बीना बेंजवाल
द्यूर-भौज भेना-स्याळ
खट्टि मजाक मिट्ठि गाळ
चखळ-पखळ लपोड़ा-लपोड़ि
सर्म-ल्याज छोळ यालि
रंगमत्त बणैगे बणैगे। हो-हो-हो होरि ऐगे।
होली के आनन्द और उल्लास का रसोत्सव मनाती नरेन्द्र सिंह नेगी जी के गीत की ये पंक्तियाँ उस लोक की भी अनुभूति कराती हैं जिसकी प्रकृति बुरांस, फ््यूंली, सरसों और मेळू के फूलों की बासंती आभा के साथ रंगोत्सव होली का स्वागत करती है। प्रकृति के ऐसे अपार सौन्दर्य एवं गढ़वाली भाषा के वैभव वाली संस्कृति से समृद्ध वह लोक है गढ़वाल। जहाँ सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना की प्रतीक भारतीय पर्व परंपरा का होली पर्व बड़े उत्साह एवं उल्लास के साथ मनाया जाता है जिसका वर्णन करते हुए अद्भुत शब्द शिल्पी नेगी जी इसी गीत की शुरू की पंक्तियों में कहते हैं-
पिच्चकारि छरारा-ररारा
कैन मारि तरारा-तरारा
तन मन रुझैगे भिजैगे
हो-हो-हो होरि ऐगे-परबतू मा।
हो-हो-हो होरि ऐगे-बसन्त रितूमा।।
उत्तराखण्ड राज्य का गढ़वाल क्षेत्र जहाँ वसन्त के समय वनश्री का वासंती वैभव चरम पर रहता है। वहीं खेतों में लहलहाती फसलें जन मन को आनन्द और उल्लास से भर देती हैं। और ऐसे में रंगोत्सव होली की मौज-मस्ती, हँसी-ठिठौली, नृत्य-गायन के रूप में चारों ओर छाकर जनजीवन को फागुनी जीवन्तता से भर देती है। होली का यह हास-परिहास गीतों के माध्यम से खूब प्रकट होता है। नेगी जी और माधुरी बड़थ्वाल जी का कई दशक पूर्व गाया गया ये गीत उसी का प्रमाण है-
होली ऐगे होली ऐगे खेला रंग स्याळी
अबीर गुलाल लायों भोर-भोरी थाळी
भीना रंग डाळी त बसंती रंग डाळी
रंग दूजो धोळी ना रे भीना द्यूलो गाळी।
‘गढ़वाली लोकगीतों में राग-रागिनियाँ’ विषय पर गहन शोध करने वाली पद्मश्री सम्मान से सम्मानित डॉ० माधुरी बड़थ्वाल गढ़वाल में मनायी जाने वाली होली के विषय में बताती हैं, ‘गढ़वाल में होली गीत भक्ति और प्रकृति से संदर्भित होते हैं। उनमें मुख्यतः जो जागर गीत गाया जाता है वह सबसे पहले गणेश का आह्वान करते हुए ही शुरू होता है पहले इसे जागरी गाते थे अब हर वर्ग की महिलाएँ इसमें शामिल होती हैं। वे स्वतंत्र रूप से होली गीत और जागर लोकगीत गाती हैं। गढ़वाल में बसंत पंचमी से ही ये होली गीत शुरू हो जाते हैं जिसमें महिलाएँ सबसे पहले माता के मंदिर में जाकर माता से विनती करती हैं-
खोल दे माता खोल भवानी धरम कीवाड़।
क्या ल्यायूं च टीका हो बेटा,क्यं खोलूं कीवाड़?
