पिछले कुछ दिनों के दौरान दो हाथी जहां तीन लोगों को मार चुके हैं, वहीं एक गुलदार को मौत का घाट उतार दिया गया। आखिर कब थमेगा यह सिलसिला…
पिछले दिनों उत्तराखंड और उसकी सीमा से सटे उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संघर्ष की दो बड़ी घटनाएं सामने आई। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की सीमा पर नेपाल से भटककर आये दो हाथियों ने जबरदस्त आतंक मचाया। ये हाथी अब तक दोनों राज्यों में दो किसानों और एक फाॅरेस्ट गार्ड को मार चुके हैं और अब भी इन्हें काबू नहीं किया जा सका है। उत्तराखंड वन विभाग, जिम कार्बेट नेशनल पार्क, वाइल्ट लाइफ ट्रस्ट आॅफ इंडिया और पीलभीत टाइगर रिजर्व की संयुक्त टीम इन हाथियों को खदेड़ने का प्रयास कर रही है। कम से कम तीन बार हाथियों को उत्तर प्रदेश के रिहायशी इलाकों से उत्तराखंड की सीमा में पड़ने वाले वन क्षेत्र में खदेड़ा जा चुका है, लेकिन हाथी फिर से वापस उत्तर प्रदेश की सीमा के रिहायशी इलाकों में पहुंच रहे हैं। हाथियों को टैªंकुलाइज करके पकड़ने के प्रयास भी अब तक नाकाम हुए हैं।
दूसरी घटना श्रीनगर गढ़वाल की है। रविवार, 30 जून की सुबह यहां मेडिकल काॅलेज परिसर में एक लैपर्ड घुस गया। उसे परिसर से बाहर खदेड़ने का प्रयास कर रहे दो सुरक्षाकर्मियों और एक क्लर्क पर लैपर्ड ने हमला कर दिया, जिससे वे बुरी तरह जख्मी हो गये। लैपर्ड मेडिकल काॅलेज की एडमिनिस्ट्रेटिव बिल्डिंग में कहीं छिप गया। तीन दिन तक प्रशासन और वन विभाग की टीमें मेडिकल काॅलेज में जमी रही, लैपर्ड का पता नहीं चला। मंगलवार, 2 जुलाई को वन विभाग और प्रशासन की 22 लोगों की टीम ने तीन शूटरों और ट्रैंकुलाइज उपकरणों के साथ सर्च अभियान शुरू किया। कई घंटे की तलाश के बाद लैपर्ड कम्यूनिटी मेडिसिल विभाग में नजर आया। वन विभाग का दावा है कि लैपर्ड को ट्रैंकुलाइज करने का प्रयास किया गया, लेकिन वह हमलावर हो गया। इससे पहले कि वह हमला करता दो शूटरों ने लैपर्ड को गोलियां मार दी और वह वहीं ढेर हो गया।
इन दोनों घटनाओं के बीच एक सवाल जो प्रमुखता से उभरता है, वह यह है कि वन्यजीवों और मानव के बीच संघर्ष को न्यूनतम करने और वन्यजीवों की सुरक्षा के तमाम दावों के बीच क्या हम जान लेने और जान देने के अलावा कोई और विकल्प तैयार नहीं कर पाये हैं। मानव-वन्यजीव संघर्ष को लेकर तैयार की गई एक रिपोर्ट बताती है कि देशभर में अप्रैल 2014 से मई 2017 तक 1144 लोग वन्यजीवों के हमले में मारे गये। मानव-वन्यजीव संघर्ष के मामले में उत्तराखंड की स्थिति ज्यादा खराब है। राज्य गठन के बाद से लेकर अब तक यहां 630 लोगों की मौत वन्यजीवों के हमले में हो चुकी है। घायल होने वाले लोगों की संख्या हजारों में है। यहां एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि उत्तराखंड में भारी भरकम वन विभाग के साथ ही 12168 वन पंचायतें वजूद में हैं, जिनकी मुख्य जिम्मेदारी वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा करना है। हर वन पंचायत में नौ सदस्य होते हैं। इस तरह से 1,09512 लोग प्रत्यक्ष रूप से वन पंचायतों से जुड़े हुए हैं। इसके बावजूद मानव-वन्यजीव संघर्ष को लेकर कोई ऐसी रणनीति नहीं बन पा रही है, जिससे इस मानव शक्ति का इस्तेमाल इस तरह के संघर्ष रोकने में किया जा सके।
श्रीनगर गढ़वाल में लैपर्ड को गोली मार दिये जाने के मामले में वन विभाग के अधिकारी बचाव की मुद्रा में हैं। वे यह कहकर इस कार्यवाही को उचित ठहरा रहे हैं कि लैपर्ड को आत्मरक्षा में गोली मारी गई। यदि तुरन्त ऐसा नहीं किया जाता तो लैपर्ड टीम के किसी सदस्य पर हमला कर सकता है। कुछ लोग वन विभाग के अधिकारियों के इस तर्क से सहमत नजर आते हैं, लेकिन तमाम पर्यावरण कार्यकर्ता और समाज के प्रबुद्ध लोग इससे सहमत नहीं हैं। उत्तराखंड और राज्य से बाहर पिछले कई वर्षों से वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने के लिए चलाये जा रहे ‘मैती आंदोलन’ के प्रणेता कल्याण सिंह रावत कहते हैं कि गोली मारना अंतिम विकल्प होता है। लेकिन, सवाल यह है कि वन विभाग ने लैपर्ड को गोली मारने से पहले क्या प्रयास किये थे। वन विभाग के पास तीन दिन का समय था। बाहर से विशेषज्ञ बुलाये जा सकते थे, लैपर्ड की लोकेशन सर्च करने के लिए ड्रोन कैमरों का इस्तेमाल किया जा सकता था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया।
वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर भूमेश भारती कहते हैं कि पहला सवाल यह है कि वन्यजीव रिहायशी इलाकों में आकर घरों और संस्थानों में क्यों घुस रहे हैं। वे कहते हैं कि वन्यजीवों के हमारे घरों में घुसने से पहले हम उनके घरों में घुस चुके हैं, हम उनके जंगलों को तबाह कर चुके हैं। वे इस मामले में राजनीति को भी एक बड़ा कारण मानते हैं। भूमेश भारती का कहना है कि लैपर्ड को बचाया जा सकता था, लेकिन इस बारे में वन विभाग के अधिकारियों ने सोचा नहीं, क्योंकि जरूरत से ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण उनकी सोचने-समझने की शक्ति भोथरी हो गई है। थियेटर आर्टिस्ट कुसुम पंत इस घटना से बेहद क्षुब्ध हैं, वे कहती हैं कि पहले हमने उनके जंगल छीने और अब उनकी जान के दुश्मन बन गये हैं।
हिन्दी वैब पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ से साभार