देवेश जोशी
दिनेश कण्डवाल से शुरूआती परिचय फेसबुक के माध्यम से ही हुआ था। बर्ड वाचर के रूप में उनकी विशेषज्ञता और खूबसूरत प्राकृतिक फोटोग्रैफी के उनके हुनर से आकर्षित होकर। खामोशी से काम करने वाले,बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न दिनेश कण्डवाल को उत्तराखण्ड में अधिकांश लोगों ने इसी तरह जाना था।
पत्रकारिता से अपना करियर शुरू करने वाले कण्डवाल ने नवरत्न कम्पनी ओएनजीसी में नौकरी लगने के बाद जीवन का बड़ा हिस्सा सुदूर उत्तर-पूर्व में ही व्यतीत किया। लिखने-पढ़े का उनका शौक इस सेवा में रहते हुए बदस्तूर जारी रहा। अपने समय की सभी राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में उनके आलेख प्रकाशित होते रहते थे। और इसकी जानकारी भी फेसबुक पर उनके द्वारा साझा किए गए आलेखों के चित्रों से ही होती थी। नार्थ-ईस्ट में सेवारत रहते हुए उन्होंने वहाँ की संस्कृति और जनजीवन में डूबकर काम किया। उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक त्रिपुरा की लोककथाएँ इसका प्रमाण है। इसके साथ ही कम्पनी के न्यूज़लेटर का भी उन्होंने कई वर्षों तक सम्पादन किया।
ट्रैकिंग-घुम्मकड़ी का शौक उनके अंदर जुनून की हद तक भरा था। पूर्व से पश्चिम तक अधिकांश हिमालयी दर्रों, बुग्याळों, घाटियों और नदी-झरनों से उनका आत्मीय परिचय था। पता नहीं, प्रकृति उन्हें अपने समीप बुलाती थी या वो खुद ही प्रकृति की पुकार को महसूस करते थे पर दोनों में रिश्ता अनोखा-अद्वितीय था।
कोरोना के चलते जब पहला लाॅकडाउन घोषित हुआ तब भी वो एक महत्वपूर्ण ढाकर शोध अध्य्यन यात्रा पर थे, 66वर्ष की उम्र के बावजूद। लाॅकडाउन के कारण उन्हें सहयात्री, पत्रकार मित्र मनोज इष्टवाल के घर कोरंटीन होना पड़ा था। कोरंटीन-पीरियड को भी उन्होंने न सिर्फ़ सीखने-सिखाने का अवसर बना लिया था बल्कि मज़ेदार वीडियो बनाकर शेयर करते रहते थे। इससे सभी फेसबुक मित्र न सिर्फ़ उनकी ज़िंदादिली के कायल होते थे बल्कि लाॅकडाउन से उपजे अवसाद से भी मुक्त होते थे।
साल 2012 में उन्होंने ओएनजीसी की आकर्षक नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर खुद को आज़ाद कर लिया था। उन्हें उनका पुराना प्यार शिद्दत से जो पुकार रहा था। देहरादून में रहकर, स्वयं सम्पादन का भार संभाल कर देहरादून डिस्कवर पत्रिका शुरू की। पाठक इस पत्रिका की बेसब्री से प्रतीक्षा करते थे।
यायावर, पत्रकार, भू-वैज्ञानिक, फोटोग्राफर, प्रकृतिप्रेमी मृदुभाषी इंसान दिनेश कण्डवाल के आकस्मिक निधन से हतप्रभ हूँ । शहर में सुख-सुविधा सम्पन्न घर को छोड़ दूर पहाड़ के घर को आबाद करने की उनकी ललक सबके लिए प्रेरक रही है। अपने पोतों को भी वे बड़े चाव से गाँव के धार-गधेरों, पनघट-खेतों से परिचित कराते थे। ऐसे ही एक भ्रमण के दौरान नदी किनारे उनके प्यारे पोते ने मासूमी से पूछा था, दादा! ये पत्थर ऐसे क्यों हैं? दादा ने फेसबुक पर पूछा था, साथियो! पोते को क्या जवाब दूँ?
उस समय कवितानुमा एक जवाब मैंने भी उन्हें भेजा था। आज, उनके पोते को सम्बोधित ये जवाब प्रासंगिक-सा हो गया है। इंसान नश्वर है, पत्थर शास्वत। पत्थर जिसकी हम अक्सर उपेक्षा कर देते हैं, हमारे जीवन में कई तरह से शामिल है। पत्थर को गौर से देखा-समझा और कुछ लिखा तो इसके पीछे दिनेश कण्डवाल जी ही थे। दिल पर पत्थर रखकर तुम्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, फूल से हृदय वाले साथी।
प्यारे बच्चे!
ये अलग-अलग रंग के
बेजान पत्थर नहीं हैं
पुरखों की कहानी
के टुकड़े हैं
जो दूर पहाड़ों से
बह कर तुम तक
पहुँचे हैं।
प्यारे बच्चे!
गौर से पढ़ो
इन पत्थरों पर
उन्होंने
तुम्हारे लिए
प्यार लिखवाया है।
प्यारे बच्चे!
ध्यान से सुनो
इनके बड़े साथियों
से ही सजी हैं
हमारे घर की दीवारें
और थामे हैं
हमारे खेतों की मिट्टी।
प्यारे बच्चे!
सुनो कान लगा कर
इन पत्थरों ने
हमें फिसलने से
बचाया है।
प्यारे बच्चे!
कई रूप धरे हैं
इन्होंने हमारे स्वाद के लिए
ओखली, सिलबट्टा कभी
चक्की और खरल बन।
प्यारे बच्चे!
इन पत्थरों का
कूटा-पीसा ही
पुरखों ने खाया है।
प्यारे बच्चे!
इन पत्थरों ने रोका है
हमारा पानी
हमारी जवानी
इन्होंने दी है मजबूती
हमारी नींव को।
प्यारे बच्चे!
चाँदी की दीवार-से
चमकते हिमालय को
इन पत्थरों ने ही
ऊँचा उठाया है।
प्यारे बच्चे!
इन पत्थरों के भी
प्यारे नाम हैं
ये बट्टी हैं
पंचगारे हैं
पिट्ठू हैं
लुकाछिपी के ठिये हैं।
प्यारे बच्चे!
खेलो ध्यान से
इन पत्थरों ने
खिलौने बन
पुरखों को खिलाया है।
दिनेश कण्डवाल, एक ऐसा शख़्स जिसने न सिर्फ़ धरती से जुड़ी नौकरी (जियोलाॅजिस्ट) की बल्कि धरती की खूबसूरती के हर रंग को उसके बहुत करीब रहकर संजोया, आत्मसात किया। धरती की दुश्वारियों को भी बखूबी उकेरा और दिल से चाहने वाले, देश भले में फैले लाखों मित्रों में भी धरती से जुड़ने की ललक पैदा की। अलविदा, हे धरती-पुत्र! ये धरती तुम्हारे जैसे सुपुत्र के लिए कृतज्ञता प्रकट कर रही है।