राजीव लोचन साह
मौजूदा दौर में देश भर में सर्वत्र व्याप्त साम्प्रदायिक उन्माद के प्रतिकार के लिये अनेक लोग कांग्रेस का मुँह जोह रहे हैं। इसके अलावा शायद कोई चारा भी नहीं है। मुसलमानों के प्रति घृणा ने तृणमूल स्तर तक अपनी जड़ें जमा ली हैं। केन्द्र सरकार और अनेक राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद अब देश के अधिकांश लोग अब नफरत की इस राजनीति से ऊब गये हैं और अमन-चैन चाहते हैं। इसीलिये कांग्रेस की ओर उनका झुकाव बढ़ रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की घटती और कांग्रेस की बढ़ती सीटें इस बात का प्रमाण हैं। यह मानते हुए भी कांग्रेस कोई दूध की धुली नहीं है और भ्रष्टाचार समेत आज देश में पनप रही अनेक समस्याओं के लिये कांग्रेस का लम्बा शासन ही जिम्मेदार है, लोग उसकी ओर नयी आशा से देख रहे हैं। बहुत कुछ टूट-फूट जाने के बावजूद कांग्रेस का देश भर में एक मजबूत आधार है। पिछले कुछ वर्षों में राजनीति में राहुल गांधी के उभार और आर.एस.एस. की हिन्दुत्व की विचारधारा के खिलाफ उनके डट कर खड़े होने से यह उम्मीद और मजबूत हुई है। मगर कठोर सच्चाई यह है कि साम्प्रदायिकता का यह विष कांग्रेस में भी काफी अन्दर तक पैठा हुआ है। कांग्रेस के लोग राहुल गांधी की बढ़ती लोकप्रियता को अपने करियर का सम्बल तो बना रहे हैं, किन्तु साम्प्रदायिकता के लड़ने का साहस उनके पास नहीं है। इससे भी ज्यादा चिन्ताजनक यह है कि बहुत सारे कांग्रेसी भाजपा की हिन्दुत्व की विचारधारा से अपने को अलग नहीं कर पा रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण हिमाचल प्रदेश के एक वरिष्ठ मंत्री विक्रमादित्य सिंह का वह बयान है, जिसमें उन्होंने खाने की दुकानों के बाहर दुकान के मालिक का नाम लिखने की वकालत की है। जब तक ऐसे तत्व कांग्रेस के भीतर हैं, तब तक कांग्रेस को सही मायने में धर्मनिरपेक्ष नहीं माना जा सकता। अब राहुल गांधी और कांग्रेस के नेतृत्व के सामने यह चुनौती है कि कैसे अपनी पार्टी को साफ-सुथरा बनायें।