डॉ. योगेश धस्माना
उत्तराखण्ड में अंग्रेजी शासन के आगमन (1815) के बाद अल्मोड़ा और पौड़ी की पहचान दो प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्रों के रूप में उभरी। गढ़वाल और कुमाऊँ के दो सम्भागों में फैला उत्तराखण्ड भारत, तिब्बत, नेपाल, चीन से सटा होने के कारण इसका सामरिक महत्व भी रहा है। वहीं मध्य हिमालय के अंचल में भारत-तिब्बत व्यापारिक सम्बन्धों ने एक विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक सम्बन्धों को भी जन्म दिया। पिथौरागढ़ की व्यास-दारमा घाटी से लेकर उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र तक, देहरादून के जौनसार बावर से लेकर नैनीताल की तराई में स्थित थारू, बोक्सा जनजाति समाज में तीज त्योहार मनाने का तरीका चाहे भिन्न-भिन्न क्यों न हो, किन्तु उल्लास, उमंग और उत्साह के बीच हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के स्वर सदैव एकता और समरसता पूर्ण रहे हैं।
उत्तराखण्ड में 16 वीं शताब्दी के समय चन्द नरेशों के युग में आवागमन बढ़ने के साथ सांस्कृतिक सम्बंधों का भी सूत्रपात हुआ। भारत-तिब्बत व्यापार ने जहाँ गढ़वाल-कुमाऊँ के बीच बहु-सांस्कृतिक सम्बन्धों को जन्म दिया, वहीं मुगल वंश के शासक औरंगजेब के समय कला, साहित्य जगत से जुड़े कलाकार भी एक दूसरे के यहाँ आने लगे। इसका स्पष्ट प्रभाव पहाड़ी चित्रकला शैली पर भी स्पष्ट देखा जा सकता है।
उत्तराखण्ड में 18वीं सदी में पँवार और चन्द वंश, कला संस्कृति के संरक्षक के रूप में भी जाने जाने लगे थे। दोनां राजवशों द्वारा लोक कलाकारों को प्रश्रय देने से पहाड़ की एक बहुसांस्कृतिक पहचान भी बनी थी।
उत्तराखण्ड में गढ़वंश के रूप में टिहरी एक समृद्व, सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में जाना जाता था। होली सहित अन्य सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी यहीं से पूरे पहाड़ में फैलती गईं। कुमाऊँ राजवंश की समाप्ति और इस पर्वतीय क्षेत्र पर अंग्रेजों के अधिपत्य में आने के बाद (1815 ई. के पश्चात) अल्मोड़ा, श्रीनगर, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, दुगड्डा, देवप्रयाग की पहचान सांस्कृतिक केन्द्रों के रूप में हुई। पहाड़ में अंग्रेजी शासन के उपरान्त एक लाभ अवश्य देखने में मिला कि सड़क यातायात एवं संचार साधनों की न्यूनता के बाद भी दोनों क्षेत्रों के संस्कृतिकर्मियों के बीच संवाद बढ़ा। गढ़वाल-कुमाऊँ के कलाकारों के इस मिलन से कई मिथक और भ्रान्तियाँ टूटी।
20वीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में यहाँ होली के सांस्कृतिक स्वरूप का समाज के संभ्रान्त व्यक्तियों यथा-पौड़ी में भोला चन्द्र चन्दोला, राय बहादुर तारादत्त गैरोला, बृजमोहन चन्दोला, पूर्णचन्द्र त्रिपाठी (डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल), अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, इन्दिरा प्रसाद बहुगुणा, प्रो. जसवंत सिंह नेगी, हुसैन बख्श, भगवन्त सिंह नेगी, मदन मोहन लाल शाह, राम प्रसाद पोखरियाल इसी कड़ी में घनानन्द बहुगुणा वकील, चिरंजी लाल वर्मा, दया सागर धस्माना, वीरेन्द्र कश्यप, भगवान वर्मा, तारीलाल शाह, नरेन्द्र सिंह नेगी, अजीत सिंह नेगी, सुखदेव रावत, संगीतज्ञ जखवाल, नरेन्द्र सिंह नेगी (लोक गायक), होली सम्राट नारायण दत्त थपलियाल, उनके सुपुत्र गौरीशंकर थपलियाल ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया।