पांव की पैजबी ल्यायीं च तेरा दरबार।
ओहो खोल दे माता खोल भवानी धरम कीवाड़।
बृज एवं देवताओं से संबंधित होने के कारण होली गीतों की भाषा मिली-जुली होती है। गाँव-गांव घूमने वाली होळ्यारों की टोली द्वारा गाया जाने वाला ये गीत भी दृष्टव्य है –
चंपा के नौ दस फूल, माली ने हार गुंथाए।
बड़ा-बड़ा सेठों का, बड़ा-बड़ा मूंछ।
द्वी रुप्या देण मा पड़ि जांदि सोच।
सरासरि द्यावा होली को दान,
हमुन फिर हैंका गौं मा जाण।
माधुरी जी का कहना है कि
समय के साथ इन होली गीतों के आख्यान भी बदलते चले जाते हैं-
हम होली वाळा द्यूला आसीस,
गांदा-बजांदा द्यूला आसीस।
जो हमतैं द्यौलो होली को दान,
वेतैं द्यौलो श्री भगवान।
जैकि खुच्यलि उंद नौनु खिलौण्या,
ह्वे जयां वूंको नाती खिलौण्या।
हम होली वाळा द्यूला आसीस।
होली हो …….।
होली के साथ अनेक दंतकथाएँ जुड़ी हुई हैं। इनमें होलिका और प्रह्लाद की कथा से संबंधित होलिका दहन के अवसर पर महिलाओं द्वारा भक्त प्रह्लाद का जागर गाया जाता है-
सरबणा मथुरा रैंद हिरण्यकष्यप।
तै राजा की होली रामा वा राणी कयादु।
राणी कयादु होलि नारैण भगत।
तैं राणी को जलमी होलो भगत परिलाद।
भगत परिलाद सो त राम नाम जपद।
होलिका दहन के दूसरे दिन छरोळी होती है जिसमें महिलाओं द्वारा परस्पर होली खेलने के साथ अपने पशुधन पर भी रंग लगाया जाता है। गढ़वाल में महिला होली के विषय में माधुरी जी एक और गीत का उल्लेख करती हैं-
घोळा रंग घोळा रंग होली को
भुला भुली भैजी आवा रंग रचावा होली को
लाल रंग माँ भवानी को, हरिया रंग धरती को
नीलो रंग आगास को, छरोळ्या रंग होली को।
घोळा रंग घोळा रंग होली को।
महिलाओं की होली की बात करते हुए ये गीत भी स्वतः ही होंठों पर आ जाता है-
रंग खेला रंग खेला रंग खेला।
मेरो भीनो न जा जो कोरु रंग खेला।
केसर रंग मा चदरि रंगायी
पिंगळा रंग मा टोपलि भिगायी।
दिल बि रंगायी मिन तेरा रंग मा
आवा दाना सयाणा सबि रंग खेला।
रंग खेला रंग खेला रंग खेला।
शिक्षिका एवं कवयित्री अंजना कण्डवाल
पौड़ी के पाबौ क्षेत्र में महिलाओं द्वारा खेली जाने वाली होली के विषय में बताती हैं कि वहांँ भी पुरुष होळ्यारों की टोली गाँव-गाँव जाकर होली मनाती है और महिलाएँ एकादशी के दिन से घर पर ही एकत्र होकर होली गीत गाती हैं। पयां, मेळू आदि का पेड़ जंगल से लाकर पंचायती चौक में गाड़ा जाता है। महिलाएँ उस पर रंग-बिरंगे कपड़े बांधती हैं और गीत गाती हैं। जैसे-
अयोध्या नगरी को दशरथ राजा
दशरथ राजा की तीन छै राणी।
सीमान्त जिले चमोली के मुख्यालय गोपेश्वर के गोपीनाथ मंदिर में होली खेलने की पुरानी परंपरा है जिसमें महिलाएँ भी बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं। आज से चार दशक पूर्व गोपेश्वर गाँव की महिलाओं द्वारा हर्षोल्लासपूर्वक मनायी जाने वाली होली को एक दशक तक देखने का मौका मिला। विगत वर्ष गोपेश्वर पुलिस लाइन में महिलाओं की उपलब्धियों को रेखांकित कर उनको सम्मानित करने पर केन्द्रित ‘महिला होली मिलन’ जैसा कार्यक्रम इस रंगोत्सव को महिलाओं की सफलता के रंग से भी रंग गया। अलकनंदा एवं पिण्डर के संगम स्थल कर्णप्रयाग में भी महिलाएँ उमादेवी मंदिर में एकत्र होकर गीत गाते हुए उमंग एवं उत्साह के साथ होली मनाती हैं।
हमारी सांस्कृतिक परंपराओं, पौराणिक आख्यानों, विश्वासों एवं सामाजिक मूल्यों का मूर्त प्रतिबिंब इस होली पर्व पर जिस सामूहिकता के दर्शन होते हैं, वह भी अनुपम है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी महिलाएँ मण्डली बनाकर पूरे आनन्द और उल्लास के साथ होली मनाती हैं। साथ मिलकर होली के पकवान गुझिया आदि बनाने से लेकर नृत्य एवं गायन में वहाँ भी हमारी सामाजिक संस्कृति की आत्मा इस रंगोत्सव पर उसी रूप में अभिव्यक्त होती नजर आती है। और इस प्रकार प्रकृति एवं संस्कृति का समन्वित उल्लास लिए होती है होली!