डाॅ. योगेश धस्माना/सुन्दर सिंह बिष्ट
समाज में परस्पर रिश्तों और भावनाओं को व्यक्त करने में मिठाई की भूमिका अहम रही है। यही कारण है कि गढ़वाल-कुमाऊँ के बीच पुराने समय से चले आ रहे राजनीतिक रिश्तों में आई खटास को कम करने में अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंगौड़ी का कोई जवाब नहीं है।
उत्तराखण्ड में 15वीं शताब्दी के बाद चार धाम यात्रा के चलते चन्द और पॅवार वंश के बीच सीमाओं पर जमीन के टुकड़े को लेकर यदपि कुछ विवादों ने हमारे राजनीतिक रिश्तों में खटास सी पैदा की हो। किन्तु गढ़-कुमौ की मजबूत सांझी विरासत के चलते अल्मोड़ा की बाल मिठाई ने जिस खुशबू को बिखेरा उसमें गढ़वाल की ‘सिंगौरी’ व कुमाऊॅ की सिंगोड़ी ने सामाजिक सांस्कृतिक रिश्तों की एक नई इबादत लिखी।
संस्कृति के अध्येता चन्द्रशेखर तिवारी का कहना है कि 16वीं शताब्दी के बाद चन्द राजाओं द्वारा कुमाऊॅ में बदरीनाथ धाम के लिए जमीन उपलब्ध करा कर मन्दिरों की स्थापना और कई जगह बाद के वर्षो में रामलीलाओं के अवसर पर बदरीनाथ धाम की आरती ‘‘पवन मंद, सुगंध शीतल योग मन्दिर शोभितम- निकट गंगा बहत निर्मल श्री बदरीनाथ विश्वम्भरम्’’ की गायन परम्परा से यहाॅ दो राजॅवंश ही नजदीक नहीं आये वरन कला साहित्य से जुड़े व्यक्तियों और ज्योतिषचार्यों के आगमन से भी समृद्व परम्पराओं की नींव पड़ी। सुदर्शन शाह (1815 से 1860) के युग में गुमानी (कुमाऊॅनी कवि) का टिहरी रियासत के दरबार में रहने से कुमाऊँ के साहित्य मनीषियों का भी आवागमन हुआ। श्रीनगर, टिहरी तथा जोशीमठ के कई मुहल्लों में कुमाऊं के विद्वतजनों और यात्रा मार्ग के मुख्य पड़ावों पर कुमाऊं के साह, वर्मा आदि जाति के लोगों की उपस्थिति सांझी अर्थव्यवस्था का भी प्रतीक थी।
सदियों से गढ़वाल कुमाऊँ के बीच की भौगौलिक जटिलता और यात्रा मार्गांे के अभाव के चलते सामाजिक रिश्तों में ठहराव सा रहा, किन्तु उत्तराखण्ड में ब्रिटिश आगमन के बाद दोनों अंचलों में 57 चटिट्यों के अस्तित्व के आने के बाद दोनो अंचलों की जनता के बीच सम्वाद कायम हुआ।
नैनीताल जिले के अन्तर्गत आने वाला काकड़ीघाट यद्यपि स्वामी विवेकानन्द की यात्रा और उनके प्रवास के बाद चर्चित हुआ हो, किन्तु यह क्षेत्र चन्द राजाओं विशेष कर 16 वीं शताब्दी के बाद गढ़वाल के कर्णप्रयाग बदरीनाथ से जोड़ने में बहुत सहायक रहा। यहाॅ से यह पैदल मार्ग द्वारसौं, मजखाली, गगास, गग्वाली पोखर, बिन्ता, चैखुटिया, मेहल चैरी, गैरसैण होकर आदिबद्री को बदरीनाथ से जोड़ता था।
अल्मोड़ा की बाल मिठाई को लोकप्रिय बनाने में लाला बाजार के जोगासााह के नाम की चर्चा प्रकाश में आती है यद्पि इसे लोकप्रिय बनाने में खीम सिंह-मोहन सिंह रौतेला दूनागिरी वालों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं रही थी। इनकी चाकलेट, सिगौड़ी की चर्चा दूर-दूर तक सैलानी लेकर गए। आज भी धारानौला और लोधिया में भी उत्कृष्ट कोटि की बाल मिठाई बनती है। यदि बंगाली मिठाई में रसगुल्ले की मिठास और खुशबू का कोई जवाब नहीं है तो बाल मिठाई के निर्माताओं में अल्मोड़ा का कोई जवाब नहीं।
