राजीव लोचन साह
वर्ष 1989 के कमला कांड और 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद तीसरी बार हल्द्वानी में कर्फ्यू लगा है। पाँच लोगों की मौत हुई, दर्जनों लोग घायल हुए, सैकड़ों वाहनों में तोड़-फोड़ हुई और एक थाने में आग लगा दी गई। 8 फरवरी की शाम बनभूलपुरा में उपद्रवियों को जम कर खेलने को मिला।
2002 में गुजरात दंगों के बाद कहा जाता था कि गुजरात हिन्दुत्व की प्रयोगशाला है। उन प्रयोगों ने देश में बहुत बड़ा प्रभाव पैदा किया और परिणामस्वरूप भारतीय जनता पार्टी की सरकार पिछले दस साल से देश में निश्चिन्त होकर शासन कर रही है। नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने वाला दूर-दूर तक कोई नेता नहीं दिखाई दे रहा। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें तीसरी बार भी प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने का मौका मिल जाये।
पिछले तीन-चार सालों से हिन्दुत्व की यह प्रयोगशाला उत्तराखंड में भेज दी गई है। छोटा राज्य है। छोटी जगह पर ही प्रयोग कर उनकी सफलता के बाद उन्हें बड़े पैमाने पर लागू किया जाता है। पुष्कर सिंह धामी जैसे एक सीधे और सरल व्यक्ति, जिसे न शासन-प्रशासन का कोई अनुभव था और न ही जिसके पास उत्तराखंड को लेकर कोई विजन था, को गुमनामी से ढूँढ कर उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बना दिया गया, ताकि ऊपर से जो कोई आदेश आयें, उन्हें वह बगैर चूँ चपड़ के लागू कर दें। फिर लव जिहाद और लैंड जिहाद जैसी काल्पनिक समस्यायें तैयार की गयीं, जो कहीं मौजूद थी ही नहीं और उन्हें निर्देश दिया गया कि उन्हें इन-इन तरीकों से इन समस्याओं को सुलझाना है। हरिद्वार में एक धर्म संसद हुई, जिसमें कही हुई जहरबुझी बातों से सर्वोच्च न्यायालय तक थर्रा गया। फिर मुसलमान युवाओं द्वारा हिन्दू लड़कियों को भगाने की कहानियाँ बनायी गयीं और अफवाहों के रूप में फैलायी गयीं और जबर्दस्त नफरत और गुस्सा पूरे प्रदेश में फैलाया गया। फिर कहा गया कि मुसलमानों ने वन भूमि और नजूल में बहुत सारी जमीनें हड़पी हैं, उन्हें मुक्त करवाया जाना चाहिये। अतः अतिक्रमण हटाने का अभियान शुरू हुआ। इस बीच एक समान नागरिक संहिता भी बनायी गयी और उत्तराखंड सरकार से कहा गया कि प्रयोग के तौर पर सबसे पहले तुम इसे लागू करो। देखो, क्या होता है। उसके बाद इसे देश के अन्य प्रान्तों में भी लागू कर देंगे। ध्यान रहे कि इस बीच प्रदेश में ऐसी कोई कोशिशें नहीं की गयीं, जिनसे महंगाई घटती, रोजगार पैदा होते, खेती और मनुष्यों को जंगली जानवरों से बचाया जा सकता, भूमि का बन्दोबस्त होता और अच्छा सा भूमि कानून बनता, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधायें बढ़तीं और पलायन रुकता। विकास कहीं दिखाई दिया तो तेजी से पनप रहे पर्यटन में अंकिता की बलि के रूप में, ऑल वैदर रोड की सिलक्यारा सुरंग के रूप में या जोशीमठ की तबाही के रूप में।
