तारा चन्द्र त्रिपाठी
हिमालय कोई छोटामोटा पर्वत नहीं, पूरी 2400 कि.मी. लंबी और 250 से 300 कि-मी- चौड़ी पर्वत शृंखला है। घुंघराले बालों की तरह चार देशों के माथे के काफी बड़े भाग को समेटे, वप्रकेशी समाधिस्थ बूढे़ महादेव की मस्तक की गहरी रेखाओं सी हजारों दुर्गम गिरिमालाओं और घाटियोँ में बसे अनेक मानववंशियों के सन्निवेश। सुदूर अतीत में इन सन्निवेशों को बसाने वाली प्रजातियों की भाषाएँ अपने आत्मतुष्ट एकान्त में सैकड़ों वर्षों तक जैसी की तैसी बनी रहीं।
युग बदला। सभ्यता के विकास के साथ देश-देशान्तरों से लोगों का आवागमन आरंभ हुआ। आत्मतुष्ट समाजों में हलचल पैदा हुई। रोजगार के लिए दूर-दूर तक लोगों का प्रवास आरंभ हुआ। एक लोक कवि के शब्दों में हाल के वर्षोँ तक जहाँ केवल लंगूर और बन्दर दौड़ते थे, वहाँ कारें दौड़ने लगीं । शिक्षा का प्रसार हुआ। जनसामान्य को संचार के अनेक साधन सुलभ हुए। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक और 21 वीं शताब्दी का उषःकाल दूर-दूर तक इन क्षेत्रों की गिरिकन्दराओं में भी दूरदर्शन की रंगीनियाँ बिखेरने लगा। परिणामतः संस्कृति के अन्य रूपों के साथ ही भाषाओं की यथास्थिति में भी हलचल आरंभ हुई। उनमें कहीं रूपान्तरण, कहीं समायोजन और कहीं विलुप्ति सामने आने लगी।
हिमालय, विस्तार और विविधता में ही नहीं संसार की लगभग साढे़ छः हजार भाषाओं में से तीन सौ इकत्तीस ज्ञात भाषाओं को अपने में समेटे हुए है। हो सकता है कि कुछ ऐसी भाषाएँ भी हों जिनका पता अभी तक हमें नहीं है। इसके उत्तरी पनढालों पर यदि चीनीतिब्बती भाषाएँ विराजमान हैं तो उसके दक्षिण में पश्चिम से पूर्व तक आर्यभाषाएँ ।
बीच-बीच में आस्ट्रो-ऐशियाटिक मौनख्मेर, द्रविड़ और ताई-कडाई परिवारों की भाषाओं के छींटे भी दिखाई देते हैं। पश्चिम की ओर यदि आर्यभाषाओं का बाहुल्य है तो पूर्व की ओर चीनीतिब्बती भाषाओं का। इनमें 72 आर्यभाषाओं को बोलने वाले लोगों की संख्या लगभग साढ़े चार करोड़ है तो दो सौ पचास चीनीतिब्बती भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 1 करोड़ हैं. इनमें तैंतीस भाषाएँ ऐसी हैं, जिनको बोलने वालों की संख्या एक हजार से भी कम रह गयी है। इनमें 2001 में नेपाल के मेची अंचल की चीनी तिब्बती परिवार की लिंखिम भाषा को बोलने वाला तो मात्र एक बूढ़ा व्यक्ति ही शेष रह गया था।
यही नहीं इसी अंचल की, इसी परिवार की साम भाषा बोलने वाले केवल तेईस व्यक्ति और कोशी अंचल की चुकवा भाषा को बोलने वाले एक सौ व्यक्ति रह गये थे। इसी प्रकार 2003 में असम में ताईकडाई परिवार की खामयांग भाषा को बोलने वाले मात्र पचास व्यक्ति रह गये थे।
चालीस साल पहले हिमाचल प्रदेश की आर्य भाषा-परिवार की हिदुरी भाषा को बोलने वाले मात्र एक सौ अढ़तीस व्यक्ति रह गये थे। यही नहीं चीनीतिब्बती परिवार की दुरा, कुसुन्द, वालिंग ( सभी नेपाल) और ताईकडाई परिवार की अहोम और तुरुंग भाषाएँ (असम) कब की विलुप्त हो चुकी हैं। कुल मिलाकर हिमालय में एक सौ बत्तीस भाषाएँ ऐसी हैं जिनको बोलने वाले लोग दस हजार से भी कम हैं तो तिरासी भाषाएँ ऐसी हैं जिनको बोलने वालों की संख्या दस हजार से पचास हजार के बीच है। भाषा-भषियों की संख्या की दृष्टि से तो लगता है कि अगले बीस वर्ष में हिमालय में भारतीय आर्य भाषा परिवार की सत्तर भाषाओं में से बीस भाषाएँ और चीनीतिब्बती परिवार की दो सौ पचास भाषाओं में से एक सौ अस्सी भाषाएँ विलुप्त हो जायेंगी।
