राजीव लोचन साह
एक विचित्र बीमारी कोविड 19, ने पूरी दुनिया को तबाह कर दिया है। मगर हम इसे ठीक से समझ भी नहीं पा रहे हैं। मीडिया और सोशल मीडिया के घने कुहासे में हमें कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा है। बड़ा सवाल तो यह है कि तमाम बातें जो हमें बताई जा रही हैं, उनका कोई तार्किक या वैज्ञानिक आधार भी है क्या ? डब्ल्यू.एच.ओ. के निर्देश पर हम फेसमास्क लगा तो रहे हैं, मगर हमें यह क्यों नहीं बताया जा रहा है कि अपनी ही छोड़ी कार्बन डाई आॅक्साइड को दुबारा अपने फेफड़ों में लेकर हम कितनी खतरनाक बीमारियों को आमंत्रित कर रहे हैं ? इस बात को क्यों नहीं जाँचा जा रहा है कि 125 नैनो मीटर के अतिसूक्ष्म वायरस को रोकने के लिये ये मास्क सक्षम भी हैं या नहीं ? विश्व में डेढ़ लाख लोग प्रति दिन मरते हैं। जिनमें लगभग पचास हजार लोग दिल की बीमारियों और लगभग पच्चीस हजार लोग कैंसर से मरते हैं। यानी पिछले छः माह में लगभग नब्बे लाख लोग अकेले दिल की बीमारियों से मरे होंगे। इतने ही वक्त में लगभग साढ़े पाँच लाख लोग कोरोना से मरे हैं। तो कोरोना महामारी है अथवा दिल की बीमारियाँ ? डब्ल्यू.एच.ओ. और आई.सी.एम.आर. जैसी संस्थायें हमें 5000. रुपये की रेमेडिसिविर दवाई खाने को क्यों मजबूर कर रही हैं, जबकि 10 रु. की होम्यापैथी की कैम्फोरा वन एम उससे कहीं बेहतर परिणाम दे रही है ? आखिर क्यों ये संस्थायें होम्योपैथी और आयुर्वेद को इतनी हेय दृष्टि से देखती हैं ? इस बात पर कहीं कोई चर्चा क्यों नहीं है कि हमारे पड़ौस में कम्बोडिया, लाओस और वियतनाम जैसे देशों या हमारे अपने ही सिक्किम, नगालैंड और मिजोरम जैसे प्रदेशों में अब तक कोविड 19 से एक भी व्यक्ति क्यों नहीं मरा ? दरअसल कोरोना के खौफ ने हमारी बुद्धि हर ली है। हम बहुत साफ-साफ सोच भी नहीं पा रहे हैं। इस बात की पड़ताल बहुत जरूरी है कि मात्र एक प्रतिशत की मृत्युदर वाला कोरोना भले ही बहुत तेजी से संक्रमित होने वाला वायरस है, मगर इसे आतंक का पर्याय क्यों बनाया जा रहा है ?