मगर प्रयोगों में गलतियाँ भी होती हैं। कई बार रासायनिक प्रयोगशालाओं में विस्फोट हो जाते हैं। कुछ वैसा ही हल्द्धानी में भी हो गया।
उत्तराखंड में जमीनों के बड़े लफड़े हैं। साठ साल से यहाँ भूमि का कोई बन्दोबस्त नहीं हुआ है। राज्य बनते ही सबसे पहले यह बन्दोबस्त हो जाना चाहिये था, ताकि हजारों हैक्टेयर जमीन में बसे लोगों की स्थिति स्पष्ट हो जाती। वे राहत की साँस ले पाते। मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। हल्द्वानी भी उत्तराखंड का एक ऐसा शहर है, जिसका बहुत बड़ा हिस्सा नजूल का है और जिसका स्वामित्व अभी स्पष्ट नहीं हुआ है। यहाँ रह रहे लोग एक शाश्वत तनाव में जिन्दगी बसर करते हैं। मगर अन्य धर्मावलम्बियों का नम्बर अभी नहीं आया। लैंड जिहाद के नाम पर शासन की नजर फिलहाल उन जमीनों पर है, जो अल्पसंख्यकों के पास हैं। ऐसी ही एक विवादित जमीन पर बने एक नमाज स्थल और एक मदरसे पर शासन-प्रशासन की नजर पड़ी। इस जमीन के मालिक कहते हैं कि यह लीज भूमि है, जिसकी लीज बढ़ाने का आवेदन बरसों से सरकारी फाइलों में धूल खा रहा है। मगर प्रशासन की दृष्टि में यह अवैध निर्माण का मामला है। चार फरवरी को नगर निगम की टीम इस पूजा स्थल और मदरसे को सील कर आयी। 14 फरवरी को इस जमीन के मामले की अदालत में सुनवायी थी। प्रशासन से इतना इन्तजार नहीं किया गया। वह 8 तारीख को ही ध्वस्तीकरण के लिये चली गयी। अब जमीन भले ही एक व्यक्ति की हो, पूजास्थल और शिक्षा केन्द्र तो पूरे समाज के होते हैं। अतः प्रतिरोध शुरू हुआ। भीड़ में कानून मानने वाले लोग कम रहे होंगे और गुण्डा तत्व ज्यादा। उन्होंने 8 फरवरी की शान्त संध्या को कालरात्रि में बदल दिया। यह बहुत संक्षिप्त वृतान्त है।
इस घटना के विस्तृत और अतिरंजित विवरण मीडिया में खूब दिखाई दे रहे हैं। इनमें दिल दहला देने वाली क्रूरता के किस्से हैं तो मानवीय सहृदयता के भी। मगर कुछ जरूरी सवालों पर बात करनी जरूरी है। जमीन की लीजों का नवीनीकरण करने के मामलों में प्रशासन इतनी हीलाहवाली क्यों कर रहा है और अतिक्रमण चिन्हित करने में इन दिनों प्रशासन इतना पक्षपाती क्यों हो रहा है ? जब अदालत में 14 फरवरी की तारीख मुकर्रर थी तो एक सप्ताह रुकने से कौन सा पहाड़ टूट पड़ना था ? ध्वस्तीकरण के लिये शाम का समय क्यों चुना गया, इससे दंगाइयों को अंधेरे का फायदा उठाने का मौका मिला। क्या पुलिस बल पूरी तैयारी के साथ ले जाया गया, क्या जो टुकड़ियाँ वहाँ भेजी गयीं वे इलाके के भूगोल से पूरी तरह वाकिफ थीं ? जब हिंसा हल्द्वानी के एक कोने में हो रही थी और उसके फैलने की कोई आशंका भी नहीं थी तो पूरे शहर को कर्फ्यू में झोंक देने का क्या औचित्य था ? हल्द्वानी पूरे कुमाऊँ की जीवनरेखा है और यहाँ का कर्फ्यू पूरे मंडल के जनजीवन को अस्तव्यस्त कर सकता है।
जाहिर है कि इन सवालों के जवाब एक निष्पक्ष न्यायिक जाँच में ही मिल पायेंगे।