संजीव भगत
जब से मैंने होश संभाला, घर में गाय को जरूर देखा। आज भी मेरी इजा गाय पाल रही है। अपनी आमा, अपनी ईजा को हमेशा घास काटते हुए देखा। असौज घास काटने का महीना होता है। इसी महीने सामुहिक रूप से महिलायें घास काटने एक दूसरे के खेतों में जाती थी इसलिये इनको घस्यारी कहते थे। पथरीली और बंजर जमीन होने के कारण हमारे इलाके में खेती नहीं के बराबर होती है। बस घास समेटने का ही काम रहता है। तभी सारी महिलायें एक साथ बारी—बारी सबकी घास काटने देती थी। घास काटने के लिए मजदूर लगाने के न तो पैसे थे न ही परंपरा थी।
हमारे जैसे गाँव में अधिकांश लोगों ने गाय-भैंस पालना छोड़ दिया है। किताबी शिक्षा ने सबसे पहले लोगों को खेती और पशुपालन से दूर किया। गाँव में नयी पीढ़ी की अधिकांश महिलायें डिग्री धारी हैं तथा गाय—भैंस से सख्त परहेज करती हैं, हाँ “पेट्स” जरूर पाल लेती हैं। अब सरकार की घस्यारी योजना से किसको फायदा होगा ? उन्हें जो इस योजना का लाभ लेकर गाय पालेगें या उन्हें जो पहले से गाय भैंस पालते रहे हैं?
पहाडों में पशुओं के लिए चारे की समस्या रहती है। पहाडों में असौज, कार्तिक के महीने में घास काटते समय सबसे ज्यादा महिलायें चोटिल होती है। ये वक्त महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा श्रम वाला होता है।
सड़क के आसपास रहने वाले तो मैदानों से 800 रूपया कुन्तल भूसा खरीद भी सकते हैं। दूर दराज के लोग ये भी नहीं कर सकते। अभी ये भी तय नहीं है कि सरकार हरा चारा देगी या सूखाचारा या अनाज मिश्रित पशुआहार देगी। अगर पशुचारा सरकारी सस्ते गल्ले की तरह लेना पड़ा तब क्या होगा ? हमारी घास आज भी 2-3 रूपये किलो से महंगी नहीं होती तो सरकार इसे किस कीमत पर उपल्ब्ध करायेगी।
लगता है सब्सिडी सब्सिडी का खेल होगा। इससे बेहतर होता कि जिन वीरान और बंजर गांवों में कुरी और कालाबांसा की खतरनाक झाड़ियों उग आयी हैं उन्हें मनरेगा योजना के तहत पूरी तरह हटा/उजाड़ दिया जाता तो नयी घास खुद ही उग आती। ये घास पालतू और जंगली दोनों तरह के जानवरों के काम आ जाती इससे जंगली जानवर खेती को भी कम नुकसान करते।
खैर! हमारे सोचने से क्या होता है? होगा वही जो मंजूर-ए-अफसरशाही होगा। उत्तराखण्ड के देहरादून, हल्द्वानी व दिल्ली रहने वाले सभी नेता पहाड़ की घस्यारियों की मजबूरी और बेबसी को नहीं समझ सकते।