इस सदी के शुरूआती दशकों में होली की बैठकों में टिहरी, रुद्रप्रयाग क्षेत्रों से बादी बदैणों को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाता था, किन्तु बाद में अश्लीलता बढ़ने के कारण इन्होंने आना बन्द कर दिया। इससे होली की बैठकों में शानदार पारम्परिक नृत्यों का आयोजन बन्द सा हो गया। सन् 1937 में गढ़वाल साहित्य परिषद् के बैनर तले पौड़ी के तारा दत्त गैरोला, डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, रवीन्द्र गैरोला आदि सुधीजनों के प्रयासों से मुहम्मद सलार, मुहम्मद हनीफ, इकराम अली, विक्टर आदि ने होली की गौरवशाली परम्परा को फिर परवान पर चढ़ाया। इसी युग में सुधीजनों द्वारा एक अनियतकालीन पत्रिका ‘पंखुरी’ का प्रकाशन भी लैन्सडाउन से प्रारम्भ किया था।
इस दशक तक प्रायः बैठकी होली का ही स्वरूप अधिक प्रखर रहा, जिसमें ब्रज शैली और भाषा के शास्त्रीय रागों में गीत लिखे और गाये गए। गीतों में प्रायः शिव, राधा कृष्ण के प्रसंग छाये रहे किन्तु कुमाउंनी परिवेश में गणेश और स्थानीय देवी-देवताओं पर गीत स्थानीय लोक भाषाओं में लिखे और गाये गये।
गढ़वाल के सांस्कृतिक केन्द्र पौड़ी में सन् 1943 में यंग मैन एसोसिएशन के पुनर्गठन के बाद तो सांस्कृतिक दृष्टि से एक समृद्धिशाली युग की शुरूआत हुई। पौड़ी में इस नवयुवक संघ ने सांस्कृतिक एवं खेलकूद गतिविधियों में राष्ट्रीय फलक पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। नगर में इबटसन क्लब (1930) से सटे भवन पर सन् 1970 तक इस संगठन की गतिविधियाँ संचालित होती रहीं। कवि सम्मेलन, गोष्ठी, होली और रामलीलाएं या फिर क्रीड़ा के क्षेत्र में खिलाड़ियों ने धूम मचाई। वीरेन्द्र सिंह उर्फ बीरी के नेतृत्व में फुटबाल की टीम ने डी.सी.एम. फुटबाल के सेमीफाइनल तक पहुँचकर कीर्तिमान भी बनाया। गौचर मेले में पौड़ी के कलाकार एवं खिलाड़ी विशिष्ट आकर्षण का केन्द्र रहते थे।
इसी दौर में दया सागर धस्माना जिन्हें उनके सभी छोटी-बड़ी उम्र के साथी दया भाई के नाम से पुकारते थे, ने पौड़ी में खड़ी होली की परम्परा शुरू की थी। उनका लोकप्रिय गीत आज भी अतीत की स्मृतियाँ ताजा करवा देता है-
होली खेले नन्दलाल
बृज में धूम मची है,
हर-हर पीपल पात
शिवजी के माथे धर्यो है।
दया सागरजी ने अपने साथी याकूब के साथ, जो उम्र में उनसे बड़े थे, खड़ी होली के सुरों को साध कर देर रात तक चलने वाली बैठकों के अन्त में खड़ी होली के गीत गाकर सड़कों पर अपनी गायकी से लोगों को थिरकने के लिए मजबूर किया। पौड़ी गाँव के अपने अग्रजों नन्दा सिंह, रणजीत सिंह, मदन सिंह के सानिध्य में दया सागर, राय साहब राबर्ट्स ने आस-पास के गाँवों से भी खड़ी होली के लिए युवकों को इकट्ठा किया। इतना ही नहीं संगीतज्ञ अजीत सिंह के साथ उन्होंने तरुण पीढ़ी को भी प्रशिक्षित किया।