इसका तात्पर्य यह नहीं है बोलने वालों की अधिक संख्या वाली अन्य भाषाओं पर विलुप्ति का संकट नहीं है। भाषाभाषियों की अपेक्षाकृत कम संख्या होते हुए भी सुदूरस्थ और आर्थिक विकास की दृष्टि से पिछडे़ अंचलों की भाषाएँ, विकसित और बाहरी संपर्क वाले क्षेत्रों की भाषाओं की अपेक्षा देर तक जीवित रहती हैं। वास्तव में अविकसित क्षेत्रों की भाषाओं की विलुप्ति में प्राकृतिक आपदाएँ, रोजगार के लिए पलायन, आदि कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तो अन्य क्षेत्रों की भाषाओं पर संचार माध्यमों का प्रसार, शिक्षा का माध्यम, अच्छे रोजगार की संभावना वाली भाषा और भाषा की सामाजिक आर्थिक स्थिति (status) की भूमिका होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि विकसित क्षेत्रों में भाषाओं के बने रहने या उनके प्रचलन से बाहर होने में तो भाषा-भाषियों की सामाजिक स्थिति ( स्टेटस) या उस भाषा से उपलब्ध होने वाले रोजगार के स्तर और सामाजिक धारणा की सबसे बड़ी भूमिका होती है।
इस विचार से यदि हम हिमालयी भाषाओं पर विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अधिकतर चीनी-तिब्बती परिवार की भाषाएँ दूरदराज के अंचलों में हैं। संपर्क और बाहरी प्रभाव के अपेक्षाकृत न्यून होने, अधिकांश जनसंख्या के कृषि पर निर्भर होने और शिक्षा की अविकसित अवस्था के कारण बोलने वालों की संख्या अपेक्षाकृत कम होते हुए भी इनमें से अधिकतर भाषाओं पर विलुप्ति का उतना बड़ा संकट नहीं है जितना कि भाषा-भाषियों की अपेक्षाकृत विशाल संख्या के होते हुए भी विकसित क्षेत्रों की भाषाओं के विलुप्त होने का संकट है।
गढ़वाली और कुमाऊनी भाषाओं को ही लें। एक सर्वेक्षण के अनुसार इनमें से प्रत्येक भाषा को अपनी मातृभाषा बताने वाले लोगों की संख्या तीस लाख से अधिक है। संभव है वर्तमान में इतने लोग यदा-कदा इन्हें अनौपचारिक रूप से बोलते भी हों, किन्तु रोजगार के लिए बाहर जाने, जनसंपर्क एवं संचार के अपेक्षाकृत बेहतर साधनों, शिक्षा का माध्यम हिन्दी होने और अपनी भाषा के प्रति हीनता बोध के चलते ये भाषाएँ दूरदराज के अविकसित अंचलों की ओर सिमट रहीं हैं।
नयी पीढ़ी की ओर इन भाषाओं का संचरण थम गया है। यदि अब भी माता-पिता अपने बच्चों से इन भाषाओं में बात करने की ओर ध्यान नहीं देते तो अगले बीस वर्ष में इन में से प्रत्येक भाषा को बोलने वालों की वास्तविक संख्या कुछ हजार तक सिमट जायेगी और अगले पचास वर्ष में दोनों ही भाषाएँ इतिहास के पन्नों पर या स्थानीय विश्वविद्यालयों के लोकभाषा-पाठ्यक्रमों में ही शेष रह जायेंगी। यह स्थिति हिमालय क्षेत्र की अधिकतर भाषाओं की है। इनमें बहुत सी तो ऐसी है जिनमें रंचमात्र भी लिखित साहित्य नहीं है। ऐसी भाषाओं के मात्र नाम ही किसी भाषाओं के इतिहास पर लिखे शोधग्रन्थ में शेष रह जायेंगे।
जब भी वह अभिशप्त दिन आयेगा हमारी भाषाई और सांस्कृतिक विविधता, हमारा अपने क्षेत्र से जुड़े होने का हक भी समाप्त हो जायेगा। हमारी आन्तरिक एकता, एकजुटता और अस्मिता, हमारी वह पहचान न केवल अपने देश में अपितु पूरे विश्व में खो जायेगी, जिसके लिए भारत के विभिन्न शहरों में ही नहीं अपितु विश्व के अनेक देशों में बसे हमारे प्रवासी बंधु-बान्धव अपने-अपने समुदायों की एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए विभिन्न संस्थाओं का गठन कर अपनी पहचान को बनाये रखने और दूर जा कर बसने के बावजूद अपने लोगों को अपनी धरती और संस्कृति से जोड़े रखने का प्रयास कर रहे हैं।
अपनी अस्मिता की कीमत हमें अपने घर में नहीं बाहर जाने पर ही मालूम पड़ती है। खास तौर पर तब, जब परदेश में अकेलेपन से पथराये, अपनों के लिए तरसते व्यक्ति को कोई अनजाना सा अनचीन्हा सा व्यक्ति उसकी बोली में संबोधित कर अपने एक ही माटी का होने का अहसास दिलाता है।