अरुण कुकसाल
मैंने जानना चाहा कि यह पाठ किस बारे में है तो उसने बताया कि वह अल्लाह से दुआ मांगने की कहानी है। बगैर किसी निश्चित प्रतिक्रिया की अपेक्षा किए मैंने पूछाए अगर तुम्हें कहीं अल्लाह मिले तो तुम क्या जानना चाहोगी उस बच्ची ने मेरी ओर देखते हुए कहा मैं पूछूंगी कि आपने मुझे इतनी गरीबी में क्यों पैदा किया। इतना कहते.कहते उसकी आंखों से आंसू गिरने लगे।
उस शाम हम लोगों ने जाना कि इन बच्चों को चूड़ी के दो किनारे मोमबत्ती की लौ में रखकर जोड़ने के लिए हजार चूड़ियों पर बीस रुपये मिलते हैं। यह काम वे आठ-नौ घंटे करते हैं, उसके बाद यहां इस कक्षा में आते हैं। इस किताब का एक अंश प्रो. कृष्ण कुमार देश में शिक्षा जगत का जाना-माना नाम है। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और एनसीईआटी के निदेशक रहे हैं। अंग्रेजी और हिन्दी भाषा में वे समान रूप में विभिन्न विधाओं में नियमित लिखते हैं। संस्मरणात्मक शैली में चूडी बाजार में लड़की पुस्तक भारतीय समाज में महिलाओं की सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक परिवेशीय आयामों को उद्घाटित करती है।
पांच अध्यायों की यह पुस्तक भारतीय सामाजिक व्यवस्था में स़्त्री के प्रति जुड़े मिथक सोच और व्यवहार के पीछे की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति की गुप्त तहें खोलती चली जाती है।
गजब तो ये है कि अजीब तरीके से हर पन्ने पर चौंकाती यह पुस्तक सजीवता और शालीनता के आवरण में पाठक को हर समय सहज रखती है। स्त्री विर्मश पर लिखी अन्य अधिकांश रचनाओं से इतर बौद्धिक जटिलता, आक्रमकता, महिमामंडन और सहानुभूति का स्वांग कहीं नजर नहीं आता हैै।
लेखक की शिक्षक के रूप में छात्राओं के साथ वर्ष 2007 में दिल्ली से फिरोजाबाद की रात्रिकालीन बस यात्रा ने इस पूरी किताब की पृष्ठभूमि को तय किया है। यात्रा के साथ-साथ और उसके बाद की एक अंतर्यात्रा से यात्री का गुजरना स्वाभाविक होता है। लेखक एवं साथ गयी छात्राओं की यही अंतर्यात्रा की उपज यह किताब है।
बालपन में एक बालिका की चूड़ी पहनने की इच्छा पुरुष प्रधान समाज में उसके ढालने का सबसे सहज और प्रभावी चरण है। इसी सूत्र विचार से यह पुस्तक खुलती है और 148 पृष्ठों की लम्बी शब्द यात्रा के बाद विराम लेती है।
ड्रायवर कंडक्टर और लेखक याने 3 पुरुष और 21 छात्राओं के साथ दिल्ली से फिरोजाबाद की ओर रात के बस के सफर में संभावित खतरों का भान इन सभी यात्रियों के मन-मस्तिष्क में बराबर कौंधना वर्तमान भारतीय समाज और व्यवस्था के चारित्रिक सच एवं स्तर का एक अनचाहा पक्ष है।
कांच उद्योग का सिरमौर फिरोजाबाद में यातनाओं से गुजर कर छोटे बच्चों को कांच से श्रृंगार का सामान बनाते देखना भी लेखक और दिल्ली की सम्पन्न परिवारों की छात्राओं के लिए एक नया एवं विकट अनुभव था।
किताब के प्रवेश में ही प्रो कृष्ण कुमार और छात्रायें स्वीकार करते हैं कि उस अंधेरी रात और वेदना देने वाले दिन के दृश्यों ने हम सबको बदल दिया था। इतना कि फिरोजाबाद के कारखानों में चूड़ी बनाते बच्चों की त्रासदी को देखने के बाद ताजमहल के चबूतरे पर अपने अनुभवों को साझा करते हुए 4 छात्राओं ने जीवन में कभी भी चूड़ी न पहने का कठिन फैसला ले लिया था। मूलतः यह किताब भारतीय समाज में एक बच्ची के महिला बनने तक की यात्रा के दौरान उससे कदम दर कदम जुड़ते गए सांस्कृतिक प्रतीकों में निहित सच को सामने लाती है।
किताब के पांच अध्याय यथा-समता का मिथक, भिन्नता के धु्र व अन्तर्जगत और चारों ओर चूड़ी का चिह्न शास्त्र ताजकी कक्षा अभिमन्यु की शिक्षा में फैली है। सामाजिक दृष्टि से हमारे परिवारों में लडके का जवान होना सहज और स्वाभाविक है परन्तु लड़की का जवान होना अचरज भरा ही है।
पुरुष की कलाई मजबूत और स्त्री की कलाई नाजुक बनाने की सामाजिक परंपरा वर्तमान का यर्थाथ है। मानवीय मूलभूत इच्छायें सुनने सूंघने स्वाद और स्पर्श की आजादी लड़कों में उम्र के साथ बड़ती जाती है तो लड़कियों में घटती जाती है।
बात यह है कि लड़के-लड़की के मध्य सामाजिक समानता के आवरण में भिन्नताओं के कई अदृश्य शिखर भारतीय परिवारों में प्रभावी हैं। और आगे भी उनका जारी रहना अस्वाभाविक नहीं है।
बहरहालए प्रो कृष्ण कुमार जी ने एक सामान्य यात्रा की असाधारण छटपटाहट को यह कहकर विराम दिया है कि अन्तर्जगत बाजार में लड़की को पहुंचाकर समाज प्रकृति का ही निषेध करता है। किताब के इसी विराम से पाठक का वैचारिक चिन्तन आरम्भ होता है।