90 वर्षिय श्री हरिश्चन्द्र चन्दोला संभवतः उत्तराखंड के सबसे वरिष्ठ पत्रकार होंगे। हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स आॅफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, स्टेट्स्मैन, द गार्जियन व इंडिपेंडेंट के संवाददाता के रूप में उन्होंने पूरी दुनिया से रिर्पोटिंग की है। अब वो हिन्दी में ही लिखना पसंद करते हैं।
पिछले दिनों उनके युवा पुत्र अवनि की असामयिक मृत्यु हो गई जिसे याद करते हुए उन्होंने यह मर्मस्पर्शी पत्र लिखा है।
नैनीताल समाचार परिवार की श्रृद्धांजलि !
सम्पादक
हरिश्चंद्र चंदोला
दिल्ली के एक बडे अस्पताल में मेरे पुत्र, अवनि (बनी), ने अगस्त 24 को अंतिम सांस ली। उसके कमरे में एक मशीन उसकी सांसों की निगरनी कर रही थी, जो धीमी हो शाम के 6.58 पर बंद हो गई। तब एक नर्स आई यह कहने कि वह चला गया है।
कुछ ही क्षण पूर्व मैंने, उसके माथे पर अपना माथा रख विनती की थी : बनी ! हमें छोड कर जाना नहीं। शायद तब तक देर हो गई थी।
उसे पहाडों से अत्यंत प्रेम था। मेरे साथ तथा बाद में भी अपने आप वह सारे गढ़वाल में घूमा था। अपने एक साथी के साथ उसने तब जोशीमठ के सरहदी कस्बे में एक चाय की दुकान खोली थी, जो उसने एक साल चलाई। उसे दिल्ली वापस लाने के हमारे परिवार ने बहुत प्रयास किये।
तब वह मिज़ोरम के पहाडों में चला गया, जहां उसने एक टेलीविज़न की एक दुकान खोली, घर बनाया तथा परिवार रचा किन्तु उसका हृदय हिमालय में ही रहा, जहां लौटने के प्रयास में उसने प्राण त्याग दिए।
मैं तिब्बत की सरहद पर रहता हूं जहां आकर वह खेती करना चाहता था किन्तु आने से पहले ही वह हमेशा हमेशा के लिये इस दुनिया को छोड़ कर चला गया।
वह मोटर गाडी से यात्रा नहीं कर पाता था। उसे उसमें उल्टी होने लगती थी। वह दो वर्ष का रहा होगा जब मुझे कोहिमा से काठमांडू अपनी गाडी से जाना पडा। कुछ ही दूर चलने पर उसने उल्टी करनी शुरू कर दी। उसकी मां ने उसके कपडे बदल कर उसे ताज़ी हवा में सडक पर चलने को कहा। किन्तु वह गाड़ी में नहीं आया और सडक पर ही चलता रहा और मैं उसके पीछे-पीछे गाड़ी में। हमें काठमांडू पहुंचने में कई दिन लग गए।
लौटते हुए हम काठमांडू से पटना हवाई जहाज से आए। उड़ने से पहले उसने पूछा – वह पूछने लगा कि क्या उसके नए जूते हवाई जहाज से गिर कर खो तो नहीं जाऐंगे। इसके बाद उसने मुझे उसके फीते कसकर बांधने को कहा। हमें जहाज से पटना तथा वहाँ से रेल से दीमापुर, नागालैंड, जाना था। रास्ते में काज़ीरंगा पशु विहार पड़ता था, जहां जंगल में बाघ देखने हम रुके। जानवर देखने के लिये हम हाथी पर बैठ के निकले। कुछ ही दूर पर एक बड़ा बाघ पेड़ पर बैठा दिखाई दिया। रास्ते में हमें उसके खाए हिरण के पैर मिले, जिन्हें देख बनी बहुत डर गया और उसने अपने पैर हाथी पर बिछी चादर के नीचे छिपा लिए। उसे भय था कि बाघ उसके लटके पैरों को खींच के उसे नीचे गिरा देगा और उसको खा जाएगा।
उसके छोटे से जीवन की अनंत कथाएं हैं जिन्हें यादकर हम अब रोते रहते हैं।
स्वयं वह इतना हंसमुख था कि हमने कभी भी उसे दुःखी नहीं देखा। मुझे उससे बहुत सी क्षमा मांगनी हैं, क्योंकि उसको सुखी रखने के लिये मैं कुछ नहीं कर पाया।
एक बार जब मैं दिल्ली से दमिश्क जा रहा था, मुझे छोड़ने वह हवाई अड्डे आया। लौटते समय मैंने उसे केवल 500 रुपए दिए। उस कंजूसी का मुझे आज तक दुःख है, क्योंकि उससे टैक्सी का किराया देने के बाद उसके पास जेब खर्च के लिए बहुत ही कम पैसा बचा होगा।
कुछ वर्ष मैं काम पर सिंगापुर में रहा। जहां मैंने उसे एक स्कूल में भर्ती कर दिया। वहां वह बैडमिंटन का अच्छा खिलाडी बन गया। क्षेत्रीय प्रतियोगिता के लिए वह इंडोनेशिया गया, जो उस समय खेल की दुनिया में सबसे अच्छा खिलाडी देश माना जाता था। । वहां से बनी बहुत से पदक जीत के लाया, जिनसे मेरी एक अलमारी भरी है। अब जब वह चला गया है तो सोचता हूं कि उनका क्या करूंगा उनका ?
उसकी याद में मेरे पास दुःख ही दुःख है। पहाड प्रेमी अपने बेटे को मुझे दिल्ली में इस दुनिया से अंतिम विदाई देनी पड़ी।