रेवती बिष्ट
अब ‘वे’ नहीं हैं। उनके जाने के बाद से जिन्दगी बहुत आगे चली गई है। पर वक्त कितना ही बदले उसे बदलने वाले हर मोड़ पर मिलते हैं। मैं समझती हूँ कि ऐसे ही वक्त बदलने वालों में एक ‘वे’ भी थे।
उनका ऐसा व्यक्तित्व बनने में इनकी माँ का सबसे बड़ा हाथ रहा। उनका सबसे बड़ा गुण था सबके साथ मिल जुल कर रहना। माँ चन्द्रा देवी के पिता मोहन सिंह अधिकारी जी के पास कोटद्वार व मजखाली में सम्पत्तियां थीं जहां वह खेती-बाड़ी और ढेर सारे मवेशियों का पालन करते थे। कहा जाता है कि एक बार जब इनके नाना जी को पता चला कि सुल्ताना डाकू ने उनके गांव पर धावा बोलने की योजना बनाई है तो उन्होंने रातों रात उसे सौगात भेजकर मना लिया। उन दिनों डाकुओं से बचाव करने के लिए इनके नाना एक गरीब का वेश धारण कर लेते थे और इसी वेशभूषा में बैलगाड़ियों में यात्रा किया करते थे। मेरी समझ में नाना पक्ष का असर जहां इनके धैर्य और संयम और समझ-बूझ में झलकता था, वहीं दादा पक्ष का असर न्याय के पक्ष में मजबूती से खड़े होने में झलकता था। स्यालदे में इनकी काफी सारी पुश्तैनी सम्पत्ती थी पर इनके दादा-दादी अल्मोड़ा में ही निवास करने लगे थे। दादा आर्मी से सेवानिवृत होने के पश्चात् पूर्ण रूप से सपरिवार अल्मोड़ा में रहने लगे थे। इन सब भाई बहनों का लालन-पालन अल्मोड़ा में ही हुआ। ये त्योहारों और निमंत्रणों में कई बार गांव तो जाते थे, पर गांव में मकान लगाने का इनका सपना कभी पूरा नहीं हो पाया।
अल्मोड़ा में ये और इनका संयुक्त परिवार, पल्टन बाजार में रहता था। कई आन्दोलनों, कई संघर्षों, कई बैठकों और कई निर्णयों का गवाह रहा पलटन बाजार वाला घर। जब मेरी शादी हुई तो उसके ठीक पहले दिन ये जेल से रिहा होकर आ पाए थे। इनके घर के प्रारम्भिक दिन बड़े अटपटे लगते थे। इतनी भीड़-भाड़, रोज मीटिंगें ये सब तो ऐसे ही होते रहे। बस मुझे इनका अभ्यस्त होना पड़ा।
कुछ खास बातें थीं इनके अन्दर। किसी की भी बात को पूरा सुनना और दूसरे की इच्छाओं का सम्मान करना आदि। मैंने शादी से पहले सन्तोषी माता के व्रत रखे थे। उनका उद्यापन ससुराल में आकर किया। ये ठैरे नास्तिक। परन्तु उद्यापन में इनका पूरा सहयोग रहा। इस उद्यापन में एक शर्त यह होती है कि प्रसाद ग्रहण करने वाला खट्टा नहीं खा सकता और इन्होंने प्रसाद के रूप में जलेबी मंगाकर सबको जलेबी बांट दी। मैंने अपना विरोध प्रकट करते हुए कहा कि प्रसाद ग्रहण करने वालों ने जलेबी क्यों खाई ? वो तो खट्टी होती है आदि आदि।
इन्होंने धैर्य से मेरी बात सुनी और फिर सभी से पूछा कि जलेबी खट्टी होती है कि मीठी। सभी का कहना था कि मीठी। तब जाकर मेरा गुस्सा शान्त हुआ, पर धैर्य से पूरा मामला निपटाए जाने का उनका तरीका भी प्रशंसनीय था और मत भिन्नता होने पर भी दूसरे की भावना का सम्मान करने का अनोखा तरीका तो मैंने कभी देखा ही नहीं था।
इनके सभी मित्र इन्हीं की तरह सरल रहे। जब भी बातचीत होती सभी मित्र जमीन पर बैठ कर गोष्ठी कर लेते। उसी जगह खिचड़ी आदि खाकर सन्तुष्ट होकर वहीं पर आराम भी कर लेते। इनके सभी मित्रों की जानकारी देना मेरे लिए संभव नहीं है। असंख्य मित्र थे इनके, इन मित्रों में स्वामी अग्निवेश हैं तो खड़क सिंह खनी भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।
कभी-कभी इनकी हिम्मत दुस्साहस को छू जाती।
हम सब यानी हमारा पूरा परिवार बॉम्बे (आज का मुम्बई ) और गोवा घूमने गए थे। वहां के समुद्र में इन्होंने दोनों बच्चों को खुले स्कूटर में समुद्र की सैर करने के लिए भेज दिया। विशाल समुद्र और छोटे-छोटे बच्चे, जो क्षण भर में ओझल गए। मैं बच्चों के शाम को घर लौट आने तक अपने को शान्त नहीं रख पाई, पर इनकी गम्भीरता को कोई फर्क नहीं पड़ा।
वे लोगों को ही नहीं, बल्कि पूरे पूरे समाजों को संपूर्ण रुप से समझने का कौशल रखते थे। पलटन बाजार में हमारे पड़ोसी नेपाली परिवार थे। इस कारण से वह पूरी नेपाली भाषा सीख गए थे। एक बार जब हम दिल्ली गए थे तो शाम हो जाने के कारण हम मुगल गार्डन के अन्दर प्रवेश नहीं कर पा रहे थे। सायं 5 बजे बाद मुगल गार्डन बन्द हो चुका था। उस गार्डन के चौकीदार एक नेपाली भाई थे। इन्होंने उनसे उन्हीं की भाषा में बात की और हम पूरा मुगल गार्डन आराम से देख पाए।
इन्हें हमेशा ही अन्याय के खिलाफ गुस्सा तो आता था। परन्तु हिंसा का रास्ता इन्होंने कभी भी नहीं अपनाया। धैर्य से स्थितियों का सामना करना और दृढ़तापूर्वक, डट कर अन्याय के खिलाफ खड़ा होना मुझे वर्ष में एक बार नहीं, हर पल याद आता है। सबको ही यह देह त्यागनी होती है। अब ‘वे’ नहीं है पर उनका अनुसरण करना ही उनका सबसे बड़ा सम्मान है। .