चुनावों के खेल भी गजब होते हैं। लोकतंत्र में आदर्श रूप में हर निर्णय जनता की सहमति से लिया जाना चाहिये और चूँकि समूची जनता एक साथ राय-मशविरे के लिये नहीं बैठ सकती, इसलिये उसके द्वारा प्रतिनिधि चुने जाने का तरीका बना। जाहिर है कि इन चुनावों के विश्वसनीय न होने पर लोकतंत्र ही निरर्थक हो जाता है। चुनावों को प्रभावित करने के तरीके बहुत पहले से खोजे जाते रहे हैं। अब मीडिया के जबर्दस्त ढंग से मजबूत हो जाने के बाद मीडिया का दुरुपयोग चुनावों को प्रभावित करने के लिये किया जाने लगा। पहले सेफोलाॅजी यानी सर्वेक्षणों के आधार पर चुनाव से पहले रुझान बताने का सिलसिला शुरू हुआ। इनमें कितनी वैज्ञानिकता थी, पता नहीं। मगर वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे के ध्वस्त हो जाने के साथ ही ऐसे सर्वेक्षणों की जो किरकिरी हुई, वह आज तक जारी है। फिर ‘पेड न्यूज’ का पर्दाफाश हुआ। और अब तो पेड न्यूज की भी जरूरत नहीं रही। मीडिया स्वयं ही सत्ताधरियों के आगे नतमस्तक रहता है और उन्हें खुश करने के लिये किसी भी हद तक चला जाता है। उत्तर प्रदेश के ताजा शहरी निकायों के चुनाव का उदाहरण लें। इसमें दो राय नहीं कि यहाँ 16 में से 14 नगर निगमों में अपने मेयर जितवा कर भाजपा ने सफलता के झंडे गाड़े हैं। मगर सत्य क्या इतना ही है ? उ.प्र. की बहुसंख्य शहरी जनता क्या महानगरों में ही रहती है ? यह बात क्यों नहीं बतलायी जा रही है कि नगरपालिका अध्यक्ष पदों पर भाजपा के 69 प्रत्याशी जीते हैं तो अन्य दलों के या निर्दलीय 126; नगर पंचायत अध्यक्ष पदों पर भाजपा के 100 प्रत्याशी जीते हैं तो बाकी के 338; नगरपालिका सदस्य पदों पर भाजपा के 916 जीते हैं तो बाकी के 4,295 और नगर पंचायत सदस्य पदों पर भाजपा के 663 जीते हैं तो बाकी के 4,715 ? क्या यह अधूरा सच इसलिये जनता के सामने परोसा जा रहा है कि गुजरात में विधानसभी चुनाव होने जा रहे हैं और इस अर्द्धसत्य का लाभ भाजपा को मिलना चाहिये ?