बच्ची सिंह बिष्ट
अपनी हालत का ख़ुद एहसास नहीं है मुझको
मैंने औरों से सुना है कि परेशान हूँ मैं
जब यह लेख लिखा कि हम दिनेशपुर क्षेत्र में अपने जनजातीय घोषित परिजनों के बीच थे तो कुछ मित्रों ने लिखा, उनको लगता था कि हम जब पर्वतीय उत्तराखंड लिखते हैं तो क्षेत्रवाद की दृष्टि अवश्य रखते होंगे। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। बस दःुख यही है कि यह पहला प्रदेश है जिसके बनने के बाद प्रदेश बनवाने वाले लोग अपने घरों से उजड़ने को मजबूर हुए हैं। पर्वतीय क्षेत्र के गांव के गांव विकास की कमी, बुनियादी सुविधाओं के अभाव से खाली हो चुके हैं। ऊपर से जंगली जानवरों के आतंक ने उनका जीवन दुभर कर दिया है।
एक पत्रकार ने पूछा भी कि आप क्या अपने क्षेत्र में बढ़ते बाहरी लोगों को दुश्मन की दृष्टि से देखने लगे हैं? नहीं। कुछ सवाल हैं और कुछ अनुभव, यदि उन पर बात की जा सके तो कोई दुश्मन नहीं रहेगा। बल्कि मित्रों की बड़ी संख्या हो जायेगी…
“गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी यहां आए उन्होंने गीतांजलि का कुछ भाग यहां लिखा, हमने एक चोटी ही उनके नाम कर दी। उन पर अपार श्रद्धा आज भी रखते हैं। महादेवी वर्मा जी ने रामगढ़ को अपना घर बनाया, आज कोई भी साहित्यिक गतिविधि वहां होती है तो महादेवी सृजन पीठ के निदेशक लोगों को बुलाते हैं। पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ लोग शामिल रहते हैं। नारायण स्वामी जी ने रामगढ़ को अपनी साधना और शिक्षा का केंद्र बनाया, उनके योगदान को कौन सम्मान नहीं देता, अरविंद आश्रम के पास आज भी खूब सारी जगह, बगीचा मौजूद है, उनके द्वारा संचालित सामाजिक गतिविधियों में स्थानीय लोग रहते हैं।
नामी गिरामी पुलिस अधिकारी, पत्रकार यहां रहते हैं। स्थानीय जीवन के साथ रचे बसे और बेहद स्नेहिल लेकिन जिनको हिमालय के साथ जीने की तमीज नहीं है, जो स्थानीय युवाओं की बरबादी के कारण बन रहे हैं, जिनके सीवर सड़कों पर बहते हैं, जिन्होंने स्थानीय पानी और जंगलों पर, परंपरागत रास्तों पर अपनी दादागिरी से कब्जा कर रखा है और जिनके आसपास छिछोरों का नंगा नाच होता रहता है, उनके लिए किसे प्यार आयेगा। क्या ऐसे लोगों को यहां पर रहने का हक होना चाहिए।
हिमालय एक अति संवेदनशील स्थान है। हम मध्य हिमालय में हैं। हमारे प्रदेश के अंदर भी अनेक जाति, रक्त समूह मौजूद हैं, वो कहीं न कहीं से तो आए ही होंगे। लेकिन हमारे लोगों ने इसे जीने रहने और चाहने लायक जगह बनाया है। इसीलिए आज मुक्तेश्वर के आसपास की जगहों पर जो भी घूमने आता है, उसका मन होता है काश उसका भी छोटा सा ठिकाना यहां पर होता।
गलत नहीं है ऐसा करना, बस यह सवाल कि आप महानगरों से यहां इसलिए आए क्योंकि वहां की आबोहवा अब बेहद मुश्किल हो चुकी है। शांति, हरियाली, साफ वातावरण यहां है। लेकिन आप जब यहां आते हैं तो अपना महानगर साथ ही लेकर आते हैं। आपकी गाडियां, आपके सीमेंट कंक्रीट के ढेर और आपका बोलना, चलना सब कुछ महानगरों वाला रहता है यदि आप लोग इस जगह को भी अपने महानगरों जैसा बना देना चाहते हो तो निश्चित ही हम इसको स्वीकार नहीं करेंगे।
तराई क्षेत्र उत्पादक है। साझा संस्कृति का केंद्र है। सब शामिल होने से यह समाज सप्तरंगी हो चुका है।यहां झोड़े चांचरी से बिरहा तक, बंगला गीतों से अवधी, पंजाबी, पुरबिया, सूफियाना सब अंदाज मौजूद है। पर यहां यदि कोई समुदाय खुद को हावी बनाने की कोशिश करेगा तो निश्चित ही फिजा खराब होगी ही। पहले ही राजनैतिक साजिश के तहत उधम सिंह नगर बनाया जा चुका है। अब यह काफी होना चाहिए। सबके रिवाज, जीने खाने के तौर तरीके अपने हैं। यदि वह दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचाते तो उनके होने से किसी को क्या परेशानी हो सकती है।
हम जानते हैं हिमालय सबका है। यहां की नदियों पर सबका समान अधिकार है। कई बार तो लगता है यह हिमालय यहां के लोगों से ज्यादा उनका है, जो इसके लिए सोचते हैं, काम करते हैं, इसे और इसके साथ बुने पूरे परिवेश को प्यार करते हैं। ऐसा नहीं है कि हिमालय किसी खास लोगों, समुदायों और देशों का है। बस हिमालय के साथ जीने का तरीका बहुत जरूरी है। साथ ही हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र की संवेदनशीलता को महसूस करना और यहां के रहवासियों को आदर देना भी बहुत जरूरी है। फिर हमारा जीवन साझा और विविधता में एकता का सबसे बेहतर मॉडल बन सकता है।
फोटो इंटरनेट से साभार