अल्मोड़ा की बाल मिठाई में प्रयुक्त होने वाला अधिकांश पूर्व में ही दूध, मावा, कुमाऊॅ के खूॅट हवलबाग से सर्वाधिक आता रहा है। स्थानीय घास/चारे की पौष्टिकता व इसमें पाई जाने वाली वानस्पतिक गुणों की वजह से दूध में आने वाली इसकी महक खोये को विशिष्ट बना देती है, इससे जो खैंचुवा बर्फी तैयार होती है, उसका कहीं कोई सानी नहीं है। एक समय ऐसा भी था कि अल्मोड़े में प्रतिदिन 100 कुन्तल मावे की मिठाईयां तैयार होती थी। उत्तर प्रदेश में दुग्ध डेरी के सचिव रहे स्व. रघुनन्दन टोलिया जी ने अल्मोड़ा जिले में बाल मिठाई की खपत का एक ग्राउण्ड सर्वे भी कराया था। उन्हीं के प्रयासों से अल्मोड़ा में ‘उत्तराखण्ड महिला डेरी’ की स्थापना और ‘आंचल’ नाम की डेरी से भी बाल मिठाई बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी। इन प्रयासों से क्षेत्र के व्यावसायियों को एक बेहतर आश्रित स्त्रोत व पहचान भी मिली है।
अल्मोड़ा लाला बाजार में हम जीवन सिंह की दुकान पर भी सिगौड़ी और बाल मिठाई खरीदने गए। तब उन्होंने बताया कि वे पांचवी पीढ़ी में इस व्यवसाय को संचालित कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि उनके परदादा और अन्य पूर्वज जब बद्रीनाथ यात्रा पर गए तो उन्होंने गढ़वाल में मालू के पत्तों में लिपटी मावे की मिठाई देखी, फिर इसी मालू के पत्तों पर कुमाऊॅ में सिगौड़़ी बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। गढ़वाल में तो श्रीनगर और टिहरी की प्रसिद्व सिगौड़ी तो अब इतिहास का ही हिस्सा बन कर रह गई है।
आज अल्मोड़ा शहर एक नई करवट ले रहा है। इस छोटे से शहर में दो-दो माल आने से इसका मिजाज ही बदल सा गया है। मल्ला महल से जिलाधिकारी कार्यालय के दूर पांडेखोला चले जाने से अब अल्मोड़ा का लाला बाजार, बेबश और तन्हाई में जीता हुआ दिखाई देता है। घरों से छतों और बाजार से अल्मोड़ा का शिल्प पटाल अब गायब ही हो गया है।
आज यही हाल अब-यहाॅ के नौल् व धारों का है। एक जमाने में उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक नगरी जहाॅ लगभग 700 वर्षो तक राजकाज रहा, वह अब आधुनिक विकास की दौड़ में अपनी पहचान खो रही है। चन्द शासन में अल्मोड़ा सम्भाग में सैकडों की संख्या में नौल् जनता को पानी की आपूर्ति करते थे। अब तो गिनती भर के नौल् भी नहीं बचे। स्वामी विवेकानन्द, नृत्यसम्राट उदयशंकर, ब्रजेन्द्र लाल शाह और मोहन उप्रेती व नईमा खान के शहर अल्मोड़ा का यह स्वरूप अब पुराने दिनों की नराई सी लगाता है। बिल्डर और पूंजीपतियों का व्यापक प्रभाव यहाॅ भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है। सुधीजनों से अपील है कि अल्मोड़ा सहित पौड़ी आदि नगरों को भी भू-खनन और शराब माफियों से बचाने की आवश्यकता है। भवन निर्माण तो पहाड़ी शैली के ही हैं, इस बात का खास ध्यान हमारे भाग्य विधाता बने जन-प्रतिनिधियों तथा नीति-नियोजकों को रखना ही होगा।
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One Comment
Ratan Rawat
बहुत सुंदर जानकारी भैजी 🙏🙏