारू राज्यों में आए बदलाव इसके प्रमाण हैं।)
हर कोई चाहेगा कि ये बदलाव सिटियस, अल्टियस और फोर्टियस (फ़ास्टर, हायर, स्ट्रॉन्गर) हों। बदलाव का यह एजेंडा सुधारों को भी प्रतिबिंबित करता है। बदलावों के इस प्रिज्म में उपादान बाजार (भूमि, श्रम, पूंजी), कर सुधार, सरकारी व्यय का पुन: प्राथमिकीकरण और सरकार की भूमिका पर पुनर्विचार, बुनियादी ढांचे (भौतिक और सामाजिक) के स्टील फ़्रेम पर लगी जंक हटाना, विकेंद्रीकरण और हस्तांतरण, श्रम बाजारों और उद्यमों का औपचारिकीकरण, बेहतर शहरीकरण, और विधायी और न्यायिक दक्षता जैसे विभिन्न पहलुओं को शामिल किया जाता है। यह सूची और भी बड़ी हो सकती है लेकिन आइए 2047 को ही फोकस में रखें।
मैं कहूंगा संविधान आधारशिला है जिस पर बाकी सब निर्मित होता है। आज हमारे संविधान का स्वरुप वह नहीं है जो हमें 1950 में विरासत में मिला था। इसमें संशोधन हुए हैं और ऐसा नहीं कि हमेशा इसकी बेहतरी के लिए हुए हों। हालांकि, 1973 से हमें बताया गया है कि भले संसद के माध्यम से लोकतंत्र जो भी मांग करे, संविधान की ‘बुनियादी संरचना’ को बदला नहीं जा सकता; यानी अदालतों द्वारा इसकी व्याख्या कानून के उल्लंघन के रूप में की जाएगी। जहां तक मैं इसे समझता हूं, 1973 का निर्णय मौजूदा संविधान में संशोधन पर लागू होता है, नए पर नहीं। यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो लॉ स्कूल ने लिखित संविधानों का एक वैश्विक अध्ययन किया और पाया कि संविधान की औसत उम्र केवल 17 वर्ष है। यह 2023 है, 1950 में लागू हमारा संविधान आज 2023 में 73 साल पुराना है। हमारा वर्तमान संविधान मुख्यतः 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित है। इस अर्थ में, यह एक औपनिवेशिक विरासत भी है। 2002 में, संविधानिक कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए गठित आयोग की एक रिपोर्ट आई थी, लेकिन यह आधे-अधूरे मन से किया गया प्रयास था। कानूनी सुधार के दूसरे कई पहलुओं में संशोधन की तरह, यहां छिटपुट बदलावों से काम नहीं चलेगा। हमें संविधान सभा की बहसों की तरह ही पहले सिद्धांतों (प्रस्तावना) से शुरुआत करनी चाहिए। पूछना चाहिए, 2047 के भारत के लिए कैसे संविधान की आवश्यकता है?
इसके बाद और भी बहुत से मुद्दे हैं। हमें भला कितने राज्यों की आवश्यकता है? शासन का काम है सार्वजनिक वस्तुओं को एक इच्छित स्तर पर मुहैय्या करवाना। आज राज्यों का जैसा विन्यास है उसमें जनसंख्या या भौगोलिक क्षेत्रफल की एक सीमा से ऊपर, इनकी स्तरीय गुणवत्ता पाना आसान नहीं है। 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा प्रतिपादित ने तार्किक सिद्धांतों को राज्यों के गठन में पूरी तरह अनदेखा कर दिया गया, यही बात सातवीं अनुसूची और स्थानीय निकायों के संदर्भ में भी लागू होती है। यदि विकास शहरीकरण से सहसंबद्ध है, तो हमने ये ग्रामीण-शहरी साइलो क्यों बनाए, 73वें और 74वें संशोधन में क्या उद्धरित है ? शासन का एक प्रमुख घटक कानून व्यवस्था स्थापित करना और विवादों का त्वरित समाधान है। हाल में सरकार द्वारा लाए गए तीन विधेयक आपराधिक कानून के पहलुओं को एक हद तक छूते हैं। बैकलॉग खत्म करने की डिबेट गले तक आ चुकी है। लेकिन यदि संविधान के अनुसार देखें तो इसमें सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका और उच्च न्यायालयों पर इसका पर्यवेक्षी नियंत्रण नहीं के बराबर है। न्यायिक नियुक्तियां कैसे हों ? राज्यपाल की क्या भूमिका हो ? कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों ही राज्य के अंग हैं पर संविधान में ऐसे भी अनुच्छेद हैं जो कार्यपालिका की सामर्थ्य को, विशेषकर अखिल भारतीय सेवाओं के मामले में, अवरुद्ध करते हैं। चुनाव सुधारों की प्रक्रिया और राज्यसभा की भूमिका कैसे तय हो ? क्या विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों को विशेष कानूनों के अधीन करना चाहिए, जिससे उन्हें कभी मुख्यधारा में नहीं लाया जा सके? (यह केवल अनुच्छेद 370 के बाबत नहीं है, ऐसे अन्य प्राविधान भी हैं।) यदि सुधार बाज़ार और सरकार की पुनर्विचारित तथा सीमित भूमिका पर लक्षित हैं तो राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का क्या मतलब रह जाता है ? यहां मेरा मकसद सवालों की लंबी सूची बनाना नहीं है, इसे विमर्श हेतु मेरा बयान समझा जा सकता है।
हमारी अधिकतर बहसें संविधान से आरंभ होकर उसी पर ख़त्म होती हैं। अब थोड़े संशोधनों से काम नहीं चलेगा। हमें ड्राइंग बोर्ड पर वापस जाना चाहिए और आरंभिक सिद्धांतों से शुरू करना चाहिए, यह पूछना चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे शब्दों का अब क्या मतलब रह गया है ! हम (भारत के) लोगों को अपने लिए एक नया संविधान बनाना होगा।