दया सागर ने सन् 1945 से 1965 के बीच अपने कुमाऊँनी साथियों की प्रेरणा से गढ़वाली भाषा में कुछ होली गीत लिखे। उनमें एक गीत यहाँ प्रस्तुत है-
फागुन मैना आँद च होली/अभि खेती कु बगत भारी, होरी कनक्वै खेलूं मि द्यिरा……
उत्तराखण्ड में होली गीत समय की आवश्यकतानुसार लिखे गये, अन्यथा अधिकतर ब्रज भाषा के गीत मथुरा वृन्दावन के गाये जाते रहे हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि होली सम्राट नारायण दत्त थपलियाल ने तो प्रद्युम्न शाह युग (18वीं सदी) एवं गुमानी की कविता को भी होली में ढाल कर गीतों की रचना की थी।
मोहन उप्रेती से दया सागर का निकट का सम्पर्क बना रहा। कई अवसरों पर वह जब नईमा खान को लेकर पौड़ी आते तो धारा मार्ग, पौड़ी से दया सागर के घर पर अवश्य ठहरते। उत्तराखण्ड आन्दोलन की अवधि (विशेषकर सन् 1985 से 1994 तक) में प्रायः सांस्कृतिक गतिविधियाँ विशेषकर होली, रामलीलायें सिमट सी गई थी। तब पुनः दया सागर ने अजीत सिंह, सुखदेव, वीरेन्द्र कश्यप, गौरी शंकर, नरेन्द्र सिंह नेगी जैसे कला संस्कृति कर्मियों को लेकर नवोदित प्रतिभाओं को प्रशिक्षण देने का कार्य प्रारम्भ किया। इस तरह सन् 1995 से एक बार फिर सांस्कृतिक जीवन नवोदित प्रतिभाओं के साथ पटरी पर आने लगा।
गढ़वाल में खड़ी होली के समान ही बैठकी होली भी एक समृद्ध परम्परा रही है। यहाँ यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि 1870 ई. के बाद कुमाऊँ अंचल के नौकरी पेशा लोगों के पौड़ी चमोली में स्थानान्तरित होने के बाद कुमाउंनी लोगों ने स्थानीय लोगां के साथ बैठकी होली को भी आगे बढ़ाया। इनमें भारत रत्न पं. गोविन्द बल्लभ पन्त के पिता मनोरथ पन्त जो 1885 और फिर 1901 में पौड़ी में रहे, साथ में लेखक विचारक प्रभात उप्रेती के नाना पूरन चन्द्र त्रिपाठी, तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर जयदत्त पाण्डे जैसे अनेक लोगों ने गढ़वाल की होली को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसी परम्परा में अल्मोड़ा खंजान्ची मुहल्ले से पौड़ी में आ कर बसे, मदन मोहन लाल शाह, तारीलाल शाह, पान सिंह बिष्ट, चम्पावत के चिरंजी लाल शाह ने प्रमुख रूप से 1980 के दशक तक पौड़ी की होली को अल्मोड़ा के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय बनाया। इस दशक में महिलाएं भी पुरुषों की होली बैठक को दूसरे कमरे से पर्दा लगा कर देखती थीं।
इस तरह 20 वीं शताब्दी के 8वें दशक से पौड़ी में अलग से महिला होली बैठकी का आयोजन प्रारम्भ होने लगा था। इनके प्रमुख रूप से आनन्दी वर्मा रही थी।
उत्तराखण्ड आन्दोलन ने फिर एक बार 1994 से होली की चमक को कम कर दिया था। होली में नए रचनाकर अब सामने नहीं आ रहे हैं। इस बीच पौड़ी नगर के नवोदित लेखक गायक और संगीतकार के रूप में मनोज मंजुल की कुछ गढ़वाली रचनाएं होली पर उत्साह जगाने वाली है। राज्य गठन के बाद तो खड़ी होली हुडदंग में बदल कर रह गई है। महिलाओं की बैठकें, स्वांग और कीर्तनों पर केन्द्रित हो कर रह गई है। कुछ उत्साही जन अब रस्म अदा करने की दृष्टि से इसका आयोजन कर परम्परा का निर्वाह कर रहे है।
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